तसल्ली देती व्यंग्य रचनाएं
18-Jun-2015 08:38 AM 1235159

विनोद सेमवाल को एक कर्तव्यनिष्ठ अधिकारी के रूप में जानता पहचानता रहा हूं किंतु उनके भीतर एक व्यंग्यकार भी छिपा है। इसका परिचय पहले नहीं था। कारण स्पष्ट है कि जिस व्यवस्था से जुड़े हुए हैं उस पर कटाक्ष करने का साहस बिरले ही जुटा पाते हैं। फिर भी व्यंग्यकार हिंदी भाषा की तीन शक्तियों अमिधा, लक्षणा, व्यंजना में से कुछ ना कुछ निकाल ही लेता है।

प्रकाशन संस्थान द्वारा प्रकाशित विनोद सेमवाल की पुतलों की फजीहत को पढ़कर सहसा यह प्रतीत होता है कि लेखक की व्यंजना शक्ति न केवल प्रबलतम है बल्कि सत्ता के साथ रहते हुए भी उनकी लेखनी की धार कुंद नहीं पड़ी है। यह सत्य है कि प्रशासनिक अफसर होने के नाते उनकी अपनी सीमाएं हैं फिर भी लेखक ने अपने तरकश में कुछ तीर ऐसे संभाल रखे हैं जिन्हें कतिपय विसंगतियों पर चलाते हुए वे उतने ही निर्दय और कठोर दिखाई पड़ते हैं जितना एक व्यंग्यकार को होना चाहिए। अपनी व्यवसायगत व्यस्तताओं के बीच उन्होंने व्यंग्य के लिए जो समय निकाला है उसे देखकर यह लगता है कि विनोद सेमवाल पूर्णकालिक व्यंग्यकार के रूप में अवश्य सफल होते। एक लेखक बनने के समस्त गुण उनमें मौजूद हैं। व्यंग्य एवं कहानी लेखन सेमवाल को प्रारंभ से ही मिला। उत्तर प्रदेश एवं उत्तराखंड की जिस मिट्टी में वे पले बढ़े वहां से अनेक साहित्यकारों ने जन्म लिया। साहित्य के संस्कार उस भूमि पर बचपन से ही मिलते हैं ऐसे माहौल मेें कोई रचनाशील दिमाग आगे बढ़ जाए तो आश्चर्य नहीं। अपनी व्यस्तताओं के बावजूद सेमवाल ने तीन-तीन व्यंग्य संग्रह लिखे अनेक कहानियां और व्यंग्य देश के समाचार पत्र पत्रिकाओं में छपते रहे। प्रशासनिक अधिकारी के साथ-साथ एक लेखक भी पल्लवित और विकसित होता रहा।

हमारी व्यवस्था विसंगतियों को जन्म देती है और विसंगतियां समाज में व्यंग्यकार की सृष्टि करती हैं। सेमवाल के लेखन में भी हिन्हीं विसंगतियों पर चोट की गई है। बात का बतंगड़ और साहब बहादुर के बाद उनकी यह तीसरी पुस्तक है।  पुस्तक में छोटी-छोटी व्यंग्य रचनाएं हैं। लगभग 34 की संख्या में इन छोटे-छोटे व्यंग्य के विषय हमारे समाज के इर्द गिर्द ही घूमते हैं। सभी व्यंग्य राजनीति, समाज में व्याप्त विभिन्न विषयों को लेकर हैं। लेखक ने इन विषयों को अपने नजरिए से देखने की कोशिश की है। व्यंग्य एक परिष्कृत विधा है। यही एकमात्र ऐसा लेखन है जिसमें एक शब्द भी विस्तार की गुंजाइश नहीं होती। कहानी और उपन्यास में दृश्य लंबा खीचा जा सकता है। वर्णन किया जा सकता है विस्तार दिया जा सकता है लेकिन व्यंग्य में व्यंग्यकार सीधे विषय पर आ जाते हैं। बिना किसी लाग लपेट के सीधे-साधे अपनी बात कह डालता है। इसी कारण व्यंग्य को सबसे प्रभावशाली माध्यम माना जाता है। सेमवाल के व्यंग्य भी छोटे-छोटे हैं लेकिन चोट बड़ी विकट करते हैं। इनमें अद्भुत मारक क्षमता है। पुस्तक की आमुख रचना पुतलों की फजीहत में वर्तमान समय में प्रचलित पुतलावादÓ पर कटाक्ष किया गया है। इसमें बताया गया है कि किस तरह झूठी प्रतिष्ठा के लालच में पुतला स्थापित करने की स्पर्धा चल रही है। जिसे देखो वही अपना पुतला बनाना चाहता है। लेखक ने अपना सरोकार प्रकट किया है कि तेजी से जनसंख्या वृद्धि वाले देश में उसी अनुपात में पुतले बनने लगे तो देश के गरीब का संघर्ष और कठिन हो जाएगा। इस व्यंग्य में महात्मा गांधी के माध्यम से जो चिंता प्रकट की गई है वह हमारे समाज की वास्तविक चिंता है। राजनीतिज्ञों को, जनता को और समाज को झूठी प्रतिष्ठा से ज्यादा मतलब है। वे पुतला पूजते हैं, लेकिन उन महापुरुषों के आदर्शों का अनुकरण नहीं करते। लाइन मेें खड़ा आदमी भी एक छोटी लेकिन प्रभावी रचना है। जिसमें ताकतवर व्यक्ति द्वारा किए जा रहे अन्याय को मूल विषय बनाते हुए पुलिस तथा व्यवस्था की पोल खोली गई है। कल्लू की पाठशाला में हम अपराध और राजनीति के गठजोड़ का दर्शन कर सकते हैं। सइया भए कोतवाल डर काहे का। राजनीति और अपराध का चोली दामन का साथ है। बगैर अपराध के राजनीति फल-फूल नहीं सकती। अगली रचना राजनीति की बातें में यह तर्क स्वत: ही सिद्ध हो जाता है। भारत में खेल की दशा पर किस्सा ओलंपिक का जैसी व्यंग्य रचनाए सटीक टिप्पणी उपलब्ध करा रही है। यू तो सभी रचनाएं एक से बढ़कर एक हैं, लेकिन लाइसेंस का लफड़ा एक ऐसी रचना है जिसमें रचनाकार ने प्रशासनिक व्यवस्था पर भी कहीं न कहीं अपनी व्यंग्य दृष्टि डाली है।

एक अधिकारी का झूठा अभिमान किस सीमा तक पहुंच सकता है इसकी झलक साला मैं तो साहब बन गया नामक व्यंग्य में देखी जा सकती है। सेमवाल की रचनाओं ने देश की सीमाओं को भी लांघा है अमेरिका और क्लिंटन की नैतिकताÓ पर उनकी रचना मोनिका लैविन्सकी प्रकरण की याद ताजा करती है। अमेरिकी नागरिकों ने उस यथार्थ को देखा है जब उनके राष्ट्राध्यक्ष ने अपने से आधी उम्र की महिला का यौन शोषण किया। इतिहास की यह चर्चित घटनाओं में से एक है सेमवाल ने इसे भी अपनी व्यंजना का विषय बनाया। राजनीति के साथ-साथ समाज पर भी सेमवाल की लेखनी चली है। हम उस देश के वासी हैं नामक रचना में भारतीय चरित्र उभरकर सामने आया है। भारत का आम व्यक्ति किस दिशा में चिंतन करता है और किस प्रकार की गलत फहमियों का शिकार है यह इस रचना में पढ़ा जा सकता है। उन्होंने धर्म के ठेकेदारों को भी नहीं छोड़ा और अपने व्यंग्य का विषय उनको भी बनाया। आतंकवाद जैसे नाजुक विषय पर लेखक ने बोया पेड़ बबूल का नामक रचना में बड़ी आसानी से अपना संदेश दे दिया है। आतंकवाद एक ऐसा विषय है जिसका कोई ओर छोर नहीं है। हर देश दूसरे देश पर जिम्मेदारी डालता है। हम आतंकवाद के खिलाफ लड़ते तो हैं लेकिन अपने स्वार्थ के दायरे में रहकर। इसीलिए आतंकवाद राजनीतिक विचार विमर्श में उलझकर रह गया है। आतंकवाद घृणा से जन्मता है और जब नजर से नजर मिलती है तो मोहब्बत परवान चढ़ती है। नजर-नजर की बात में प्रेमियों की दशा-दुर्दशा का वर्णन सेमवाल ने बखूबी किया है। ट्यूशनखोरी और शिक्षा की दुर्दशा पर एक असफल आत्मा की व्यथा नामक व्यंग्य सफल टिप्पणी कही जा सकती है। व्यंग्य की बात हो और पत्नी का जिक्र न हो यह कैसे संभव हो। टीवी और बीवी रचना इस संदर्भ में विशेष रूप से पठनीय बन पढ़ी है इसके अलावा भी भारत से प्रतिभा पलायन और राजनीति में चमचावाद पर लेखक ने अपनी रचनाओं के माध्यम से कटाक्ष किया है। व्यंग्य जितना स्वछंद होगा उतना ही प्रभावशाली बन पड़ेगा। इसीलिए व्यंग्य रचनाएं उन्मुक्त भाव से लिखी जाती रही हैं। व्यंग्यकार की बेपरवाही और निर्ममता समाज को लाभांवित करती है। इस दृष्टि से सेमवाल का यह प्रयास निश्चित ही उपयोगी कहा जा सकता है।

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