04-Jun-2015 11:14 AM
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श्रीमद्भगवद्गीता में धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष की असाधारण व्याख्या की गई है। धर्म को व्यक्ति धारण करता है किंतु अर्थ, काम और मोक्ष परस्पर जुड़ी हुई प्रक्रिया है। सत्कर्मों से पे्ररित पुरुषार्थ ही

मोक्ष की ओर अग्रसर हो पाता है। श्रीमद्भगवद्गीता में कर्म की श्रेष्ठता और महत्ता के पीछे यही विचार है। श्रेष्ठ कर्मों की विशेषता यह है कि उन्हें करने के बाद परिणाम के विषय में विचार नहीं करना पड़ता क्योंकि श्रेष्ठ कर्मों का परिणाम सदैव श्रेष्ठ ही होता है। आवश्यकता उस धैर्य की है। इसीलिए भगवान कृष्ण ने कर्म के परिणाम के प्रति निश्चिंत और बेपरवाह होने की बात कही है। परिणाम के प्रति अकर्ता भाव ही व्यक्ति की सफलता है। इस अकर्ता भाव को प्राप्त करना दुनिया का सबसे दुरूह प्रयास है। व्यक्ति में अकर्ता भाव सहजता से नहीं जन्मता। भिखारी को 1 रुपए देने के बाद अंतर्मन में कहीं थोड़ा-बहुत अहंकार आ ही जाता है-देखो मैंने भिखारी को दान किया। अपने कर्म के प्रति क्षणांश भी अहंकार अकर्ता भाव को नष्ट कर देता है। लोग थोड़ी सी चैरिटी करते हैं और अत्यधिक प्रचार कर डालते हैं। इस प्रकार स्वयं के ऊपर ही उल्टा कर्ज चढ़ा लेते हैं। अपने सत्कर्मों का ढिंढोरा पीटना इसी अकर्ता भाव से मुक्ति है और यही निष्काम कर्म में सबसे बड़ी बाधा है। कामना के बिना किया गया कर्म ही सच्चा सुख दे सकता है। यही धर्म है। कामना रहित रहते हुए सदैव गतिशील रहना अपने कर्तव्य का निर्वहन करना और निस्पृह भाव से परिणाम को ग्रहण करना ही सच्चा पुरुषार्थ है। यही पुरुषार्थ चतुष्टय का पहला चरण है- धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष।
किंतु इस पहले चरण पर ही हम कितने ठिठक जाते हैं। दूसरी स्थिति प्राप्त करना या अगले चरण तक पहुंचना तो संभव हो ही नहीं पाता। क्योंकि मन एकाग्र नहीं है। लालसाओं से भरा हुआ है। राग, द्वेष, मोह, माया सब तरफ से लपेटती है। क्या खूब लिखा है एक शायर ने-
गम मुझे हसरत मुझे, वहशत मुझे सौदा मुझे।
एक दिन देकर खुदा ने, दे दिया क्या-क्या मुझे।।
लालसाओं से मुक्ति भी अकर्ता भाव ही दिलाएगा। मान-अपमान से मुक्ति भी तभी संभव है। इसलिए चारों पुरुषार्थ के पथ पर पहला कदम बढ़ाने से पूर्व हसरत, वहशत, सौदा से तो मुक्ति तलाशनी ही होगी। जीवन भर यह मुक्ति नहीं मिलती, मृत्युशैया पर भी नहीं। एक सेठ दूध का व्यापार करते थे। कभी-कभार उधार भी दिया करते थे। कुछ दान भी करते थे। उनका अंतिम समय आया। मृत्युशैया पर लेट गए। आस-पास पुत्र-पुत्रियां थे। पूरा परिवार चिंतित खड़ा था। सब प्रयास में थे कि सेठजी के मुंह से हरि नाम निकल आए, तो उनकी मुक्ति संभव हो। किंतु सेठजी का प्राण तो अटका हुआ था। सहसा उन्होंने अपने सबसे छोटे पुत्र को लक्ष्य करके कहा कि अमुक व्यक्ति 1 पाव दूध उधार ले गया था, उससे पैसे वसूल लेना और सेठजी के प्राण पखेरू उड़ गए। हरि नाम मुंह पर नहीं आया। जो दिया था उसे वापस पाने की लालसा, परलोक यात्रा पर बनी रही। क्या ऐसे में वह यात्रा निश्चिंत संभव है? इसीलिए कहा गया है-
चाह गयी, चिंता गयी, मनवा बेपरवाह।
जाको कछु नहीं चाहिए, वह शाहन का शाह।।
देने के बाद लेने की चिंता से जो मुक्त हो गया वही मुमुक्षु है। धर्म, अर्थ, काम के उपरांत मोक्ष या फिर लेन-देन की चिंता से ऊपर रहना और उसके उपरांत प्राप्त बेफिक्री मोक्ष के समान ही है। जिसने बेफिक्री का यह स्तर प्राप्त कर लिया, वही मुमुक्षु है और सच्चे अर्थों में वही मोक्ष का अधिकारी भी है।
कर्मणो ह्यपि बोद्धव्यं बोद्धव्यं च विकर्मण:।
अकर्मणश्च बोद्धव्यं गहना कर्मणो गति:।।
यदि कोई सचमुच ही भव-बन्धन से मुक्ति चाहता है कि उसे कर्म, अकर्म तथा विकर्म के अन्तर को समझना होगा। कर्म, अकर्म तथा विकर्म के विश्लेषण की आवश्यकता है, क्योंकि यह अत्यंत गहन विषय है। कृष्णभावनामृत को तथा गुणों के अनुसार कर्म को समझने के लिए परमेश्वर के साथ अपने संबंध को जानना होगा। दूसरे शब्दों में, जिसने यह भलीभांति समझ लिया है, वह जानता है कि जीवात्मा भगवान का नित्य दास है और फलस्वरूप उसे कृष्णभावनामृत में कार्य करना है। संपूर्ण भगवद्गीता का यही लक्ष्य है। इस भावनामृत के विरुद्ध सारे निष्कर्ष एवं परिणाम विकर्म या निषिद्ध कर्म है। इसे समझने के लिए मनुष्य को कृष्णभावनामृत के अधिकारियों की संगति करनी होती है और उनसे रहस्य को समझना होता है। यह साक्षात भगवान से समझने के समान है। अन्यथा बुद्धिमान से बुद्धिमान मनुष्य भी मोहग्रस्त हो जाएगा। इसीलिए मोह से बचना चार पुरुषार्थ का पहला लक्षण है। इसके बाद काम और मोक्ष अगले चरण हैं। मोक्ष के चरण तक विरले ही पहुंच पाते हैं और काम को सही संदर्भ में समझना बहुत से लोगों के लिए दुष्कर हो जाता है। इसीलिए व्यक्ति संसार में उलझा रहता है। बंधनों से मुक्त नहीं हो पाता। अहंकार उसे आगे नहीं बढऩे देता। उसकी आत्मा भटकती है और मुक्ति बहुत दूर दिखाई देती है।