04-Jul-2015 06:32 AM
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डॉ. राही मासूम रजा का एक उपन्यास है कटरा बी आजऱ्ूÓ। आपातकाल की पृष्ठभूमि पर लिखे गए इस उपन्यास पर कभी दूरदर्शन के लिए टी.वी.सीरियल बनाने का प्रस्ताव आया, लेकिन टी.वी.

सीरियल बना उन्हीं की एक रचना नीम का पेड़Ó पर। इस एक उदाहरण से समझा जा सकता है कि 25 जून 1977 को जो इमरजेंसी लगाई गई, वह थोड़ी-बहुत तो किसी न किसी रूप में मौजूद है। स्वीडन के एक विद्वान से पूछा गया था कि आप लोकतंत्र को किस नजरिये से देखते हैं? तो उनका जवाब था जिस व्यवस्था में लोग निर्भीक होकर रहें और निर्भयता से अपनी बात कह दें, मेरे लिए वही लोकतंत्र है। इसी बात को किसी विचारक ने आगे बढ़ाते हुए कहा कि जनता सरकारें चुनती है लेकिन जनता तानाशाह भी चुन सकती है। इसीलिए 25 जून 1975 को भारत के तत्कालीन राष्ट्रपति फखरुद्दीन अली अहमद ने इंदिरा गांधी द्वारा भेजे गए अत्यंत गोपनीय पत्र की कुछ पंक्तियों को लगभग वैसे ही उद्धृत करते हुए लिखा कि ढ्ढठ्ठ द्ग3द्गह्म्ष्द्बह्यद्ग शद्घ ह्लद्धद्ग श्चश2द्गह्म्ह्य ष्शठ्ठद्घद्गह्म्ह्म्द्गस्र ड्ढ4 ष्द्यड्डह्वह्यद्ग शठ्ठद्ग शद्घ ्रह्म्ह्लद्बष्द्यद्ग ३५२ शद्घ ह्लद्धद्ग ष्टशठ्ठह्यह्लद्बह्लह्वह्लद्बशठ्ठ, ढ्ढ, स्नड्डद्मद्धह्म्ह्वस्रस्रद्बठ्ठ ्रद्यद्ब ्रद्धद्वद्गस्र, क्कह्म्द्गह्यद्बस्रद्गठ्ठह्ल शद्घ ढ्ढठ्ठस्रद्बड्ड, ड्ढ4 ह्लद्धद्बह्य क्कह्म्शष्द्यड्डद्वड्डह्लद्बशठ्ठ स्रद्गष्द्यड्डह्म्द्ग ह्लद्धड्डह्ल ड्ड द्दह्म्ड्ड1द्ग द्गद्वद्गह्म्द्दद्गठ्ठष्4 द्ग3द्बह्यह्लह्य 2द्धद्गह्म्द्गड्ढ4 ह्लद्धद्ग ह्यद्गष्ह्वह्म्द्बह्ल4 शद्घ ढ्ढठ्ठस्रद्बड्ड द्बह्य ह्लद्धह्म्द्गड्डह्लद्गठ्ठद्गस्र ड्ढ4 द्बठ्ठह्लद्गह्म्ठ्ठड्डद्य स्रद्बह्यह्लह्वह्म्ड्ढड्डठ्ठष्द्ग.
- उसके अगले दिन देश की जनता को ही नहीं दुनिया को भी विश्वास हो गया कि तानाशाह लोकतांत्रिक तरीके से भी चुने जा सकते हैं। ऐसा नहीं है कि दुनिया के इतिहास में इससे पहले किसी देश में आपातकाल नहीं लगा था, रक्तरंजित और रक्तहीन क्रांतियों के दौर में उथल-पुथल भरे राजनैतिक हालातों के चलते कई देशों में अनेक बार आपातकाल लगाया गया। कहीं सत्ता सेना के हाथ में आई तो कहीं तानाशाह सत्ता के सिरमौर बन बैठे। आज भी यही हो रहा है। ग्र्रीस जैसे देशों में आर्थिक आपातकाल है तो म्यांमार राजनीतिक आपातकाल से उबर रहा है और उधर सीरिया, ईराक जैसे देश युद्ध के आपातकाल में उलझ चुके हैं। विश्व में कहीं न कहीं आपातकाल है क्योंकि लोकतांत्रिक मूल्य कुछ ताकतवर लोगों के कब्जे में हैं। धार्मिक जकडऩों के अलावा भी कई जकडऩों ने लोगों को जकड़ रखा है। अभी भी आधी दुनिया में सही अर्थों में लोकतंत्र की स्थापना होना बाकी है। चीन का ही उदाहरण लें तो वहां तमाम भौतिक समृद्धि के बावजूद संवेदनशील और विचारशील जनता का एक वर्ग घुटन महसूस करता है। कुछ वैसी ही घुटन जो सोल्जेनित्सिन ने सोवियत संघ से बाहर धकेले जाने के समय महसूस की थी। भारत में भी यह घुटन तो है। चाहे इमरजेंसी के पहले, इमरजेंसी के समय या फिर इमरजेंसी के बाद। ऐसे कई अवसर आए जब लगा कि देश का लोकतंत्र ढह जाएगा। आपरेशन ब्लू स्टार, उससे पहले खालिस्तान का आंदोलन, भागलपुर, मेरठ, गुजरात के दंगे। 1984 के सिख दंगे, इंदिरा गांधी और राजीव गांधी की हत्याएं, एंडरसन जैसे हत्यारों को बाइज्जत देश निकाला, 1989 से लेकर 1998 तक लगातार चली राजनैतिक अस्थिरता जिसने आर्थिक आपातकाल के हालात पैदा कर दिए थे और देश को अपना सोना गिरवी रखना पड़ गया था। इमरजेंसी 30 वर्ष पीछे छूट गई है। इसीलिए कुछ लोगों को यह विश्वास दृढ़ हुआ है कि भारत में इमरजेंसी की वापसी नहीं होगी। किंतु क्या यह विश्वास एकदम पुख्ता है? क्या भारत संपूर्ण रूप से लोकतांत्रिक देश बन चुका है। क्या भारत की संघीय सरकार और संघ के राज्यों की सरकारें लोकतांत्रिक मूल्यों को आत्मसात कर चुकी हैं?
इनमें से बहुत से प्रश्नों के उत्तर बेचैन कर देते हैं। सच तो यह है कि भारतीय जनमानस का एक बड़ा वर्ग आज भी चुनावी राजनीति को लोकतंत्र मानता है। उसे यह खुशफहमी है कि कुछ गिने-चुने चेहरे जिन्हें राजनीतिक दलों ने तमाम समीकरणों में उपयुक्त पाने के बाद चुनावी अखाड़े में उतार दिया है। उनमें से एक को चुनकर उन्होंने लोकतंत्र नामक संस्था खड़ी कर दी है। जनता का यह विश्वास ही भारतीय लोकतंत्र के लिए वास्तविक चुनौती है। क्योंकि लोकतंत्र में प्रतिनिधि चुनना या चुनावी राजनीति ही सर्वोच्च नहीं है। बल्कि अपने जनप्रतिनिधि को और उसकी जिम्मेदारियों सरोकारों को भलीभांति समझना भी उतना ही आवश्यक है। 12 जून 1975 को जब इलाहाबाद हाईकोर्ट के न्यायाधीश जगमोहन लाल सिन्हा ने तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के विरुद्ध राजनारायण के आरोप को सही पाते हुए उनके चुनाव को रद्द किया था उस समय भारतीय लोकतंत्र के लिए वह निर्णय किसी अग्निपरीक्षा से कम नहीं था। एक निडर न्यायाधीश ने राजनारायण के उस आरोप को सही पाया था कि इंदिरा गांधी ने चुनाव जीतने के लिए सरकारी मशीनरी का दुरुपयोग किया और जनता के साथ धोखा किया। उस वक्त इंदिरा गांधी अपनी गलती स्वीकारते हुए पद छोड़कर फिर से जनता की अदालत में जातीं तो शायद एक मिसाल कायम होती। लेकिन इंदिरा के भीतर का तानाशाह राजनारायण जैसे मामूली नेता के समक्ष झुकने को तैयार नहीं था। न्यायालय ने इंदिरा गांधी के छह वर्ष तक चुनाव लडऩे पर रोक भी लगा दी थी। एक आपातकाल इंदिरा गांधी के अंतरमन में भी था। बहुमत से चुनाव जीतने के बावजूद इंदिरा गांधी अपना ही चुनाव हार रहीं थी। उस समय इस मुकदमे के वकील रहे शांतिभूषण ने यह कल्पना कभी नहीं की थी कि इंदिरा इमरजेंसी वाला कदम उठा सकती हैं। हड़तालों, जय प्रकाश नारायण-मोरारजी देसाई-जॉर्ज फर्नाडीस सहित विपक्ष के तमाम दिग्गज राजनीतिज्ञों के देश व्यापी आंदोलन ने इंदिरा गांधी को इस कदर बौखला दिया कि उन्होंने सुप्रीम कोर्ट के 23 जून 1975 को दिए गए अंतरिम आदेश को ठीक से समझने का प्रयास ही नहीं किया। जिसमें न्यायमूर्ति कृष्ण अय्यर ने उन्हें सदन में भाग लेने और सदस्य बने रहने की अनुमति प्रदान की थी। केवल प्रतिबंध इतना था कि वे वोट नहीं दे सकती थी। उनकी पैरवी करने वाले वकील नानी पालकीवाला ने 24 जून 1975 को इंदिरा गांधी को समझाने की कोशिश की थी कि सुप्रीम कोर्ट का आदेश बहुत संतोषप्रद है और सदन की कार्यवाही शुरू होते ही वोट का अधिकार भी मांग लिया जाएगा। लेकिन इंदिरा गांधी को दूसरे भय भी सता रहे थे। उन्होंने सबको अनसुना कर दिया। उस वक्त पश्चिम बंगाल के मुख्यमंत्री सिद्धार्थ शंकर रे और उनके सुपुत्र संजय गांधी के अलावा कोई और इंदिरा के निकट नहीं था। 19 माह तक वे तानाशाह बनी रहीं। गुजरात विधानसभा चुनाव में 12 जून 1975 को नतीजे आने के बाद कांग्रेस हार चुकी थी और उधर इलाहाबाद हाई कोर्ट का फैसला भी इसी दिन लगभग उसी समय आया। एक दिन में दो झटके। दिल्ली की गरमी उबलने लगी। जय प्रकाश नारायण, मोरारजी देसाई को गिरफ्तार कर लिया गया था। अटल बिहारी वाजपेयी, लालकृष्ण आडवाणी, मधु दंडवते थोड़ी देर से गिरफ्तार हुए। इंदिरा गांधी ने जब 8 बजे सुबह अचानक आकाशवाणी पर आकर देश वासियों को आपातकाल के बारे में बताया, तो देश की सांसें थम गईं।
क्या इमरजेंसी खत्म हो गई है
भागलपुर दंगे, मेरठ दंगे, सिख विरोधी दंगे, गुजरात में दंगे, विवादास्पद ढांचा विध्वंस के बाद भड़के दंगे, पूर्वोत्तर में मानव अधिकारों का हनन, उत्तरप्रदेश-बिहार-पश्चिम बंगाल जैसे राज्यों में राजनीतिक दलों के कार्यकर्ताओं पर हमले, पत्रकारों की हत्या जैसी घटनाएं तो आज भी नहीं रुकी हैं। क्योंकि पुलिस और व्यवस्था निष्पक्ष नहीं है। निष्पक्षता लोकतंत्र की अहम शर्त है। लेकिन सेंसरशिप भी कहीं न कहीं लोकतांत्रिक मूल्यों का गला घोंटती है। मकबूल फिदा हुसैन को देश छोडऩा पड़ा, सलमान रुश्दी को जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल में आने से रोका गया। तस्लीमा नसरीन की द्विखंडितो पश्चिम बंगाल में प्रतिबंधित कर दी गई और उन्हें बंगाल से बाहर भेज दिया गया। अनगिनत लेखकों, कलाकारों, पत्रकारों और राजनीतिज्ञों को भी कहीं न कहीं प्रतिरोध और घुटन का सामना करना पड़ा है। सरकारें भी डरती हैं। खाप पंचायतों के सामने समर्पण करने वाली सरकारें ज्यादा साहस नहीं दिखा पाती। कारण साफ है-वोट का गणित। गुर्जर आंदोलन के समय ट्रेनें थम गई थी। इससे पहले आरक्षण के विरोध में वीपी सिंह के समय जो आंदोलन हुआ था उसमें कई छात्रों ने आत्मदाह कर लिया था। यह भी वोट की राजनीति का ही परिणाम है। शायद इसीलिए आपातकाल के समय इंदिरा गांधी ने कहा था कि ञ्जद्धद्ग श्वद्वद्गह्म्द्दद्गठ्ठष्4 द्धड्डह्य ड्ढद्गद्गठ्ठ ड्ड ष्ह्वह्म्द्ग द्घशह्म् द्वड्डठ्ठ4 ठ्ठड्डह्लद्बशठ्ठड्डद्य द्बद्यद्यह्य. ष्ठद्गद्वशष्ह्म्ड्डष्4 स्रशद्गह्य ठ्ठशह्ल द्वद्गड्डठ्ठ द्गद्यद्गष्ह्लद्बशठ्ठह्य. ङ्खद्ग श्चह्म्द्ब5द्ग स्रद्गद्वशष्ह्म्ड्डष्4. इंदिरा की आलोचना बहुत की गई, लेकिन उनका यह कथन शत-प्रतिशत सत्य है कि लोकतंत्र केवल वोट की राजनीति वाला तंत्र नहीं है। बल्कि इससे भी बढ़कर बहुत कुछ है। आज के भारत को देखें तो इमरजेंसी भले ही न हो लेकिन लोकतांत्रिक मूल्य पूरी तरह स्थापित नहीं हो पाए हैं। लोकतंत्र के चारों स्तंभों की साख खतरे में है। प्राय: हर राज्य में एक न एक घोटाला है। इमरजेंसी के दौरान भ्रष्टाचार बहुत हद तक काबू में आ गया था। कई घोटाले पकड़े गए तो बहुत से घोटालेबाजों को जेल भेजा गया। इमरजेंसी के माध्यम से इंदिरा ने दिखाया कि उसी सिस्टम को आपात स्थिति में कैसे दुरुस्त किया जा सकता है। कानून की स्थिति सुधर गई थी, गाडिय़ां समय पर आती थी, मुलाजिमों और जनता के काम हो रहे थे, सार्वजनिक वितरण प्रणाली में गुणात्मक सुधार देखा गया था। अखबारों और मीडिया में पीत पत्रकारिता नदारत थी। ये अवश्य है कि चारों तरफ भय का माहौल था और लोग डर के मारे ही सही अनुशासित तरीके से काम कर रहे थे। आपातकाल की सराहना तो किसी भी हालत में नहीं की जा सकती। क्योंकि यह एक तरह की तानाशाही ही थी। लेकिन आपातकाल ने हमें यह सिखाया कि व्यवस्था को व्यवस्थित रखा जाए और व्यवस्था के सारे अंग अधिकतम संभव ईमानदारी के साथ काम करें तो आपातकाल की जरूरत नहीं पड़ेगी। आज लालकृष्ण आडवाणी ने आपातकाल की संभावना से इनकार नहीं किया है। आडवाणी मंझे हुए राजनीतिज्ञ हैं। वे यह जानते हैं कि जो हालात इंदिरा के समक्ष थे वैसे हालात किसी अन्य प्रधानमंत्री के समक्ष नहीं आए। यदि वैसे हालात आए तो...?
नरेंद्र मोदी के बारे में कहा जाता है कि वे इंदिरा गांधी की तरह काम कर रहे हैं। लेकिन नरेंद्र मोदी इंदिरा से ज्यादा उदार हैं। उनकी खासियत यह है कि राजनीति में उनका कोई पक्का दोस्त नहीं है। इसकी वजह शायद उनकी अतिरिक्त सतर्कता कही जा सकती है। अमित शाह से उनकी निकटता परिस्थिति जन्य है। लेकिन अमित शाह अपनी सीमाएं जानते हैं। मोदी की कार्यशैली और इंदिरा की कार्यशैली में जमीन-आसमान का फर्क है। लेकिन कई बार कड़ा रुख भी जरूरी होता है। जिसे गलत फहमी में तानाशाही समझ लिया जाता है।
कुछ अहम किरदार
इंदिरा गांधी - चारों तरफ से घिरने पर घबरा गईं। लेकिन सबसे अहम था न्यायपालिका का इंदिरा के खिलाफ कड़ा रुख। राजनारायण ने उनके चुनाव को चुनौती दी और इलाहाबाद न्यायालय ने चुनाव रद्द कर दिया। जय प्रकाश नारायण का नारा देश को उबाल रहा था। इसीलिए 25 जून 1975 से लेकर 21 मार्च 1977 तक इंदिरा तानाशाह बन गईं और इस तानाशाह से मुक्ति मिली आम चुनाव में, जब इंदिरा तो हारी हीं कांग्रेस भी हार गई और स्वतंत्र भारत के इतिहास में पहली बार गैर कांग्रेसी सरकार केंद्र में सत्तासीन हुई। यह कांग्रेस से इतर राजनीति की शुरुआत थी जिसकी परिणिति वर्ष 2014 के आम चुनाव में भाजपा के पूर्ण बहुमत और कांग्रेस के दहाई के अंक तक सिमटने के साथ हो चुकी है! क्या सचमुच यही परिणिति है?
संजय दूसरे तानाशाह!
आपातकाल के दूसरे महत्वपूर्ण किरदार संजय गांधी जिन्हें न सुनना पसंद ही नहीं था। विरोधियों को नफरत की दृष्टि से देखते थे। अपने आस-पास के चमचों से घिरे रहने के कारण जनता के सरोकारों से कट से गए थे। प्रजातंत्र का सम्मान करना भूल गए थे। दिल्ली और आस-पास के इलाकों में कई इमारतें ध्वस्त करवा दीं, झुग्गी-झोपडिय़ों को रातों-रात मिटा दिया, नसबंदी का ऐसा अभियान चलाया कि भय के कारण गांव के गांव खाली हो गए।
फखरुद्दीन अली अहमद
राष्ट्रपति केवल रबर स्टैम्प ही होता है, यह सिद्ध किया फखरुद्दीन अली अहमद ने। वे चाहते तो इंदिरा गांधी के उस पत्र को नकार सकते थे जिसमें इमरजेंसी की मांग की गई। आधी रात को राष्ट्रपति ने इंदिरा के कहने पर इमरजेंसी
लगा दी।
सिद्धार्थ शंकर रे
पश्चिम बंगाल के तत्कालीन मुख्यमंत्री सिद्धार्थ शंकर रे पर इंदिरा गांधी को कुछ ज्यादा ही भरोसा था। वे एक मात्र व्यक्ति थे जिनसे इंदिरा ने आपातकाल पर सलाह मांगी। रे ने आपातकाल की घोषणा का ड्राफ्ट तैयार किया और इंदिरा गांधी को आपातकाल लगाने के लिए प्रेरित किया। बाद में मीडिया से साक्षात्कार के समय रे ने कहा कि आपातकाल तो सही था लेकिन ज्यादतियां गलत थीं, किसी ने उन्हें रोकने की चेष्टा नहीं की।
विद्याचरण शुक्ला
संजय गांधी के विश्वस्त विद्याचरण शुक्ला को इंद्र कुमार गुजराल के स्थान पर सूचना और प्रसारण मंत्री बनाया गया। शुक्ला मीडिया को धमकाने के लिए कुख्यात थे, उन्होंने मीडिया पर भरपूर सेंसरशिप लगाई।
रुखसाना सुल्ताना
संजय गांधी की टोली की अहम सदस्य, जो अचानक सुर्खियों में आकर गुमनामी के अंधेरों में खो गईं। रुखसाना सुल्ताना अमृता सिंह की मां हैं। वही अमृता सिंह जिनका सैफ अली खान से तलाक हो चुका है। रुखसाना ने मुस्लिम समुदाय के बीच अपनी खास खौफनाक पहचान बना ली थी। उन्हें चारदीवारियोंÓ के भीतर नसबंदी अभियान चलाने का दायित्व सौंपा गया, जो उन्होंने बखूबी निभाया। बताया जाता है कि जब आपातकाल खत्म हुआ, तो 13 हजार नसबंदियां कराने का श्रेय अकेले रुखसाना को मिला।