ध्यान, योग, सत्य
18-Jun-2015 07:21 AM 1234862

जब तक जीवन में स्वास्थ्य, सत्य और अध्यात्म न हो जीवन व्यर्थ है। हम जीवन का अधिकांश हिस्सा पाखंड में बिताते हैं। आडम्बर और अहंकार हमारी शांति छीन लेता है। अपनी श्रेष्ठता सिद्ध करने की स्पर्धा हमें बार-बार पतन के गर्त में धकेलती है। आडम्बरहीन पूजा-अर्चना हो ही नहीं पाती। वैष्णव ने पूजा का आयोजन किया, पूजा के संसाधन एकत्र किए, भव्य भवन में हवन-धूप आदि का आयोजन किया, सुस्वादू प्रसाद का वितरण किया। हरि में मन लगाने के लिए पूजा लंबी खींची किंतु मन में तो व्यवसाय चलता रहा। जोड़-भाग, कम-ज्यादा होता रहा। पूजा व्यर्थ गई, आडम्बर भरपूर हुआ। हम में से अधिसंख्यक ऐसा ही करते हैं। न जाने कब यह धारणा भक्तों के मन में आई कि परमात्मा संसाधनों से प्रसन्न होता है इसीलिए महंगी पूजा आयोजित करेंगे। भंडारा करवाएंगे, हुंडी से लाखों रुपए का गुप्तदान करेंगे किंतु फिर भी मन की शांति नहीं मिलती। क्योंकि उसने पूजा नहीं कि बल्कि अपने कीमती समय को बर्बाद किया है। भगवान को अजामिल जैसे भक्त प्रिय हैं- जिनके तसव्वुर में वह सदा रहता है।

याद आए तो दिल मुनव्वर हो,

दीद हो जाए तो नजर बहके।

उसका ध्यान ही दिल को मुनव्वर कर देता है। उसका साक्षात्कार तल्लीन कर देता है। ऐसे आनंद के लिए संसाधनों की कहां आवश्यकता पड़ती है यह तो केवल महसूसने वाली बात है। इसीलिए हमारे मनीषियों ने ध्यान, योग और सत्य को जीवन का आधार बताया है।

सत्यवादी व्यक्ति ही सच्चा योगी है और सच्चा योगी ही सच्चा ध्यानी हो सकता है। सत्य की विशेषता यह है कि सत्यवादन के उपरांत आपको कुछ स्मरण नहीं रखना पड़ता। जब स्मरण में कुछ असत्य नहीं रहेगा, तो कुछ समय के लिए मन को प्रथक करने में सफलता मिलेगी और जब मन प्रथक होगा, तो ध्यान को मार्ग मिलेगा। ध्यान समर्थ बनता जाएगा, तो पूजा-अर्चना ईश्वर को अर्पित होती जाएगी। आडम्बर की आवश्यकता नहीं पड़ेगी। स्थान की आवश्यकता भी नहीं पड़ेगी। जहां एकाग्र हों वहीं ध्यान और वहीं ईश्वर की पूजा-अर्चना। न मंदिर की जरूरत न मस्जिद की, न चर्च की न गुरुद्वारे की। जहां मन स्थिर हुआ वहीं से ईश्वर का प्रवेश प्रारंभ हुआ। ईश्वर में अपने आप को डुबो देना और उसमें तल्लीन हो जाना ही सबसे बड़ी पूजा है। यही सहज योग भी है। कबीर ने क्या खूब कहा है-

साधौ सहज समाधि भली।

जहां-जहां डोलो सोई परिक्रमा।

जिन खावो तिन मेवा।।

जब सोवो तब करो दंडवत।

पूजो और न देवा।।

जिसने ईश्वर को इस हद तक अंगीकार कर लिया कि उसके भ्रमण, भोजन, शयन से लेकर हर क्रिया-कलाप में ईश्वर साथ रहने लगा है, तो पूजा की क्या आवश्यकता है? जो ईश्वर को सदैव अपने समक्ष महसूसेगा, वह गलत कर ही नहीं सकता। वह अपने एकांत में भी परमात्मा की उपस्थिति के प्रति सजग रहता है। इसलिए उसके जीवन में अराजकता नहीं आती। वह सदैव जीवन संपूर्ण शुद्ध अंतर्मन के साथ जीता है। उसे परमात्मा की पूजा के लिए आडम्बर की आवश्यकता नहीं पड़ती। उसका ध्यान ही उसकी पूजा है। किंतु ध्यान और अर्चना की इस अवस्था को प्राप्त करने में जो साध्य है, वह हमारा भौतिक शरीर ही है। भौतिक शरीर व्याधियों से मुक्त नहीं है। व्याधियां ध्यान भटकाती हैं। शरीर की आवश्यकताएं, वासनाएं जब अनियंत्रित हों, तो व्याधि का रूप धारण कर लेती हैं और ये व्याधियां परमात्मा से एकाकार होने में सबसे बड़ी बाधा है। हमारे दर्द, हमारी अस्वस्थता और हमारी वासना हमें एकाग्रभीत्त होने ही नहीं देतीं। वह हमारे ध्यान को भंग करती हैं। प्रभुचरणों में बैठकर भी हम अपनी व्याधियों के दलदल में भटकते रहते हैं। इसीलिए हमारे मनीषियों ने योग को अपनाने की सलाह दी है। योग का अर्थ किसी धर्म, सम्प्रदाय या विचारधारा से नहीं जुड़ा। यह ईश्वर में एकाकार होने का साधन है क्योंंकि यह उस साध्य (शरीर) को स्वस्थ और समर्थ बनाए रखता है। रोगी कभी योगी नहीं हो सकता और जो योगी है, वही ध्यानी भी बन सकता है। इसलिए योग, ध्यान, सत्य यह जीवन के तीन आधार हैं। जो इस प्रक्रिया में आ गया उसका जीवन तर जाता है।

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