18-Jun-2015 07:39 AM
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वर्ष 2009 में जब मध्यप्रदेश की राजधानी भोपाल स्थित एमपी नगर थाने में व्यापमं ने बुंदेलखंड सागर मेडिकल कॉलेज से प्राप्त प्रतिवेदन के आधार पर 9 छात्रों के खिलाफ एफआईआर क्रमांक

728/9 दर्ज कराई गई तो किसी को भनक तक नहीं थी कि यह विश्व के सबसे बड़े शिक्षा घोटाले का पर्दाफाश कर देगा। उस वक्त दयाल सिंह, जाहर सिंह, दिलीप सिंह, कुमारी इंद्रा वारिया, भारत सिंह, कमलेश झावर, रौनक जायसवाल, अश्विन जॉयसेस, पंकज धुर्वे और प्रदीप खरे नामक नौ छात्रों के खिलाफ व्यापमं की मेडिकल परीक्षा में मुन्नाभाई की तर्ज पर स्कोरर के माध्यम से पास होने का आरोप लगाते हुए यह एफआईआर दर्ज की गई थी। दरअसल इन नौ छात्रों को उस प्रवेश समिति के सदस्यों ने पकड़ा था जिसने चेहरों का मिलान करने के बाद यह पाया कि जिन छात्रों ने परीक्षा दी थी उनके और प्रवेश लेने वाले छात्रों के चेहरे अलग-अलग थे। इन नौ छात्रों को गिरफ्तार कर लिया गया और वे जमानत पर छूट भी गए। लेकिन इतने बड़े कांड को उस वक्त मध्यप्रदेश सीआईडी, इंटेलीजेंस से लेकर तमाम एजेंसियों ने नजर अंदाज क्यों किया। उस एफआईआर को कागज समझकर वहीं के वहीं दफन कर दिया। नतीजा यह रहा कि वर्ष 2011 में जब यह मामला ज्वालामुखी की तरह फट पड़ा तब जाकर इसमें बड़े-बड़े नाम उजागर हुए और गिरफ्तारियों का सिलसिला शुरू हुआ।
इस बीच 2009 से 2011 तक मुन्नाभाइयों की खेप पर खेप निकाली जाती रही। लेकिन तब भी सरकार की नींद नहीं खुली। वर्ष 2009-10, 2010-11, 2011-12, 2012-13, 2013-14 में निजी कॉलेजों ने व्यापमं घोटाले के परत दर परत खुलने के बावजूद डीमेट के नाम पर जमकर मनमानी की। स्टेट कोटे की सीटों को भी निजी कॉलेजों ने नहीं छोड़ा इस मामले में जब चिकित्सा शिक्षा विभाग ने फीस रेग्यूलेटरी कमेटी को लिखा तो उन्होंने आज तक इन वर्षों में जो सीटें निजी कॉलेजों ने बेची थी उनका हिसाब नहीं दिया। मात्र 2013 की सीटों के बारे में फीस रेग्यूलेटरी कमेटी ने अपना निर्णय दिया। एफआरसी ने इस अनियमितता को सच पाते हुए चिरायू मेडिकल कॉलेज पर 225 लाख, अरविंदों मेडिकल कॉलेज पर 40 लाख, इंडेक्स मेडिकल कॉलेज पर 550 लाख, पीपुल्स मेडिकल कॉलेज पर 215 लाख, एलएन मेडिकल कॉलेज पर 245 लाख और आरडीगार्डी पर 35 लाख की पैनल्टी लगाई है। निजी कॉलेज वाले पैनल्टी न देने के बहाने पर अपीलीय प्राधिकरण के पास चले गए। गड़बड़ी पाई गई तभी तो पैनल्टी लगाई गई थी। यदि एफआरसी इन चारों--पांचों वर्षों का निर्णय एक ही साथ दे देती तो इन कॉलेजों के ऊपर करोड़ों की पैनल्टी निकलती और सरकारी सीट को खाने वाले कॉलेजों के संचालकों को जेल की हवा खानी पड़ती। परंतु मामला कानूनी पेंचीदगियों में उलझकर रह गया है। सरकारी कोटे की सीटें बेंच दी गई और सरकार हाथ पर हाथ धरकर बैठी हुई है। वो बच्चे जिन्होंने मेडिकल में आने का ख्वाब देखा था उनके मंसूबों पर पानी इन्हीं गफलतों के कारण फिर गया। ठीक वैसे ही जैसे वर्ष 2009 में एफआईआर के बावजूद सरकार सोती रही। सरकार की कुम्भकरणी नींद तब भी नहीं टूटी जब 150 से अधिक मुन्नाभाइयों का पर्दाफाश हो चुका था। मध्यप्रदेश मुन्नाभाई की जन्नत बन चुका था। विधानसभा में कईयों बार यह प्रश्न उठा। व्यापमं घोटाले पर जमकर हंगामा भी हुआ। लेकिन निष्कर्ष नहीं निकल पाया। निजी तौर पर भी कई लोगों ने सूचना के अधिकार के तहत मुन्नाभाइयों की मार्कशीट, जाति प्रमाण पत्र, फोटो समेत तमाम दस्तावेज मांगे लेकिन नतीजा सिफर रहा। इसीलिए घोटालेबाजों का हौंसला बढ़ता गया और उन्होंने डीमेट में तो पूरा 100 प्रतिशत फर्जीवाड़ा कर दिखाया।
अब व्यामपं घोटाले की आंच में सुलग रहे मध्यप्रदेश और उसकी तपिश से परेशान शिवराज सरकार के सामने एक नई मुसीबत आन खड़ी हुई है। प्राइवेट मेडिकल कॉलेजों में प्रवेश के लिए जिम्मेदार डीमेट परीक्षा के डायरेक्टर उपरीत ने जो खुलासे किए हैं उससे प्रदेशभर के नौकरशाहों, मंत्रियों, अधिकारियों की सांसें ऊपर-नीचे हो रही हैं। डीमेट घोटाले से जुड़े लोग उच्च पदों पर पदस्थ हैं। यह एक संयोग ही है कि डीमेट के पूरे सेटअप की नीव भी नितिन महिन्द्रा ने ही वर्ष 2006 में रखी थी। व्यापमं और डीमेट में एक समानता यह भी है कि दोनों महाघोटालों के किरदार मिलते-जुलते हैं। नितिन महिन्द्रा और उनके करीबी दोस्त अजय मेहता जिनके तार मुख्यमंत्री निवास से भी जुड़े हुए हैं। इन्हीं का जुड़ाव एटीएस टेक्नोलॉजी से जुड़ा हुआ है जो डीमेट घोटाले में सक्रिय थी। अरविन्दो मेडिकल कॉलेज और पीपुल्स मेडिकल कॉलेज सबसे पुराने मेडिकल कॉलेजों में से एक हैं। यदि इनसे पास आउट बच्चों की लिस्ट निकाली जाए और उनके माता-पिता की पूरी जानकारी पता की जाए तो ऐसे चौंकाने वाले नाम सामने आएंगे जिससे प्रदेश के प्रशासनिक राजनीतिक और न्यायिक गलियारों में भूचाल आ जाएगा। डीमेट एक ऐसा हमाम है जिसमें प्रदेश की न्यायपालिका, कार्यपालिका और व्यवस्थापिका नग्न नजर आती हैं। इस मामले में मेडिकल काउंसिल ऑफ इंडिया ने भी आंख बंद कर रखी थी। यह भी पता लगाने का प्रयास नहीं किया कि जिन बच्चों को एडमीशन दिया जा रहा है वे एडमीशन की पात्रता रखते हैं या नहीं।
मध्यप्रदेश के प्राइवेट मेडिकल कॉलेज में दो ही तरीके से प्रवेश हो सकता है। या तो बच्चा पीएमटी से पास हुआ हो जो राज्य कोटे में भर्ती होता है या डीमेट से पास हुआ हो। एनआरआई कोटे के बाद बची सीटों में से आधी डीमेट और आधी पीएमटी से भरी जाती हैं। लेकिन ऐसे भी कई उदाहरण हैं जिनमेें उन बच्चों को प्रवेश दे दिया गया जिन्होंने न तो डीमेट किया और न ही पीएमटी की परीक्षा दी। उदाहरणस्वरूप इन्डेक्स कॉलेज में गुजरात से परीक्षा पास छात्र को एडमीशन दे दिया गया। जिनके पीएमटी में 50 प्रतिशत नंबर भी नहीं थे। अगर कायदे से देखा जाए तो इतने कम अंकों में प्रवेश की पात्रता भी नहीं थी। ऐसे न जाने कितने उदाहरण हंै। जैसे भोपाल के लोकायुक्त में डीएसपी के पद पर पदस्थ अधिकारी के बेटे अजय रघुवंशी, इंदौर की विधायक और वर्तमान में मेयर मालनी गौड़ के सुपुत्र कर्मवीर गौड़ और कांग्रेस के पूर्व मंत्री के खास लक्ष्मण ढोली के सुपुत्र तन्मय ढोली को परीक्षाओं में 50 प्रतिशत भी नहीं मिले, लेकिन वे अरविंदों मेडिकल कॉलेज से डॉक्टर बन गए। जो कि एमसीआई के नियमों का सरासर उल्लंघन है। मध्यप्रदेश के चिकित्सा शिक्षा विभाग, एमसीआई और निजी कॉलेज संचालकों की मिलीभगत का इससे बड़ा उदाहरण और क्या होगा कि हाईकोर्ट जबलपुर बेंच ने इन तीन छात्रों के प्रवेश को तो नामजद गलत ठहराया था। चिकित्सा शिक्षा विभाग को कार्रवाई करने के निर्देश दिए थे। लेकिन वे डॉक्टरी की डिग्री लेकर समाज में दुकानें खोलकर बैठे हैं। ये तो एक बानगी मात्र है। ऐसे किस्सों से डीमेट का इतिहास भरा पड़ा हुआ है। 2006-07 में भी एक आईएएस अधिकारी का साला 12 लाख रुपए के साथ गिरफ्तार हुआ था। यह मामला दबा दिया गया। वर्तमान एसआईटी के चेयरमैन ने भी इस मामले में जांच पड़ताल की थी उन्होंने कई अनियमितताओं की तरफ इशारा किया था, लेकिन उनकी जांच भी दबा दी गई। इसके बाद जब सुप्रीम कोर्ट में 23 सितंबर 2011 को न्यायमूर्ति दलवीर भंडारी और दीपक वर्मा की बेंच ने डीमेट तथा पीएमटी में 50-50 प्रतिशत सीटें भरने का निर्णय दिया था। उस समय यह साफ कहा था कि डीमेट की परीक्षा में पारदर्शिता होनी चाहिए पर यह परीक्षा पारदर्शिता के लिए बनी ही नहीं थी। यही से उपरीत और तमाम गड़बड़ी करने वालों की भूमिका शुरू होती है। डीमेट की परीक्षा का विधान इस प्रकार बनाया गया है कि फर्जीवाड़े की पूरी गुंजाइश रखी गई है। न्यायिक हिरासत में जेल जाने से पहले डीमेट के कोआर्डिनेटर एवं कोषाध्यक्ष योगेश उपरीत ने एसटीएफ व एसआईटी को बताया था कि डीमेट का रिकार्ड तीन महीने तक ही सुरक्षित रखा जाता है और उसके बाद नष्ट कर दिया जाता है। इस परीक्षा में 100 प्रतिशत छात्रों की उत्तर पुस्तिका पर गोले काले किए जाते हैं। क्योंकि निजी मेडिकल कॉलेजों के संचालक परीक्षा से पहले डीमेट को उन छात्रों की सूची थमा देते हैं जिनके सिलेक्शन होने होते हैं। इसी सूची के आधार पर डीमेट की रेवड़ी बांटी जाती है। भोपाल के एक नामी डॉक्टर ने नाम न छापने की शर्त पर बताया है कि जिन छात्रों को लाखों रुपए लेकर डीमेट के द्वारा भर्ती करवाया गया वे सब पूरी की पूरी उत्तर पुस्तिका खाली छोड़कर आए थे। यह फर्जीवाड़ा 2006 में डीमेट के गठन के बाद से ही चल रहा है। जब रिकार्ड नहीं है तो सबूत कहां से मिलेंगे। पिछले 9 साल में डीमेट के द्वारा कितने छात्रों का हक मारा गया है और कितने अयोग्य लोगों को डिग्रियां थमा दी गई हैं इसकी जानकारी उपरीत जैसे मोहरों को ही हो सकती है। जिन्हें आगे रखकर बिसात बिछाने वाले सफेद पोश अभी भी बंकरों में दुबके हुए हैं। उपरीत बहुत कुछ जानते हैं लेकिन वे निजी मेडिकल कॉलेज की इस करतूत का खुलासा करेंगे इसमें सदेह ही है। फिलहाल एसआईटी ने जबलपुर के न्यूरोलॉजिस्ट एम एस जौहरी की बेटी डॉ. रिचा जौहरी को गिरफ्तार करने के लिए जाल बिछाया है। डॉ. एमएस जौहरी पहले से ही गिरफ्तार हैं। उपरीत ने स्वीकार किया था कि जौहरी ने अपनी बेटी के प्रीपीजी में एडमीशन के लिए 25 लाख रुपए की रिश्वत दी थी। जौहरी के बंगले में पुरानी फाइलों में इस रिश्वतखोरी का हिसाब किताब मिल गया। अभी गिरफ्तारियों का सिलसिला जारी है यदि उपरीत ने पूरा सच बता दिया तो न जाने कितने चेहरे बेनकाब हो जाएंगे। देखा जाए तो मध्यप्रदेश के सभी मेडिकल कॉलेज इस जांच के दायरे में आ सकते हैं। डीमेट के सारे पदाधिकारी इस घोटाले में शामिल बताए जा रहे हैं। पिछले 9 वर्षों के दौरान गलत तरीके से प्रवेश देने वाले 5 हजार 500 छात्र जांच के दायरे में आ सकते हैं। लेकिन जो रिकार्ड नष्ट हुआ है उसे कैसे रिकवर किया जाएगा। यह एक अहम सवाल है।
इससे भी बड़ा सवाल सरकार के समक्ष उपस्थित हुआ है क्योंकि डीमेट के नियम बनाकर उसको संचालित करने की जिम्मेदारी तो सरकारी की ही थी। सभी चिकित्सा शिक्षा मंत्रियों ने मेडिकल कॉलेजों की लॉबी के दबाव के आगे आत्मसमर्पण कर दिया। परीक्षा संचालन के नियम भी आज तक नहीं बन पाए हैं। परीक्षा में सुधार के कई सुझाव दिए गए। चाहे वह उत्तर पुस्तिका स्केन करने का मामला हो या फिर अंक सूची पर नजर रखने की बात। जब उत्तर पुस्तिका जांचने वाले कुछ परीक्षकों ने खाली उत्तर पुस्तिका को काट कर उस पर हस्ताक्षर करने शुरू कर दिए तो उसके लिए भी रास्ता निकाल लिया गया। तू डाल-डाल मैं पात-पात वाली स्थिति है। प्रीपीजी के रेट आज भी डेढ़ करोड़ से लेकर 90 लाख तक तय है। कुछ बदला नहीं है। बस पैसे खर्च करने हैं। यह पैसा बड़े-बड़े निजी अस्पतालों के संचालक हंसते-हंसते दे देते हैं। क्योंकि उन्हें अपना पुस्तैनी धंधा चलाना है। अगली पीढ़ी को डॉक्टर बनाना उनकी मजबूरी है। इसलिए जिनमें कम्पाउंडर बनने की अक्ल नहीं है वे आज की तारीख में निजी अस्पतालों के विख्यात डॉक्टर बन बैठे हैं। दिक्कत यह है कि 2008 में ही इस फर्जीवाड़े का पता लगने के बाद नितिन महिन्द्रा, अमित मिश्रा, पंकज त्रिवेदी, योगेश उपरीत जैसे कई घोटालेबाजों को पनपने का मौका दिया गया। डॉ. जगदीश सागर ने तो निजी कॉलेजों में डीमेट के नाम पर पैसा लेकर फर्जी जाति प्रमाण पत्र के सहारे पीएमटी में सेलेक्शन करवा दिया। त्रिवेदी बंधुओं पंकज और पीयूष की हर जगह प्रोफेशनल शिक्षा मेें दखलअंदाजी है। -
क्या कर रही थी फीस रेगुलेशन कमेटी?
सुप्रीम कोर्ट में मृदुल धर वर्सेज भारत सरकार (रिट पिटिशन क्र. 306 - वर्ष 2004) के प्रकरण में 12 जनवरी 2005 को न्यायमूर्ति वाय.के. सभरवाल, डी.एम. धर्माधिकारी, तरुण चटर्जी की बैंच ने स्पष्ट निर्णय दिया था कि एमबीबीएस तथा बीडीएस में राज्य, केंद्र में किसी भी संस्था, द्वारा संचालित मेडिकल कॉलेज में 30 प्रतिशत सीटें अखिल भारतीय परीक्षा से भरी जाएंगी। जबकि पीजी कोर्सेस में 50 प्रतिशत सीटें इस तरह भरने का निर्देश था। इस निर्णय की धज्जियां तो उड़ाई ही गईं। इस निर्णय के तहत बनी एडमीशन और फीस रेगुलेशन कमेटी को भी अंधेरे मेें रखा गया। प्रश्न यह है कि उक्त कमेटी ने इन अनियमितताओं पर स्वत: कोई संज्ञान नहीं लिया। एमसीआई की तरह एडमीशन और फीस रेगुलेशन कमेटी, निजी विश्वविद्यालय आयोग के कुछ कर्ता-धर्ताओं ने भी इस घोटाले को हो जाने दिया-क्यों? पीपुल्स मेडिकल कॉलेज को जब यूनिवर्सिटी का दर्जा दिया गया, तो उसने विश्वविद्यालय के स्टेच्यू ऑर्डिनेंस के प्रकाशन में ही महीनों लगा दिए और ऐन काउसिंलिंग से पहले इस कॉलेज को विश्वविद्यालय का दर्जा दे दिया गया। जाहिर है नितिन महिंद्रा और उपरीत जैसे घोटालेबाजों को कॉलेजों की इस अनियमितता के दौर में पनपने का मौका मिला। डीमेट में 100 प्रतिशत सीटें नीलाम हुईं और सरकार को आहट तक नहीं लगी। आहट कैसे लगती प्रदेश के ही कुछ मंत्री अपने कतिपय हितों के चलते इन अनियमितताओं के साथ खड़े हुए थे। पीपुल्स कॉलेज ने तो प्री-मेडिकल टेस्ट देकर चयनित हुए छात्रों को एडमीशन देने की बजाए एमसीआई द्वारा स्वीकृत 150 सीटें खुद ही भर ली थीं। लेकिन तब भी सरकार की नींद नहीं खुली। इसलिए उन 6 निजी मेडिकल कॉलेजों को डीमेट में मनमानी करने का मौका मिल गया। सुशासन का दावा करने वाली सरकार की नाक के नीचे दुनिया के सबसे संवेदनशील और महत्वपूर्ण पेशे को पूंजीपतियों ने अपनी मनमानी से मजाक बना डाला। पाक्षिक पत्रिका अक्स ने मेडिकल माफिया की इन कारगुजारियों का लगातार पर्दाफाश किया। लेकिन प्रदेश के 6 निजी मेडिकल कॉलेजों की आधी सीटें फर्जीवाड़े से भरी जाती रहीं। डीमेट में नीलामी आज भी नहीं रुकी है। उसका कारण यह है कि सत्ता में बैठे कुछ ताकतवर लोगों के हित डीमेट से जुड़े हुए हैं और तो और न्यायपालिका भी संदेह के घेरे में आ गई। जुलाई 2013 में न्यायमूर्ति अल्तमस कबीर की अध्यक्षता वाली बैंच ने कॉमन मेडिकल एंटें्रस टेस्ट को लेकर 190 पेज का फैसला जो दिया था उससे भी निजी मेडिकल कॉलेजों को ही फायदा हुआ और सरकार की दलील को उन्होंने सिरे से खारिज कर दिया।
कौन है योगेश उपरीत?
हरदा जिले से जबलपुर पहुंचे योगेश उपरीत ने रानी दुर्गावती विश्वविद्यालय के अधिकारियों से ऐसे रिश्ते बना रखे थे कि नब्बे के दशक में योगेश उपरीत रानी दुर्गावती विश्वविद्यालय का सबसे ताकतवर
शख्स बन चुके थे। बीए, बीकॉम,बीएससी तो दूर एमबीबीएस और इंजीनियरिंग के छात्रों को भी पास या फेल कराने का काम उनके एक इशारे पर हो जाता था। योगेश उपरीत सिस्टम में रहकर सिस्टम को चलाने का गुर सीख गए थे। शहर के केसरवानी कॉलेज के दो कमरों में उपरीत एक मेडिकल कॉलेज खुलवाकर अपनी हिस्सेदारी ली और उसे मेडिकल काउंसिल ऑफ इंडिया की बजाए रानी दुर्गावती विश्वविद्यालय से संबद्ध करवा दिया। इसके साथ ही फर्जी दाखिले का नया खेल उन्होंने शुरू कर दिया। इस फर्जी मेडिकल कॉलेज में दक्षिण भारत और गुजरात से छात्रों को डॉक्टर बनाने का लालच देकर दाखिले दिलवाए जाते थे। फिर उन्हें फर्जी डिग्रियां थमाकर करोड़ों बटोरे जाने लगे। आखिरकार कॉलेज के खिलाफ हाईकोर्ट में एक जनहित याचिका दायर हुई और हाईकोर्ट के आदेश से योगेश उपरीत की ये दुकान बनाम कॉलेज बंद हो गया। कॉलेज में हिस्सेदारी कागजों पर ना होने से उपरीत कानूनी कार्रवाई से बच गए। इस बीच कांग्रेस के बड़े घराने के जरिए संचालित शहर के एक निजी शिक्षण संस्थान से उपरीत का तालमेल बढ़ा.. जिसके बाद उपरीत के कदम उच्च शिक्षा क्षेत्र के बड़े पदों की ओर बढ़ते चले गए। बतौर लैक्चरर सेवा खत्म होने के बाद उपरीत का नाता रानी दुर्गावती विश्वविद्यालय से टूटा ही था कि उसे चित्रकूट के महात्मा गांधी ग्रामोदय विश्वविद्यालय का कुल सचिव बना दिया गया। योगेश अपने सियासी रसूख के बूते भोपाल पहुंच गए। चित्रकूट यूनिवर्सिटी के बाद उपरीत की सीधी एंट्री व्यापम में परीक्षा नियंत्रक के रूप में हुई। फिर उन्होंने व्यापमं में अपने पुराने अनुभवों के बाद डीमेट में जाकर भ्रष्टाचार का नया अध्याय ही लिख दिया।