05-Jun-2015 07:57 AM
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बिहार के विधानसभा चुनाव में अब ज्यादा वक्त नहीं बचा है। अक्टूबर-नवम्बर में चुनाव की तारीख आने की संभावना है। भाजपा ने बिहार के लिए अलग से प्लान बनाया है। पिछली बार अरविंद

केजरीवाल ने अकेले दम पर दिल्ली में भाजपा के सभी ताकतवर नेताओं को धूल चटा दी थी। इसीलिए दिल्ली की पराजय से सबक लेते हुए भाजपा कोई भी ऐसा कदम नहीं उठाना चाहती जिसका उल्टा असर पड़े। दिल्ली में मुख्यमंत्री प्रत्याशी थोपकर भाजपा ने अपने पैर पर आरी चला ली थी। लेकिन बिहार में शायद बगैर किसी प्रत्याशी के चुनावी मैदान में उतरने की तैयारी है। भाजपा को डर है कि कोई नेता दिल्ली से थोप दिया गया, तो स्थानीय कार्यकर्ता नाराज होकर गाड़ी पटरी से उतार देंगे।
यूं भी नीतिश, लालू और कांग्रेस की सम्मिलित शक्ति के मुकाबले भाजपा और रामविलास पासवान की जुगलबंदी कमजोर ही साबित हुई है। उपचुनावी नतीजे इसकी पुष्टि करते हैं। हालांकि जनता यह समझ रही है कि जनता परिवार का विलय मोदी के भय में अवसरवादी राजनीति के चलते हुआ है, लेकिन जनता को भाजपा से भी उतनी सहानुभूति नहीं है जितनी लोकसभा चुनाव के समय थी। इसीलिए बिहार के भविष्य को लेकर कुछ सुनिश्चित नहीं कहा जा सकता। भाजपा ने बिहार की राजनीतिक परिस्थितियों को अपने वश में करना शुरू कर दिया है। इसके तहत दूसरे दलों के असंतुष्ट नेताओं को पार्टी में पनाह तो मिल सकती है पर उन्हें टिकट नहीं दिया जाएगा। इसके पीछे भी वही दिल्ली वाला अनुभव है। दिल्ली में दूसरे दलों से आए नेताओं के लिए भाजपा ने रेड कार्पेट बिछा रखा था। कृष्णा तीरथ जैसी कांग्रेसी नेत्रियों को भाजपा में आते ही टिकट मिल गया और जो वर्षों से भाजपा में रहते हुए टिकट साधना कर रहे थे, वे वंचित रह गए। इसीलिए भाजपा बिहार में कोई ऐसा जोखिम नहीं लेना चाहती, जिससे पार्टी का समर्पित कार्यकर्ता असंतुष्ट होकर पार्टी के खिलाफ काम करने लगें। यदि ऐसा हुआ, तो बिहार में जीतना असंभव होगा। भाजपा के रणनीतिकारों और संघ के एक घटक ने जीतनराम मांझी जैसे विवादास्पद नेताओं से दूरी बनाने की सलाह दी है।
पप्पू यादव से भी भाजपा निकटता नहीं दिखाना चाहती क्योंकि पप्पू यादव लालू के जंगल राज के प्रमुख किरदार हुआ करते थे। इसीलिए भाजपा बिहार में सभी समुदायों को विकास के नाम पर एकजुट करने की योजना बना रही है। बिहार में सांप्रदायिक धु्रवीकरण की गुंजाइश न के बराबर है। यूपी का फार्मूला बिहार में नहीं चल सकता। इसीलिए सभी वर्गों को संतुष्ट करने और अपना वोट बैंक बचाए रखने की रणनीति पर भाजपा काम कर रही है। खासियत यह है कि भाजपा ने नरेंद्र मोदी का नाम पिछड़े नेता के रूप में आगे बढ़ाया है। इससे पिछड़े और दलित समुदायों का समर्थन भाजपा से जुड़ सकता है। जीतनराम मांझी के साथ नीतिश कुमार ने जो खेल खेला, उससे महादलित समुदाय जनता परिवार से रुष्ट है। भाजपा इस समुदाय को अपनी तरफ मिलाना चाहती है। देखना यह है कि भाजपा का फार्मूला कितना कामयाब होता है। उधर यह भी खबर मिल रही है कि नीतिश को अपनी तरफ लाने के लिए भाजपाई कम से कम एक प्रयास अवश्य करेंगे। इसके पीछे कारण यह है कि नीतिश जनता परिवार के विलय से खुश नहीं हैं। उन्हें यह अंदेशा है कि इस विलय से बिहार की राजनीति में उनकी पहचान हमेशा के लिए मिट जाएगी। यह अंदेशा गलत नहीं है।
जनता परिवार के छह दलों के विलय की जोरशोर से शुरू हुई मुहिम अचानक खटाई में पड़ती दिख रही है। विलय की घोषणा होने और मुलायम सिंह यादव को परिवार का नया मुखिया तय करने के बावजूद सपा बिहार विधानसभा चुनाव से पूर्व जदयू और राजद के बीच सीटों के बंटवारे को लेकर उत्पन्न विवाद में हस्तक्षेप के लिए तैयार नहीं है। हालांकि दोनों ही दल चाहते हैं कि सपा प्रमुख मुलायम सिंह बीच बचाव कर सीट बंटवारे का कोई फार्मूला तय करें। इसके लिए मुलायम पर जल्द बैठक बुलाने का लगातार दबाव भी डाला जा रहा है। दरअसल विलय पर खुद सपा में अंदरखाने मतभेद के बाद मुलायम ने जदयू-राजद के विवाद से दूरी बना ली है। जनता परिवार के विलय को लेकर पूछे गए सवाल का जवाब नीतिश ने कबीर का दोहा सुनाकर चुटीले अंदाज में दिया। धीरे-धीरे रे मना, धीरे सब कुछ होय, माली सींचे सौ घड़ा, ऋतु आए फल होए। वैसे भी लालू यादव की पार्टी ने साफ कर दिया है कि नीतिश को मुख्यमंत्री प्रोजेक्ट कर चुना लड़ा जाएगा।
सपा महासचिव रामगोपाल यादव ने बीते दिनों पटना में विधानसभा चुनाव से पूर्व जनता परिवार के विलय की संभावना से ही साफ इनकार कर दिया था। ऐसे में इन दोनों दलों के बीच चुनाव पूर्व गठबंधन की संभावना लगातार क्षीण होती जा रही है। जदयू और राजद सीटों के बंटवारे के सवाल पर आमने सामने आ गए हैं। राजद ने जहां 243 में से 145 सीटों पर दावा ठोका है, वहीं नाराज नीतीश कुमार ने कहा है कि राजद सभी 243 सीटों पर चुनाव लडऩे के लिए स्वतंत्र है। मिलकर बिछडऩा समाजवादियों का पुराना शगल रहा है। इस बार लगता है कि समाजवादी कुनबा मिलने से पहले ही बिछडऩे के लिए बेकरार है।
-आरएमपी सिंह