सलवा जुडूम की सुगबुगाहट
18-Jun-2015 07:31 AM 1235063

छत्तीसगढ़ में एक बार फिर शांति का कारवां यानि सलवा जुडूम की बात कही जा रही है। पुलिस से लेकर सरकार तक यह मानती है कि सलवा जुडूम अभियान को फिर से प्रारंभ करके नक्सलवाद की समस्या पर काबू पाया जा सकता है। छत्तीसगढ़ में पिछले चुनाव से लेकर अब तक नक्सलियों ने कई खतरनाक वारदातों को अंजाम दिया है। महेंद्र कर्मा जिन्हें सलवा जुडूम का जनक कहा जाता है, की हत्या के बाद नक्सलियों का हौसला और बढ़ गया है उन्होंने कई पुलिस जवानों को मौत के घाट उतार दिया और स्थानीय स्तर पर भी बहुत से मुखबिरों और जासूसों की हत्या की जा चुकी है।

वर्ष 2005 में जब सलवा जुडूम आंदोलन के तहत ग्रामीणों की फोर्स को हथियार और प्रशिक्षण देकर माओवादियों के खिलाफ खड़ा किया गया था तथा ग्रामीण आदिवासियों को स्पेशल पुलिस आफिसर बनाया गया था। उस वक्त रमन सिंह को सलवा जुडूम अभियान में सफलता मिली। हालांकि यह अभियान कांग्रेस का था लेकिन रमन सिंह सरकार ने इसे अपनाया। इस अभियान में नक्सलियों को बहुत नुकसान पहुंचा। इसकी आलोचना भी हुई। 2011 में सुप्रीम कोर्ट ने सलवा जुडूम अभियान को अवैध घोषित कर दिया। उसके बाद नक्सलियों ने चुन-चुन कर बदला लिया। आज आलम यह है कि 300 से ज्यादा गांवों में नक्सलियों ने हजारों ग्रामीणों को मार डाला है क्योंकि उन्होंने कभी सलवा जुडूम में हिस्सा लिया था। बहुत से एसपीओ की लाशें क्षत-विक्षत कर नक्सलियों ने गांवों के बाहर फेंक दी थी इसी कारण कांग्रेस ने अब इस अभियान से अपने आपको अलग कर लिया है। उधर सलवा जुडूम के संस्थापक महेंद्र कर्मा के पुत्र छबिन्द्र कर्मा भी इस अभियान से पीछे हट गए हैं। पिछले माह 25 मई को नक्सली हमले की वर्षगांठ और महेंद्र कर्मा के शहीद दिवस पर इस अभियान की बड़े जोर-शोर से चर्चा हुई। लेकिन बाद में कांग्रेस के तेवर देखकर छबिन्द्र कर्मा पीछे हट गए और उन्होंने कहा कि छत्तीसगढ़ सरकार विकास संघर्ष समिति के जनजागरण अभियान को सलमा जुडूम-2 के नाम से प्रचारित कर रही है।

सवाल यह है कि जब सुप्रीम कोर्ट ने इस पर रोक लगा रखी है तो फिर सलमा जुडूम की बात क्यों उठाई गई। जहां आग होती है वहीं धुआं निकलता है। सलवा जुडूम-2 के विरोध में नक्सलियों ने बीजापुर इलाके में पर्चे भी फेंके थे। इन पर्चों में विकास संघर्ष समिति और छबिन्द्र कर्मा के खिलाफ नारे लिखे हुए थे। भाजपा सरकार का विरोध करने के लिए भी नक्सलियों ने उकसाया। 4 जून 2005 को सरकार के संरक्षण में शुरू हुए इस अभियान में बड़ी संख्या में आदिवासियों को हथियार थमाए गए थे। उन्हें स्पेशल पुलिस आफिसर यानी एसपीओ का दर्जा दे कर माओवादियों से लडऩे के लिए मैदान में उतार दिया गया था। सरकारी आंकड़ों पर यकीन करें तो 2005 में माओवादियों के खिलाफ शुरु हुए सलवा जुडूम के कारण दंतेवाड़ा के 644 गांव खाली हो गए। उनकी एक बड़ी आबादी सरकारी शिविरों में रहने के लिये बाध्य हो गई। कई लाख लोग बेघर हो गये। सैकड़ों लोग मारे गए। नक्सलियों से लडऩे के नाम पर शुरू हुए सलवा जुडूम अभियान पर आरोप लगने लगे कि इसके निशाने पर बेकसूर आदिवासी हैं। कहा गया कि दोनों तरफ से मोहरे की तरह उन्हें इस्तेमाल किया गया। यह संघर्ष कई सालों तक चला। छत्तीसगढ़ सरकार आज भी दावा करते नहीं थकती कि यह जनता का स्व स्फूर्त आंदोलन था। सलवा जुडूम हिंसक और आतंकी नक्सलियों के खिलाफ आंदोलन था। बस्तर के आईजी एसआरपी कल्लूरी तो मानते हैं कि सरकार सुप्रीम कोर्ट में सलवा जुडूम को लेकर अपना पक्ष सही तरीके से नहीं रख पाई। कल्लूरी कहते हैं, कि इस आंदोलन को माओवादियों के बौद्धिक समर्थकों ने बदनाम किया। वही लोग आज फिर से माओवादियों के समर्पण के खिलाफ भी अभियान चला रहे हैं। सलवा जुडूम शुरू होने के बाद बीजापुर जिले के भोपालपटनम ब्लॉक के अंतर्गत चार ग्राम पंचायतों के 33 गांवों में निवासरत ग्रामीण गुमनामी के अंधरों में खो गए हैं। ब्लॉक मुख्यालय से 80 किमी दूर रहने वाले इन ग्रामीणों तक कोई भी शासकीय योजनाएं नहीं पहुंच रही हैं। शासन की ओर से यहां प्राथमिक शिक्षा और आंगनबाड़ी की व्यवस्था भी नहीं की गई है। सलवा जुडूम प्रारंभ होने के बाद वर्ष 2005 में भोपालपटनम ब्लॉक की ग्राम पंचायत सेण्ड्रा के ग्रामीणों को मददेड़ तथा एड़ापल्ली, बड़े काकलेड़ तथा केरपे के ग्रामीणों को ब्लॉक मुख्यालय के पास वरदली, एड़ापल्ली, अनंतपुर, पीलूर के अस्थाई राहत शिविरों में बसाया गया था परंतु कुछ ग्रामीण पुश्तैनी घर गांव छोडऩे का मोह त्याग नहीं पाए।

आज पंचायत के नाम पर शासन की योजनाएं राहत शिविरों तक ही पहुंच पाती हैं तथा ग्राम पंचायत के पंच-सरपंच भी वहीं रहते हैं। सेण्ड्रा, एड़ापल्ली, बड़े काकलेड़ तथा केरपे ग्राम पंचायत की आबादी 18 हजार से अधिक है। इनमें से अभी भी 4 हजार से अधिक ग्रामीण मूल गांवों में निवासरत हैं।  7 गांवों में करीब 800 ग्रामीण निवासरत हैं। चार पंचायतों के 33 गांवों में निवासरत ग्रामीणों को सरकार द्वारा पीडीएस के तहत प्रदत्त चावल, मिट्टी तेल व चना लेने गांव से करीब 80 किमी की दूरी तय कर ब्लॉक मुख्यालय पहुंचना पड़ता है। गांव से मुख्यालय आने व वापस लौटने में ग्रामीणों को तीन दिन से अधिक समय लग जाता है।

-रायपुर से टीपी सिंह के साथ संजय शुक्ला

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