05-Jun-2015 08:26 AM
1234778
समृद्धि की चमचमाती इमारतों की नींव में हिंसा की जाने कितनी काली छायाएं दफन होती हैं और जाने कितने विरोध और न्याय मांगती आवाजें गुम हो जाती हैं। अनुराग कश्यप की फिल्म बॉम्बे

वेलवेटÓ इतिहास लेखक ज्ञान प्रकाश की किताब मुंबई फैबल्सÓ के पन्नों में दर्ज 1960 और 70 के दशक का दृश्यांकन है, जिसमें आज शंघाई बनाये जा रहे मुंबई के बॉम्बेÓ बनने की कहानी है। यह कहानी ऐसे समय में है जबकि मुंबईÓ शंघाईÓ बन रहा है और उसकी कई कहानियां है, लेकिन एक भी पर्दे पर नहीं है। यह फिल्म शुरुआत में बेहद थकी हुई है, ऐसा लगता है मानो कोई डॉक्यमेंट्री फिल्म चल रही है, लेकिन बाद में यह लय पकड़ती हुई आपको मुंबई के अतीत में ले जाती है। अभिनय के लिहाज से आप बहुत देर बाद पात्रों के भीतर उतर पाते हैं, ये फिल्म की कमजोर कड़ी है। लेकिन बावजूद इसके, यह इतिहास में डूबी मुंबई को रोशनी और सुन्दर सेट के माध्यम से देखना अच्छा लगता है। यह अनुराग की खासियत है। निर्देशन के लिहाज से अनुराग को इस फिल्म के लिए बधाई दी जा सकती है, क्योंकि जब आपके सामने मुंबई के माफिया डॉन, राजनीतिक गणित और बिल्डर लॉबी की खूनी हिंसक महत्वाकांक्षाओं की ढेर कहानियां पास हों और उसी में वंस अपॉन अ टाइम इन मुंबईÓ जैसी फिल्म हों, तो फिर दोबारा उसी अतीत को फिल्मी पर्दे पर लेकर आना निर्देशक के रूप में हिम्मत का काम है। गाने, उनकी पृष्ठभूमि और संगीत यह कुछ नया है। फिल्म में नया देखने वालों को ताजगी देगा, जबकि सिनेमा को केवल मनोरंजन समझने वालों के गले में यह फिल्म उतरेगी नहीं और जैसी प्रतिक्रियाएं आईं हैं उतरी भी नहीं है। खैर, जॉनी और रोजी की प्रेम कहानी के बीच मद्धम और छन -छनकर आती हर महानगर के आधुनिक हुए इतिहास की काली रोशनी पर नजर डालने में दिलचस्पी रखने वाले इसे देख सकते हैं। उस रूप में आप यह भी फील कर सकते हैं सात टापुओं में बंटी मुंबई को एक करने के पीछे की यह छोटी सी झलक भर है, तो कमाल है कि मुंबई को फिलहाल शांघाई बनाया जा रहा है, तो अभी क्या हो रहा होगा? बहरहाल, हमारे आसपास इतना कुछ घट रहा है, किसानों की जमीनें छीनी जा रही हैं, मजदूर आंदोलन लगभग खत्म कर दिए गए हैं और पूंजीपति और कॉर्पोरेट सरकारें हमारे आसपास बहुत कुछ कर रही हैं, और हम अभी भी इस सब से दूर, विषय को जानना ही नहीं चाह रहे हैं और कोई प्रतिक्रिया नहीं दे रहे हैं। तो, यह छोटी सी फिल्म है उसमें देशपांडे एक प्रतीक भर है, सो क्या कहा जाए?
सिनेमा में हंसी, ठिठोली और मजाक ढूंढने वालों को बॉम्बे का यह वेलवेट बड़ा कठोर सा फील देगी। बाकी फिर सबकी अपनी-अपनी समझ है।