18-Jun-2015 08:10 AM
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महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री देवेन्द्र फणनवीस के लिए गोमांस और वीआईपी की सिक्युरिटी से बड़ी चिंता किसानों की आत्महत्या के रूप में सामने है। भले ही उन्होंने फिल्म स्टार्स से लेकर राजनेताओं तक

तमाम लोगों की सिक्युरिटी कम कर दी हो, लेकिन किसानों की मन की असुरक्षा वे कम नहीं कर पाए हैं। भाजपा शासित राज्य होने के कारण मुख्यमंत्री पर अतिरिक्त दबाव भी हैै क्योंकि भूमि अधिग्रहण कानून को लेकर केंद्र सरकार किसानों को अपने पक्ष में करना चाहती है। लेकिन मौसम की बेरुखी, सूखा, ओला, बाढ़ जैसी प्राकृतिक आपदाओं के अतिरिक्त बहुत कुछ ऐसा है, जो किसानों को मौत के मुंह में धकेल रहा है। महंगाई, बेरोजगारी और गरीबी का दुष्चक्र किसान की जान का दुश्मन बना हुआ है।
इस साल के शुरूआती पांच महीनों में 1088 किसानों ने महाराष्ट्र में आत्महत्या कर ली है। इससे पहले जनवरी से मार्च के बीच में 601 लोगों ने आत्महत्या कर ली थी। 1,088 आत्महत्याओं में से सिर्फ 545 आत्महत्या के मामलों को सरकार ने सही माना है। इस आत्महत्या के मामलों में सरकार मुआवजे का भुगतान भी करेगी। सरकार उन्हीं आत्महत्या के मामलों में मुआवजा देती है जिसमें मृतक व्यक्ति के नाम कर्ज होने का कोई सुबूत उपलब्ध होता है। महाराष्ट्र सरकार की इस नीति पर आलोचक कहते हैं कि सरकार यह सिर्फ ऐसा इसलिए कर रही है क्योंकि आत्महत्या के आंकड़ो को कम किया जा सके। विदर्भ जहां पर कॉटन की सबसे ज्यादा खेती होती है। वहां पर मार्च से अभी तक आत्महत्या के मामलों में 76 फीसदी की बढ़ोतरी हो चुकी है। इसके बाद मराठावाड़ा में 376 लोगों ने आत्महत्या की है वहां पर आत्महत्या करने वाले लोगों की संख्या 76 फीसदी बढ़ चुकी है। नासिक क्षेत्र में अनियमित बरसात के चलते फसल खराब होने से 130 किसानों ने आत्महत्या कर ली है। वहीं कोंकण डिवीजन में 1 तथा पुणे डिवीजन में इससे संबंधित 26 मामले दर्ज किए गए हैं।
महाराष्ट्र सरकार के राजस्व मंत्री एकनाथ खडसे का कहना है कि सरकार अपनी तरफ से बेहतरीन प्रयास कर रही है। यह मामला कई सालों से चलता आ रहा है, इसे सिर्फ एक रात भर में हल नहीं किया जा सकता है। राज्य सरकार ने 90 लाख किसानों के लिए 4,000 करोड़ रुपए जारी किए है। वहीं फसल बीमा मिलने के चलते 1600 करोड़ रुपए का भुगतान भी 35 लाख किसानों को किया जाएगा। रबी के सीजन में फसल चौपट होने से निपटने के लिए सरकार 564 करोड़ रुपए मुआवजा भी किसानों के लिए जारी किया है। किसानों के नेता का कहना है कि सरकार कीमतों पर नियंत्रण नहीं कर पा रही है। इसके चलते किसानों को काफी नुकसान हो रहा है। कॉटन का एमएसपी 4,050 रुपए प्रति क्विंटल है पर इतना कॉटन उगाने में 5,500 से 6000 रुपए का खर्च आ जाता है। किसानों को फायदा नहीं होता है।
कपास उत्पादक क्षेत्र विदर्भ, जहां से मुख्यमंत्री देवेंद्र फडणवीस खुद हैं, में राज्य में आत्महत्या के सबसे अधिक मामले दर्ज किए गए हैं। इस साल के पांच महीने में विदर्भ में 564 किसानों ने आत्महत्या की है, जो कुल आंकड़े (1088 आत्महत्या) के आधे से भी अधिक है। मार्च तक विदर्भ में 376 मौतें हुई थीं और दो महीने में यह 76 बढ़ चुका है। विदर्भ के बाद मराठवाड़ा का नंबर आता है, जहां 367 किसानों ने दुर्दशा से तंग आकर अपनी जिंदगी खत्म कर ली। यहां भी पिछले दो महीने में मौतों का आंकड़ा 70 प्रतिशत बढ़ा है, जो मार्च तक 215 था।
इससे निपटने के लिए सरकार ने अभी तक कोई पहल नहीं की है। आंकड़ों को आधार बनाकर बयानबाजी जरूर होती रही है। करीब पांच साल पहले कृषि लागत एवं मूल्य आयोग (सीएसीपी) कुछ केस स्टडी के आधार पर किसान आत्महत्याओं की वजह जानने की कोशिश की थी। इसमें सबसे बड़ी वजह किसानों पर बढ़ता कर्ज और उनकी छोटी होती जोत बताई गई। इसके साथ ही मंडियों में बैठे साहूकारों द्वारा वसूली जाने वाली ब्याज की ऊंची दरें बताई गई थीं। लेकिन यह रिपोर्ट भी सरकारी दफ्तरों में दबकर रह गई है। असल में खेती की बढ़ती लागत और कृषि उत्पादों की गिरती क़ीमत किसानों की निराशा की सबसे बड़ी वजह है. भूजल स्तर में भारी गिरावट के चलते ब्लैक स्पॉट में शुमार इन इलाकों में बोरवेल की लागत कई गुना बढ़ गई है और इसके लिए कर्ज का आकार बढ़ रहा है। पिछले एक साल में अधिकांश फसलों की कीमतों में भारी गिरावट दर्ज की गई। नतीजतन किसानों की आय कम हुई है। लेकिन उनकी आमदनी में इजाफा करने का कोई बड़ा कदम सरकार ने नहीं उठाया है। एक साल के भीतर किसानों को दो प्राकृतिक आपदाओं का सामना करना पड़ा है। कमजोर मॉनसून के चलते खरीफ का उत्पादन गिरा, वहीं फरवरी और मार्च के महीने से लेकर अप्रैल के पहले सप्ताह तक जिस तरह बेमौसम की बारिश, ओले और तेज हवाओं ने किसानों की तैयार फसलों को बर्बाद किया उसका झटका बहुत से किसान नहीं झेल पाए हैं। केंद्र और राज्य सरकारों के तमाम बयानों में उसे भरोसा नहीं दिखा क्योंकि ये कभी किसान की मदद के लिए बहुत कारगर क़दम नहीं उठा पाई हैं। इस तरह की आपदा के बाद किसानों को राहत के लिए दशकों पुरानी व्यवस्था और मानदंड ही जारी हैं। सरकार ने इस व्यवस्था को व्यवहारिक बनाने और वित्तीय राहत प्रक्रिया को तय समयसीमा में करने के लिए कदम नहीं उठाए हैं। दूसरी ओर, अब भी सरकार के साढ़े आठ लाख करोड़ रुपए के कृषि कर्ज़ के बजटीय लक्ष्य के बावजूद आधे से ज्यादा किसान साहूकारों और आढ़तियों से कर्ज लेने को मजबूर हैं। ये किसानों के लिए घातक साबित होता है।
-मुंबई से बिंदू माथुर