किसानों के दर्द का विधानसभा में मखौल
19-Mar-2013 10:06 AM 1234797

मध्यप्रदेश विधानसभा में नस्लीय टिप्पणियां की जाती है, व्यंग्य कसे जाते हैं, अधिकारियों की गैर जरूरी पैरवी की जाती है और यह सब करते हुए किसानों की समस्याओं का मखौल बनाया जाता है। विश्वास न हो तो जरा नर्मदाप्रसाद प्रजापति और चौधरी राकेश सिंह की ध्यानाकर्षण सूचना क्रमांक 625, 626 के दौरान नियम 138(1) के अधीन बजट सत्र के दौरान हुई बहस को उठाकर देख लीजिए। जंगल के अधीन चली गई जमीन को पाने के लिए छटपटा रहे किसानों की दुर्दशा को नजरअंदाज करके जिस तरीके से एक गंभीर मसले पर विधानसभा में वाद-विवाद हुआ उससे प्रतीत होता है कि मध्यप्रदेश सरकार फीलगुड फैक्टर में आ गई है और किसानों की दुर्दशा की कीमत पर अधिकारियों की पैरवी करने में लगी है। मामला शहडोल की सोहागपुर तहसील के गांव पडऱी का है जहां शहडोल के तत्कालीन वन मंडल अधिकारी निजाम कुरैशी व डिप्टी रेंजर दया शंकर शुक्ला की मनमानी के चलते शहडोल के कृषक कानूनी कार्रवाई का अभिशाप भोग रहे हैं। वनमंडल अधिकारी द्वारा किसानों के विरुद्ध जो प्रकरण बनाए गए थे वे फर्जी थे जिसकी पुष्टि विभागीय जांच में भी हो चुकी है। इसके बावजूद न तो दोषियों को दंडित किया गया है और न ही किसानों को राहत देने के लिए कोई कदम उठाए गए हैं। इस विषय पर वर्ष 2011 में नवंबर माह में भी ध्यानाकर्षण सूचना लाई गई थी जिस पर चर्चा के दौरान वनमंत्री सरताज सिंह ने कार्रवाई करने का आश्वासन दिया था, लेकिन उक्त वनमंडलाधिकारी से स्पष्टीकरण लेकर खाना पूर्ति की गई और गत वर्ष मार्च में उसकी पदोन्नति कर दी गई। यह मामला यहां भी नहीं रुका मुख्य न्यायिक मजिस्ट्रेट के व्यवहारवाद क्रमांक 01ए/11 दिनांक 23.8.11 के अनुसार किसानों के पक्ष में निर्णय दिया गया और किसानों की जमीन से मुनारे दो माह के भीतर हटाने के निर्देश दिए गए, लेकिन इसके बाद भी जिला न्यायालय शहडोल में उक्त अधिकारी ने अपील दायर कर दी। हालांकि पिछले माह जिला न्यायालय ने भी अपील खारिज कर मुनारे हटाने के निर्देश दिए हैं, लेकिन न तो दोषी अधिकारियों के विरुद्ध कार्रवाई की गई और न ही वर्ष 1968 की वह अधिसूचना निरस्त हुई है जिसके आधार पर शहडोल के सैंकड़ों कृषकों को लगातार परेशान किया जा रहा है। यह प्रकरण विधानसभा में बहस का विषय बना लेकिन इस पर जिस अंदाज में बहस की गई वह सरकारी रवैये का जीता जागता प्रमाण है। वनमंत्री ने निजाम कुरैशी और दया शंकर शुक्ला को बचाने के लिए जो निबंध विधानसभा में पढ़ा उसका उल्लेख करना आवश्यक नहीं है, लेकिन उसका सार यही है कि दोनों अधिकारियों की जांच की गई और कुछ पाया नहीं गया। लिहाजा प्रकरण समाप्त कर दिया गया। प्रकरण समाप्त होना तो ठीक है, लेकिन किसान को राहत न मिलना एक बड़ा विवाद है। जिस जमीन के विषय में बात की जा रही थी वह संरक्षित वनखण्ड ब्लॉक पडऱी के कक्ष क्रमांक पी-39 के अंतर्गत है एवं भारतीय वन अधिनियम 1927 की धारा 4 की अधिसूचना के तहत वन व्यवस्थापन अधिकारी के समक्ष विचाराधीन है। दरअसल यह कृषि उपयोग की जमीन के वन क्षेत्र में आने का मामला है जिसके कारण प्रदेश के कई किसान परेशान हैं और अभी तक वर्ष 1968 की उस अधिसूचना को निरस्त करने के लिए कोई ठोस कदम नहीं उठाया गया है, जिसके चलते बहुत से किसानों की सैंकड़ों हेक्टेयर जमीन वन विभाग के कब्जे में है। प्रदेश में ऐसे कई प्रकरण चल रहे हैं और शहडोल ही नहीं बहुत से जिलों में किसानों की जमीन को लेकर वन विभाग के साथ विवाद है। जिस प्रकरण पर ध्यानाकर्षण लाया गया उसमें भी न्यायालय के आदेश का बार-बार उल्लंघन करना पाया गया, लेकिन विधानसभा में जिस अंदाज में चर्चा की गई उसमें सत्य, असत्य से लेकर बाद में नस्लीय टिप्पणियां और निजी छींटाकसी भी देखने को मिली। सरताज सिंह का कहना था कि यह समस्या जमींदार उन्मूलन से जुड़ी हुई है उस समय जो ब्लैंकिट नोटिफिकेशन हुए थे जिसमें वन क्षेत्र को वन क्षेत्र माना गया था बाद में कुछ लोगों ने अपनी जमीनें बेंची और उसमें से एक जमीन मिस्टर आहूजा की है वह 47.60 एकड़ है जिसमें से 29.50 एकड़ रकबा भारतीय वन अधिनियम 1927 की धारा 4 के अंतर्गत वनखण्ड पडऱी में अधिसूचित किया गया है। इसी कारण सरकार ने इस जमीन को बेचे जाने को कोर्ट में चुनौती दी थी। इस प्रकरण में जांचकर्ता अनिमेश शुक्ला ने अपनी रिपोर्ट में यह लिखा था कि जो भी कार्रवाई की गई वह जल्दबाजी में और दुराग्रहपूर्ण थी, लेकिन इसके बाद भी वनमंत्री अधिकारी को बचाते नजर आए। स्वयं अध्यक्ष महोदय ने वनमंत्री से कहा कि यदि मामला उच्च न्यायालय में विचाराधीन है तो इसका उत्तर एक लाइन में दिया जा सकता था, लेकिन अधिकारी को बचाने के लिए बढ़ा-चढ़ाकर उत्तर प्रस्तुत किया गया।
ज्ञात रहे कि 1927 के वन अधिनियम के तहत प्रदेश में 27 हजार हेक्टेयर भूमि विवादित है जिसका विवाद सुलझाने के लिए सरकार की तरफ से कोई खास प्रयास नहीं किए गए हैं। किसान इस जमीन को जोतकर और खेती के लिए उपयोग में लाकर अपनी आजीविका कमाना चाहते हैं, लेकिन वनविभाग के कर्मचारी अपनी मनमानी चलाते हुए किसानों को कानून का हवाला देकर परेशान भी करते हैं और कई बार उनके विरुद्ध फर्जी प्रकरण भी कायम हो जाते हैं, लेकिन दुख तो इस बात का है कि जब-जब किसानों की इस परेशानी को प्रदेश की सर्वोच्च संस्था विधानसभा में उठाया जाता है तब-तब हास-परिहास चुटकुले बाजी व्यक्तिगत टिप्पणियां और व्यंग्य किए जाते हैं। दोषी अधिकारियों को इस सीमा तक बचाया जाता है कि वे निरंकुश बन जाए। सरकार उनके काले कारनामों को ढाकने के लिए हर सीमा तक जाने के लिए तैयार रहती है।

FIRST NAME LAST NAME MOBILE with Country Code EMAIL
SUBJECT/QUESTION/MESSAGE
© 2025 - All Rights Reserved - Akshnews | Hosted by SysNano Infotech | Version Yellow Loop 24.12.01 | Structured Data Test | ^