हर मुश्किल से निकले शिवराज
04-Jul-2015 06:05 AM 1234936

हर मुश्किल से निकले शिवराजध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान मध्यप्रदेश में इतनी लंबी पारी खेलने वाले पहले गैर कांग्रेसी मुख्यमंत्री तो हैं ही भाजपा के भी एक मात्र ऐसे नेता हैं, जो

तमाम बाधाओं के बावजूद अपनी कुर्सी बचाने में कामयाब रहे हैं। कर्नाटक में जब येदियुरप्पा का नाटक हुआ था और उसके बाद भाजपा पराजित हो गई थी, उस समय मध्यप्रदेश की राजनीति में भी भूचाल चल रहा था। लेकिन शिवराज ने अपनी नैया बचा ली। व्यापमं से लेकर डंपर कांड और खदान आवंटन तक कई आरोप शिवराज ने झेले। उन्हें दिल्ली तलब भी किया गया। बहुत से मौके आए जब मध्यप्रदेश में यह कहा गया कि 24 घंटे के अन्दर सीएम बदल जाएगा। लेकिन घंटे क्या वर्षों बीत गए। मध्यप्रदेश की राजनीति में स्थापित हो चुके शिवराज अब पहले वाले शिवराज नहीं हैं। वे एकछत्र और कुछ हद तक बेबाक शासक बन चुके हैं। जो लोग कैलाश विजयवर्गीय के प्रमोशनÓ को शिवराज की अस्थिरता से जोड़कर देख रहे हैं, वे शायद भूल रहे हैं कि शिवराज अब पहले के मुकाबले ज्यादा अडिग हैं। उन्होंने कुछ दिन पहले ही अफसरशाही को डांट पिलाते हुए कहा था कि वे राज्य को अपनी बपौती न समझें। शिवराज के द्वारा अफसरों को गरियाने का क्या आशय है? क्या वे अपनी पकड़ और मजबूत बनाना चाहते हैं?
वैसे मध्यप्रदेश में भाजपा शिवराज के इर्द-गिर्द ही केंद्रित है। कैलाश विजयवर्गीय जिन्होंने कभी सिंहस्थ में नरेंद्र मोदी को लाकर सभी को चौंका दिया था, अमित शाह की पहली पसंद हैं। लेकिन शाह चाहकर भी विजयवर्गीय को मध्यप्रदेश में ज्यादा महत्वपूर्ण भूमिका नहीं दे सकते। इस बात की संभावना भी बहुत कम है कि विजयवर्गीय प्रदेश में वापस प्रदेशाध्यक्ष बनकर लौट सकते हैं। फौरी तौर पर कहा अवश्य जा रहा है लेकिन कैलाश को मध्यप्रदेश में वापस किस प्रकार स्थापित किया जाएगा, यह अभी तय नहीं है। इतना अवश्य कहा जा सकता है कि अमित शाह और नरेंद्र मोदी की नजदीकी मिलने के कारण कैलाश विजयवर्गीय का कॅरियर अब उड़ान पर है। लेकिन यह उड़ान कहां जाकर थमेगी, इसका निर्णय बिहार, उत्तरप्रदेश जैसे राज्यों के चुनावी परिणाम पर निर्भर करेगा। सुनने में आया है कि विजयवर्गीय को उत्तरप्रदेश में तैनात किया जाएगा। लेकिन उत्तरप्रदेश हरियाणा नहीं है। उत्तरप्रदेश की राजनीति बहुत पैचीदा है। अमित शाह ने 73 सीटें भले ही जिता दी हों, किंतु विधानसभा चुनाव के समय माहौल पूरा बदल चुका होगा। 2017 की फरवरी तक केंद्र सरकार के शासन के भी 30 माह से ऊपर हो जाएंगे। विजयवर्गीय को यूपी में 1 वर्ष से कुछ माह अधिक का समय काम करने के लिए मिलेगा। जहां तक मध्यप्रदेश का सवाल है, मध्यप्रदेश के सभी बड़े नेता शिवराज के खेमे के ही हैं। प्रभात झा ने कभी शिवराज के लिए हल्की-फुल्की परेशानी उत्पन्न की थी, इसलिए उन्हें दोबारा प्रदेशाध्यक्ष बनने का मौका नहीं मिला। वर्तमान में  नंदकुमार चौहान शिवराज के सुर मेंं सुर मिलाते हंै। यही हाल नरेंद्र सिंह तोमर का है, जो शिवराज के सबसे निकट समझे जाते हैं। लेकिन सिंहस्थ का आयोजन चुनौती से कम नहीं है। कैलाश विजयवर्गीय ने वर्ष 2004 में अपनी कुशलता से सिंहस्थ को सफल बनाया था। इस बार यदि केंद्रीय नेतृत्व ने कैलाश को यूपी में उलझा दिया, तो शिवराज सरकार को एक काबिल मंत्री की कमी खलेगी। इसीलिए  कुछ मंत्रियों के विभाग में तब्दीली हो सकती है। कैलाश विजयवर्गीय को आने वाले समय में कौन सा दायित्व मिलेगा, यह केंद्रीय राजनीति में उनकी सक्रियता के आधार पर तय किया जाएगा। विजयवर्गीय मंत्री पद त्याग भी सकते हैं। भाजपा में बहुत से ऐसे मंत्री हैं जिनका नाम विभिन्न प्रकरणों से जुड़ा हुआ है। बहुत से मंत्रियों के विभागों में जांच-पड़ताल चल रही है, लोकायुक्त प्रकरणों के कारण कई मंत्रियों के दामन पर दाग लगे हैं। लेकिन शिवराज इनमें से किसी को शायद ही हटाएं।
उन्हीं चेहरों के सहारे कब तक?
कैलाश विजयवर्गीय की केंद्रीय राजनीति में धमाकेदार दस्तक के बाद मध्यप्रदेश में मंत्रिमंडल  विस्तार और मंत्रियों के दायित्वों में बदलाव की जो खबर सत्ता के गलियारों में तेजी से उठी थी, वह अब पुरानी हो चुकी है। शिवराज वैसे भी ज्यादा बदलाव करने में विश्वास नहीं रखते। यही कारण है कि जो मंत्रिमंडल उमा भारती और बाबूलाल गौर के समय था, लगभग वैसा ही मंत्रिमंडल आज भी दिखाई देता है। वे ही चेहरे जो उस समय मुख्य भूमिका में थे, आज भी वैसे ही खासमखास बने बैठे हैं। कुछ अंतर नहीं है। न तो मंत्रियों की पूछ-परख में बदलाव है और न ही उनके महत्व मेंं कोई कमी या अधिकता देखने में आई है। उमा भारती, बाबूलाल गौर और शिवराज सिंह चौहान यह तीन मुख्यमंत्री एक सी तासीर के थे, ऐसा नहीं कहा जा सकता। तीनों की कार्यशैली अलग-अलग है। उमा भारती ने सब कुछ अपनी मुट्ठी में कर रखा था। बाबूलाल गौर प्रशासन पर ज्यादा नजर रखे हुए थे। लेकिन शिवराज विकेंद्रीकरण के हिमायती हैं। इसलिए मंत्रियों पर भी एक सीमा तक ही लगाम लगा पाते हैं। शिवराज की यह काबिलीयत भी कही जा सकती है और कुछ लोग कहते हैं कि वे ज्यादा झंझट में नहीं पडऩा चाहते। बहरहाल इसी का नतीजा है कि पिछले 10 साल से मंत्रिमंडल में लगभग वही जातीय और क्षेत्रीय समीकरण देखने को आ रहे हैं। कुछ क्षेत्र तो ऐसे हैं जहां से 15-20 वर्षों से कोई प्रतिनिधित्व नहीं है जबकि कुछ क्षेत्रों से 1 नहीं 4-4 मंत्री वो भी कैबिनेट स्तर के दिखाई पड़़ते हैं। जातीय समीकरण भी कुछ वैसा ही है। हालांकि राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ सामाजिक समरसता की बात कर रहा है इसलिए जाति का प्रश्न राजनीति में गौण हो चुका है। लेकिन सच्चाई तो यह है कि संघ के इतने प्रयासों के बावजूद जातिवाद चरम सीमा पर है और मध्यप्रदेश में भी सभी राजनीतिक दल जातिगत समीकरणों का ध्यान रखते हैं। लेकिन शिवराज जातिवाद और हिंदुत्व से ऊपर उठने की कोशिश करते रहे हैं। उनके मंत्रिमंडल गठन में इसकी स्पष्ट छाप देखने को मिली है। वर्ष 2013 में मार्च माह में जब लालकृष्ण आडवाणी ने मध्यप्रदेश में अटल ज्योति अभियान का श्रीगणेश किया था, उस समय उन्होंने शिवराज की तुलना अटल बिहारी वाजपेयी से की थी। इस तुलना ने कई सवालों को जन्म दिया। हालांकि जब सितम्बर 2013 में भाजपा ने बतौर प्रधानमंत्री प्रत्याशी नरेंद्र मोदी की खुली घोषणा कर दी, तो आडवाणी जैसे बड़े नेताओं की लॉबिंग ठण्डे बस्ते मेंं चली गई। उधर केंद्रीय नेतृत्व में भी कई क्रांतिकारी बदलाव देखने को मिले। अब अमित शाह प्रमोशन लिंक टू द परफॉर्मेंस के सिद्धांत पर काम कर रहे हैं, इसीलिए कैलाश विजयवर्गीय को प्रमोशन दिया गया है। लेकिन शिवराज कब अच्छा प्रदर्शन करने वाले विधायकों को प्रमोट करेंगे? ऐसा नहीं है कि विधायक काम नहीं कर रहे हैं कुछ विधायकों ने अच्छा काम किया है, कुछ लगातार जीत रहे हैं, कुछ युवा होने के नाते नई ऊर्जा से भरपूर हैं। मंत्रिमंडल में 11 मंत्री शामिल करने की गुंजाइश भी है। इसलिए शिवराज कुछ नए चेहरों को शामिल करेंगे, तो उनके मंत्रिमंडल में वेरायटी भी दिखेगी। लगभग 8 माह पहले एक सुगबुगाहट यह भी थी कि नरेंद्र मोदी की तरह शिवराज भी मंत्रिमंडल में अधिकतम आयु सीमा का सिद्धांत अपना सकते हैं। तब किसी ने 65 वर्ष तक आयु सीमा वाले मंत्रियों को शामिल करने का सुझाव दिया  था, लेकिन मध्यप्रदेश के कुछ ताकतवर राजनेताओं ने यह सुझाव भी ठण्डे बस्ते में डाल दिया। शिवराज तो उदार हैं ही, उन्होंने भी इस मामले में दखल देना उचित नहीं समझा। आरएसएस एक नहीं कई मौकों पर शिवराज को मंत्रिमंडल में परिवर्तन का हिंट दे चुका है लेकिन संघ में अपने मधुर संबंधों के चलते शिवराज अपनी मनमानी करने में कामयाब हो जाते हैं। जानकार कहते हैं कि शिवराज बिना किसी विवाद के संघ का एजेंडा लागू कराने में कामयाब रहे हैं। उन्होंने सूर्य नमस्कार को विद्यालयों में अनिवार्य करवाया, सरकारी कर्मचारियों के संघ की शाखाओं में जाने पर लगे प्रतिबंध को हटाया, गौवंश मांस पर रोक लगाई। संघ के एजेंडे को लागू कर शिवराज संघ के प्रिय बन चुके हैं। इसलिए वे बेफिक्र हैं और मंत्रिमंडल विस्तार की जल्दबाजी में नहीं हैं।

-भोपाल से रजीनकांत पारे

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