21-Jul-2015 07:59 AM
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बिहार में विधानपरिषद के नतीजे भाजपा के लिए किसी एनर्जी ड्रिंक से कम नहीं हैं। 24 में से भाजपा गठबंधन को 13 सीटें मिली हैं। इस जीत ने सत्तासीन जनता दल यूनाईटेड और राष्ट्रीय जनता

दल गठबंधन की नींव हिला दी है। वैसे कुल 24 सीटें सारे राज्य के चुनावी गणित का अनुमान लगाने के लिए पर्याप्त नहीं हैं लेकिन फिर भी इससे भाजपा के आत्मविश्वास में वृद्धि हुई है। राष्ट्रीय जनता दल, जनता दल यूनाईटेड और कांग्रेस का गठबंधन अब तक राज्य में काफी मजबूत माना जा रहा था। इस गठबंधन का पलड़ा भारी होने की भविष्यवाणी राजनीतिक पंडितों ने की थी क्योंकि उन्हें यह अनुमान था कि तीनों की सम्मिलित ताकत भाजपा पर भारी पड़ेगी। लेकिन यह अनुमान गलत निकला। कुछ समय पहले एक सर्वेक्षण भी सामने आया था, जिसमें भाजपा गठबंधन को बिहार में 127 विधानसभा सीटों पर बढ़त की भविष्यवाणी की गई थी। इस सर्वेक्षण को बिहार की राजनीति के जानकारों ने हवा में उड़ा दिया था। लेकिन अब विधान परिषद के नतीजे जनता के मूड की पुष्टि करते नजर आ रहे हैं। हालांकि जनता दल यूनाईटेड का कहना है कि इस चुनाव के मतदाता अलग होते हैं। बिहार विधानपरिषद के उपसभापति सलीम परवेज की सारण सीट से हार चिंता का विषय है। लालू यादव और कांग्रेस को अपने खेमे में लेने के बाद नीतिश उम्मीद कर रहे थे कि अल्पसंख्यकों के बीच उनके गठबंधन की पकड़ मजबूत हो चुकी है। लेकिन नतीजे कुछ और कह रहे हैं। नीतिश के जनता दल यूनाईटेड को कुल जमा 5 सीटें मिली हैं। जो गठबंधन राज्य में सत्तासीन हो, उसकी ऐसी दुर्गति? 10 साल के शासन में भाजपा से अलग होने के बाद नीतिश ने लगातार पराजय ही देखी है। उपचुनाव को छोड़ दिया जाए, तो हर जगह नीतिश हारते दिखाई दे रहे हैं। जाति की जनगणना को चुनावी मुद्दा बनाने वाले नीतिश और लालू यादव इस पराजय को शायद ही पचा पाएं। बिहार में उत्तरप्रदेश की तरह जाति और संप्रदाय की राजनीति फलती-फूलती रही है। लालू यादव, शरद यादव, रामविलास पासवान जैसे नेताओं ने जातिगत राजनीति के बल पर केंद्र और राज्य में सत्तासुख भोगा। लेकिन नीतिश भाजपा के साथ मिलकर विकास की राजनीति कर रहे थे। उनका मिशन भाजपा से अलग होने के साथ ही धराशाई हो गया। अब लालू यादव के साथ जुडऩे के बाद नीतिश कुमार को फिर से जातिवादी राजनीति के चक्रव्यूह में फंसना पड़ेगा। नीतिश इस चक्रव्यूह को जी का जंजाल मानते हैं। लेकिन उनकी राजनीतिक विवशता भी है। यदि वे इस चक्रव्यूह में नहीं फंसे, तो चुनावी समीकरण गड़बड़ा जाएगा। लालू यादव जातीय राजनीति के शहंशाह हैं। उन्होंने जातीय राजनीति करके बिहार में लंबे समय तक जंगल राज चलाया और अपनी धर्मपत्नी को भी बिना
किसी योग्यता के सत्तासीन करने का कारनामा
कर दिखाया।
नीतिश की तासीर अलग है। वे लालू यादव की राजनीति में फिट नहीं बैठते। अपनी दीर्घ और मजबूरी से भरी हुई जिद के चलते भाजपा से किनारा करने वाले नीतिश विधानसभा चुनाव के बाद अवश्य ही बिहार की राजनीति में अप्रासंगिक हो जाएंगे। क्योंकि विधानपरिषद चुनाव के परिणामों के बाद राष्ट्रीय जनता दल नीतिश से जमकर सौदेबाजी करेगा। जाहिर है मुख्यमंत्री पद पाने वाले नीतिश को बहुत कुछ खोना पड़ेगा। शायद अपने स्ट्रॉन्गहोल्डÓ में कुछ सीटें भी। नीतिश के लिए यह त्रासद होगा। समझौते की पराकाष्ठा पर पहुंच चुके जनता दल यूनाईटेड के कुछ घुटनशीलÓ राजनीतिज्ञ अब यह कहते हैं कि इससे बढिय़ा तो भाजपा ही थी। लेकिन गंगा में पानी बहुत बह चुका है। भाजपा अपने पैरों पर खड़ी हो गई। बिहार के एक राजनीतिक पंडित महाराष्ट्र की तरह पोस्ट पोल सिनेरियो को खारिज नहीं करते। उनका कहना है कि चुनाव बाद ऊंट किसी भी करवट बैठ सकता है। लेकिन इस भूकंपीय अनुमान में वे इतना अवश्य जोडऩा चाहते हैं कि बिहार में अगली सत्ता मौजूदा गठबंधन के पास होने की संभावना शून्य ही है। इसका कारण यह है कि जब सीटों का बंटवारा होगा, तो दोनों दलों के कुछ कंप्रोमाइज्ड प्रत्याशियों को टिकट देना पड़ेगा। ये कंप्रोमाइज्ड प्रात्याशी ही दोनों दलों की लुटिया डुबोएंगे। इसलिए चुनाव के समय भाजपा गठबंधन के साथ-साथ नीतिश-लालू का मोर्चा अपने भीतर भी एक मोर्चे पर जूझता रहेगा।
भाजपा के लिए भी चुनौती
विधान परिषद जीत के साथ भाजपा का मनोबल तो बढ़ा है किंतु आत्मश्लाघा भाजपा को भारी पड़ सकती है। फील गुड भाजपा की अनुवांशिक बीमारी है, जिसका अविष्कार स्वर्गीय प्रमोद महाजन ने किया था। भाजपा दिल्ली में किरण बेदी को मुख्यमंत्री के रूप में प्रोजेक्ट करके कुछ ज्यादा ही फील गुड में आ गई, इसलिए इस बार बिहार में बिना किसी चेहरे के चुनावी समर में उतरने की तैयारी की जा रही है। अमित शाह की टीम ग्राउंड जीरो पर काम कर रही है। अर्थात् ब्लॉक और पंचायत लेवल पर फोकस है लेकिन इस चक्कर में कुछ कंगूरेÓ महत्वाकांक्षी हो उठे हैं। उनकी महत्वाकांक्षा पार्टी को रसातल में पहुंचा सकती है। अभी कुल जमा 127 सीटें एक आंतरिक सर्वेक्षण में गठबंधन को मिली हैं, इसका अर्थ यह है कि भाजपा स्वयं सत्ता बनाने की स्थिति में नहीं है। बैसाखियों की जरूरत तो उसको भी पड़ेगी। ऐसे हालात में मोदी की लोकप्रियता और साख को धक्का पहुंचेगा। यह आंकड़ा चिंताजनक होने के साथ-साथ शर्मनाक भी है। 10 वर्ष की एंटीइंकमबेंसी और लालू यादव के साथ जुडऩे पर जंगल राज का कुयश भी भाजपा को मजबूत नहीं कर सका, तो फिर भाजपा ने नीतिश से नाता तोडऩे के बाद राज्य में किया क्या? क्या भाजपा का जनाधार केवल नरेंद्र मोदी की हवा तक सीमित था? यह यक्ष प्रश्न है। भाजपा को इससे जूझना ही होगा। राजनीतिक प्रतिद्वंद्वी के रूप में लालू यादव और नीतिश मिलकर तबाही मचा सकते हैं। अक्टूबर दूर है। बिहार अलग तासीर का राज्य है। जनता बहुत भावुक है। तमाम मुद्दे जनता को उद्वेलित कर रहे हैं। हालांकि नीतिश कुमार ने अच्छा काम किया है, पर जनता के जेहन में यह प्रश्न है कि जिस जंगल राज का उन्मूलन कर नीतिश कुमार ने भाजपा के सहयोग से सत्ता हासिल की थी, आज उसी जंगल राज के पैरोकारों से नीतिश ने हाथ क्यों मिलाया। भाजपा जनता के इस प्रश्न का उचित उत्तर दे सकी, तो उसकी नैया पार भी लग सकती है, गोलमाल उत्तर देने पर जनता पटकनी भी दे सकती है। इसीलिए भाजपा लगातार सर्वेक्षण कर रही है। प्रत्याशी के चयन के लिए भी सर्वेक्षण किया जा रहा है। किस प्रत्याशी की छवि अच्छी है और किसकी खराब, यह डाटा भाजपा के कंट्रोल रूम में नियमित दर्ज हो रहा है। तकनीक का यह सदुपयोग है। किंतु जनता के बीच काम करना भी उतना ही आवश्यक है। भाजपा को अपना स्कोर बनाए रखने के लिए दोनों पहलुओं पर ध्यान देना होगा। विधानपरिषद की जीत सुर्खियों में एकाध सप्ताह रहकर गायब हो जाएगी। तब कोई नया मुद्दा सामने आएगा। इसलिए उचित रणनीति और प्रत्याशियों का सही चयन, बिहार चुनाव में जीत की कुंजी
बन चुका है।
शत्रुÓ नहीं बन सके मित्र
भाजपा नेता शत्रुध्न सिन्हा को न तो मंत्री बनाया गया और न ही बिहार में उनकी भूमिका तय की गई है। एक जमाने में लालकृष्ण आडवाणी शत्रुध्न सिन्हा पर इतने मेहरबान थे कि कभी शत्रु बाबू को बिहार का मुख्यमंत्री प्रोजेक्ट किए जाने की बात उठी थी, लेकिन आज शत्रु बाबू मायूस हैं। वे अपने आपको मुख्यमंत्री पद के काबिल नहीं समझते। अलबत्ता उन्हें केन्द्र सरकार में मंत्री न बनने का मलाल है।
-आरएमपी सिंह