18-Jun-2015 07:28 AM
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आखिरकार लालू यादव ने सांप्रदायिक ताकतों को दूर रखने के लिए नीतिश नामक जहर पी ही लिया। मुलायम सिंह यादव ने घोषणा कर दी कि नीतिश कुमार जनता परिवार की तरफ से बिहार में

अक्टूबर में होने वाले विधानसभा चुनाव में मुख्यमंत्री पद के प्रत्याशी बनेंगे। मुलायम सिंह की इस घोषणा के बाद भाजपा बैकफुट पर आ गई। आनन-फानन में अमित शाह ने जीतनराम मांझी से बातचीत करके उन्हें एनडीए के साथ मिलकर चुनाव लडऩे के लिए राजी कर लिया है। इस प्रकार अब बिहार में एक तरह से एनडीए और यूपीए मैदान में हैं। दोनों के बीच मुकाबला तगड़ा है, लेकिन आंतरिक तौर पर दोनों गठबंधनों के भीतर सीट को लेकर खींचतान चल रही है।
लालू यादव ने नीतिश कुमार के नाम का समर्थन करने के बाद कहा था कि वे सांप्रदायिक ताकतों को रोकने के लिए जहर पीने को भी तैयार हैं। लालू यादव का यह कथन इस बात का प्रतीक है कि नीतिश कुमार को बतौर मुख्यमंत्री प्रोजेक्ट करना और जनतादल यूनाईटेड से गठबंधन करना उनकी मजबूरी है। यह फैसला पूरे उत्साह से नहीं बल्कि विवशता के कारण लिया गया है। इसी कारण लालू यादव ने इसकी तुलना जहर पीने से की। लालू जानते हैं कि अलग-अलग लड़ेंगे तो नीतिश भी तबाह हो जाएंगे और उनकी राजनीति भी समाप्त हो जाएगी। नीतिश के साथ आने के बाद बिहार में अब मुकाबला दिलचस्प हो गया है। जिसमें यूपीए का पलड़ा भारी है। लेकिन नीतिश के शासन का कुयश और लालू के राज की कड़वी यादों के साथ मैदान में उतरना उतना आसान नहीं रहेगा। ध्यान देने योग्य तथ्य यह है कि जिस लालू को कुर्सी से उतारकर नीतिश ने सत्ता हासिल की थी आज उन्हीं लालू के कंधे पर बैठकर नीतिश अगली बार चुनाव जीतने का स्वप्न संजोए हुए हैं। राजनीतिक मजबूरी का यह उतकृष्ट उदाहरण कहा जा सकता है।
कुछ ऐसी ही मजबूरी की शिकार भाजपा भी है जिसे न चाहते हुए भी जीतनराम मांझी जैसे राजनीतिज्ञ से गठबंधन करना पड़ रहा है। जिसने कभी खुलेआम कहा था कि वह ठेकेदारों से पैसा लेता है। मांझी सीट को लेकर सौदेबाजी करेंगे और उधर पासवान भी सीटों पर भाजपा को तंग अवश्य करेंगे। इस प्रकार एनडीए को चुनाव से पहले अपने गठबंधन के भीतर भी एक लड़ाई लडऩी पड़ेगी। भाजपा अध्यक्ष अमित शाह जिस तरह से कुछ बदनामशुदा नेताओं को भाजपा से जोडऩे में लगे हुए हैं। उसके दूरगामी परिणाम अवश्य निकलेंगे। चाहे बिहार में मांझी हो या फिर असम में गिरधर गमांग ऐसे नेताओं के आने से भाजपा को फायदा कम नुकसान ज्यादा हो सकता है। लगता है दिल्ली के अनुभव से भाजपा ने सीख नहीं ली है। बहरहाल बिहार में अब भाजपा के सामने मुख्यमंत्री प्रोजेक्ट करने की चुनौती है। बिना किसी चेहरे के चुनाव में जाने से फायदा और नुकसान दोनों हो सकते हैं। भाजपा की तरफ से कई नाम चले तो हैं, लेकिन नीतिश के कद का नेता भाजपा के पास बिहार में नहीं है। भाजपा को बिहार जीतने हेतु किसी चेहरे को सामने रखकर उसकी ब्रांडिंग करनी पड़ेगी। पर ब्रांडिंग के लिए समय ही कहां बचा है।
लालू यादव के लिए एक अहम किरदार जीतनराम मांझी भी हैं। लालू के सिपहसलार यह मानते हैं कि यादव-मुस्लिम समीकरण मेंं महादलितों का तालमेल जीत का फार्मूला हो सकता है। लेकिन मांझी के नीतिश के साथ जाने के बाद बिहार में लालू का फार्मूला बदल गया है।
मांझी भी खुद को किंग मेकर साबित करने में कसर नहीं छोडऩा चाहते। राजनीतिक पंडित भी मानते हैं कि आगामी चुनाव में इन दोनों नेताओं की भूमिका खास रहने वाली है। मुलायम सिंह यादव ने लालू यादव को मना लिया है। लेकिन लालू यादव की पार्टी में विद्रोह की संभावना है। कुछ ऐसा ही हाल जनतादल यूनाइटेड का भी हो सकता है। जब लालू यादव ने अपने उत्तराधिकारी के रूप में अपने पुत्र का नाम आगे बढ़ाया था उस वक्त पप्पू यादव राष्ट्रीय जनतादल से बाहर धकेल दिए गए थे। पप्पू यादव की महत्वकांक्षा लालू का विकल्प बनने की थी। अब मुख्यमंत्री बनने के ख्वाब देख रहे कुछ नेता भी लालू से किनारा कर सकते हैं। क्योंकि नीतिश को प्रोजेक्ट करके लालू और मुलायम ने इन नेताओं की संभावना खत्म कर दी है। जहां तक जनता दल यूनाइटेड का प्रश्न है वहां सबसे बड़ी चुनौती उस वक्त आएगी जब सीटों का बंटवारा किया जाएगा। सूत्रों के मुताबिक लगभग 200 नेता ऐसे हैं जो एमएलए का चुनाव लडऩे का ख्वाब देख रहे हैं और प्रबल दावेदार भी हैं। यदि इन्हें अवसर नहीं मिला तो इनमें से कुछ साथ छोड़ भी सकते हैं।
-आरएमपी सिंह