05-Jun-2015 08:49 AM
1234826
झीलों की नगरी भोपाल में नीति आयोग के उपसमूह की बैठक में जब विभिन्न प्रदेशों के मुख्यमंत्री एकत्र हुए तो सबका दर्द फूट पड़ा। भाजपाई या गैर भाजपाई सभी मुख्यमंत्री इस बात पर एकमत

थे कि केंद्रीय योजनाओं के लिए धन का आवंटन 50 प्रतिशत से कम नहीं होना चाहिए। मुख्यमंत्रियों की इस एक राय से यह तो स्पष्ट हो चुका है कि धन की कमी से सभी राज्य जूझ रहे हैं। वे भी जो उसी दल से शासित हैं, जिसकी केंद्र में सरकार हैं।
मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान केंद्रीय प्रर्वत योजनाओं के युक्तियुक्तकरण करने वाले समूह के अध्यक्ष हैं। उपसमूह की तीन बैठक इससे पहले दिल्ली में भी हुई थीं, लेकिन उस वक्त नीति आयोग के कामकाज को लेकर स्थिति स्पष्ट नहीं थी। सभी राज्य यह मान रहे थे कि नीति आयोग का केवल नाम बदला है काम योजना आयोग जैसा ही है। नरेंद्र मोदी स्वयं मुख्यमंत्री रह चुके हैं और उनका पुराना अनुभव अच्छा नहीं है, लिहाजा उन्होंने केंद्रीय योजनाओं को सही तरीके से राज्यों के समक्ष प्रस्तुत करने से पहले विभिन्न उप समूहों की आपसी बैठक और बातचीत को तरजीह दी है। लेकिन इन बैठकों में राज्यों के जो तेवर हैं उससे साफ जाहिर होता है कि 14वें वित्त आयोग की सिफारिशों के अनुरूप राज्यों को 25 प्रतिशत के स्थान पर 42 प्रतिशत राशि उपलब्ध करवाने के केंद्र के निर्णय से राज्यों में ज्यादा उत्साह नहीं है। दरअसल राज्यों का फोकस इस बात पर है कि केंद्र 17 केंद्रीय योजनाओं में अपना हिस्सा 50 प्रतिशत से कम न रखे। बहुत सी योजनाएं ऐसी हैं जिनमें केंद्र ने महज 25 प्रतिशत राशि देने का सुझाव दिया है। इसी कारण राज्यों में घबराहट है। खासकर उन राज्यों में जहां प्राकृतिक संसाधन न के बराबर हैं केंद्र के प्रस्ताव को लेकर अत्यधिक भ्रम और संदेह की स्थिति पैदा हो गई है। मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने भोपाल की बैठक में तमाम मुख्यमंत्रियों के संदेह को दूर करने का प्रयास तो किया, लेकिन उनके हाथ भी बंधे हुए हैं। मध्यप्रदेश में भले ही भाजपा की सरकार हो किंतु हालिया अनुभव यह कहता है कि मनमोहन सरकार की अपेक्षा मोदी सरकार राज्यों को पैसा देने के मामले में उतनी उदार नहीं है। कई नौकरशाहों और मंत्रियों ने भी ऑफ द रिकॉर्ड केंद्र की इस कंजूसी पर कटाक्ष किए हैं। लेकिन उप समूह की चौथी बैठक में मुख्यमंत्रियों ने केंद्र की इस कंजूसी को बिना लाग-लपेट के स्पष्ट शब्दों में रेखांकित किया है। शिवराज सिंह चौहान जो पहले तीन बैठकों में अपेक्षाकृत शांत रहे थे, भोपाल में खुलकर बोले। उन्होंने कहा कि पूरे देश के प्रतिनिधित्व के साथ अनुसंंशाएं करते समय राज्यों के साथ राष्ट्र का ध्यान रखा जाएगा। उपसमूह की अंतिम बैठक दिल्ली में आगामी 13 जून को होगी। इसके बाद उप समूह अपनी अनुशंसाओं का प्रतिवेदन नीति आयोग के अध्यक्ष प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को सौंपेगा। इस बैठक में राजस्थान की मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे का न आना चर्चा का विषय रहा। कुछ ने कहा कि गुर्जर आंदोलन के कारण वसुंधरा नहीं आ सकीं। लेकिन सच तो यह है कि राजस्थान में भी केंद्रीय योजनाओं को लागू करने में पैसे की भारी कमी है। वसुंधरा इस पर पहले भी अपना विरोध जता चुकी हैं। दिल्ली में उन्होंने स्पष्ट कहा था कि केंद्र को ज्यादा पैसे देने ही होंगे। उत्तरप्रदेश के मुख्यमंत्री अखिलेश यादव भी विदेश यात्रा में होने के कारण नहीं जा सके।
दरअसल केंद्र 32 प्रतिशत के बजाय 42 प्रतिशत राशि देकर यह मान रहा है कि उसका कर्तव्य पूरा हो गया लेकिन हर राज्य की समस्या अलग है। कहीं गेंहू उत्पादन ज्यादा होता है, तो कहीं धान ज्यादा पैदा होती है, कहीं पर खनिज ज्यादा हैं, कहीं समुद्री उत्पाद ज्यादा हैं, कुछ राज्य औद्योगिकरण के मामले में आगे हैं, तो कुछ राज्य सभी दृष्टि से पिछड़े हुए हैं। खासकर पूर्वोत्तर के राज्यों की समस्या सबसे अलग है। ऐसी स्थिति में आनुपातिक आधार पर योजनाओं को चलाना संभव नहीं है। केंद्र तीन तरह से योजनाओं को चलाता है। एक तो वे योजनाएं हैं जिनमें राज्य और केंद्र दोनों भागीदार हैं, दूसरी योजनाओं में राज्यों की भागीदारी अधिक है और तीसरी योजनाएं केवल कागजों तक सीमित हैं। कभी जोर-शोर से चल रही थीं लेकिन अब उनका अता-पता ही नहीं है। केंद्र सभी योजनाओं को समेटकर 17 प्रमुख योजनाओं पर फोकस कर रहा है। वैसे योजनाओं की संख्या अधिकतम 30 हो सकती है। नीति आयोग में तीन उप समूह बने हैं, जो अलग-अलग मुद्दों पर अपनी राय देंगे। मुख्य उप समूह शिवराज सिंह की अध्यक्षता में है। जिसमें सूचना अभियान, बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ, राष्ट्रीय ग्रामीण स्वास्थ्य मिशन, मनरेगा, राष्ट्रीय कृषि विकास योजना, राष्ट्रीय कृषि सिंचाई योजना, सर्वशिक्षा अभियान जैसी प्रमुख योजनाएं हैं। इन योजनाओं के मौजूदा स्वरूप, क्रियान्वयन की प्रक्रिया, राज्यों की भूमिका और हिस्सेदारी तथा केंद्रीय अनुदान पर व्यापक विचार-विमर्श लगातार किया जा रहा है।
मोदी सरकार द्वारा बनाए गए नीति आयोग ने राज्य सरकारों को चिंता में डाल दिया है। राज्य सरकार की तमाम योजनाओं और केंद्र की योजनाओं के लिए बजट मिलने में भारी दिक्कत हो रही है। जब मनमोहन सिंह प्रधानमंत्री थे, तो भाजपा शासित राज्यों के लिए भी खजाना खुला रहता था। पैसा नहीं मिलता था तो शिवराज सिंह धरने पर बैठ जाते थे, लेकिन अब क्या करें। न तो केंद्र को सुध है और नीति आयोग न ही कोई नीतिगत निर्णय ले पा रहा है। इसी कारण पशोपेश की स्थिति है। योजना आयोग का स्थान लेने वाला नीति आयोग एक महीने बाद धीरे धीरे निगरानीकर्ता और सलाहकार की अपनी दोहरी भूमिका में नजर आने लगा है। हालांकि अभी भी बहुत अनिश्तिता है, लेकिन योजनाओं और कार्यक्रमों की निगरानी और मूल्यांकन को लेकर हुई चर्चा के बाद स्थिति थोड़ी साफ हुई है। आयोग ने बुनियादी ढांचा विकास योजनाओं को गति देने के लिए भी बैठक आयोजित की और ऐसी योजनाओं की प्रगति की समीक्षा की, जिनमें बहुत ज्यादा देरी हुई है। इस बीच आयोग ने मंत्रालयों व विभागों को भी केंद्र सरकार की ओर से की जा रही विभिन्न पहल के बारे में सलाह भी दिया, जैसा कि योजना आयोग करता था।
आयोग ने पीएमओ और अन्य को लंबित और नई बड़ी बुनियादी ढांचा परियोजाओं को लेकर अनिवार्य तकनीकी आर्थिक विश्लेषण मुहैया कराने का सुझाव देने की भी योजना बना रहा है, जो पूरा होने की अवधि व अनुमानित खर्च की सीमा को पार कर गई हैं। इस समय ज्यादातर बड़ी बुनियादी ढांचा परियोजनाओं की अनुमानित लागत का आकलन मंजूरी के समय किया जाता है, जिसमें लागत में बढ़ोतरी शामिल नहीं होती और पूरा होने के समय तक की महंगाई का अनुमान नहीं होता है। इसे न सिर्फ लागत बढ़ती है, बल्कि खजाने पर भार बढ़ता है और परियोजना में खासी देरी होती है।
एक अधिकारी ने कहा, लंबित योजनाओं का अगर एक बार उचित तरीके से तकनीकी आर्थिक विश्लेषण कर लिया जाएगा तो हमें साफ अनुमान होगा कि परियोजना पूरी करने के लिए कितने धन की जरूरत है। साथ ही इसका भी अनुमान होगा कि परियोजना पूरी होने तक अनुमानित लागत क्या होगी। इससे न सिर्फ उचित योजना बनाने में मदद मिलेगी बल्कि इससे धन की व्यवस्था में मदद मिलेगी। उन्होंने कहा, देश की 700 बड़ी परियोजनाओं में से करीब 80-85 प्रतिशत में विभिन्न वजहों से देरी हो रही है। अगर हम समय पर या उससे पहले काम खत्म करना सुनिश्चित कर लें तो यह अपने आप में बड़ी उपलब्धि होगी। वित्त मंत्रालय को धन के हस्तांतरण का अधिकार मिलने के बाद नीति आयोग और राज्य सरकारों के बीच संबंध इस सप्ताह के आखिर तक होने वाली बैठक के बाद साफ होने की उम्मीद है। 1 जनवरी के कैबिनेट प्रस्ताव के मुताबिक सभी राज्यों के मुख्यमंत्री और लेफ्टीनेंट गवर्नर नीति आयोग की शासी परिषद के सदस्य होंगे। इसके साथ ही एक से ज्यादा राज्य से जुड़े मसलों की किसी विशेष समस्या के समाधान के लिए क्षेत्रीय परिषदों के गठन का भी प्रस्ताव है। यह परिषद नियत समय के लिए होगी, जिसके प्रमुख नीति आयोग के उपाध्यक्ष होंगे। नीति आयोग अब निष्क्रिय हो चुके आर्थिक सलाहकार परिषद और योजना आयोग का मिला जुला रूप हो गया है। आयोग ने पीएमओ और अन्य को लंबित और नई बड़ी बुनियादी ढांचा परियोजनाओं को लेकर अनिवार्य तकनीकी आर्थिक विश्लेषण मुहैया कराने का सुझाव देने की भी योजना बना रहा है, जो पूरा होने की अवधि व अनुमानित खर्च की सीमा को पार कर गई हैं। इस समय ज्यादातर बड़ी बुनियादी ढांचा परियोजनाओं का अनुमानित लागत का आंकलन मंजूरी के समय किया जाता है, जिसमें लागत में बढ़ौतरी शामिल नहीं होती और पूरा होने के समय तक की महंगाई का अनुमान नहीं होता है। इसे न सिर्फ लागत बढ़ती है, बल्कि खजाने पर भार बढ़ता है और परियोजना में खासी देरी होती है। अधिकारी ने कहा, च्लंबित योजनाओं का अगर एक बार उचित तरीके से तकनीकी आर्थिक विश्लेषण कर लिया जाएगा तो हमें साफ अनुमान होगा कि परियोजना पूरी करने के लिए कितने धन की जरूरत है। साथ ही इसका भी अनुमान होगा कि परियोजना पूरी होने तक अनमानित लागत क्या होगी। इससे न सिर्फ उचित योजना बनाने में मदद होगी बल्कि इससे धन की व्यवस्था में मदद मिलेगी। उन्होंने कहा, देश की 700 बड़ी योजनाओं में से करीब 80-85 प्रतिशत में विभिन्न वजहों से देरी हो रही है। अगर हम समय पर या उससे पहले काम खत्म करना
सुनिश्चित कर लें तो यह अपने आप में बड़ी उपलब्धि होगी।
-भोपाल से अजय धीर