याद करना पड़ेगा आखिरी बार ऐसी फिल्म कब देखी
05-Jun-2015 08:24 AM 1234846

बात जहां खत्म हुई थी, वहीं से शुरू। आनंद एल. राय की तनु वेड्स मनु पर यह बात सौ फीसदी लागू होती है। डॉ. मनोज शर्मा और तनुजा त्रिवेदी की शादी के चार साल चुटकियों में बीत जाते हैं और अचानक आप पाते हैं कि दोनों के बीच सब कुछ ठीक नहीं है। आरोपों के मोटे पुलिंदे लेकर वे लंदन में मनोचिकित्सक के सामने बैठे हैं। जैसा कि पति-पत्नी बहसों में अक्सर आपे से बाहर हो जाते हैं, यहां भी वही होता है। नतीजा, मनु शर्मा मनोचिकित्सा अस्पताल के मेहमान बन जाते हैं। तनु उन्हें पागलखानेÓ में छोड़ कर कानपुर लौट आती है! तनु-मनु के इस रिटन्र्सÓ का ताना-बाना रोचक ढंग से बुना गया है। तेज-तर्रार तनु के पुराने रंग-ढंग और सीधे-सादे मनु के शर्मीले अंदाज के बीच एंट्री होती है दत्तो उर्फ कुसुम सांगवान की, जो पारंपरिक हरियाणवी परिवार से है। एथलीट बनने का सपना पाले है। दिल से भोली, दिमाग से समझदार और जुबान की साफ। कुछ ही मिनटों में फिल्म ऐसी रफ्तार पकड़ती है कि आप प्रीक्वल को भूल कर नया सिनेमा देखने लगते हैं। तनु फिर से उसी रंग में दिखती है, जिसके लिए वह जानी जाती थी। आवारागर्दी। परिवार में भूचाल आ जाता है। राजा अवस्थी (जिमी शेरगिल) सोच में पड़ जाते हैं, जब अभी-अभी उनके लिए लड़की देख ली गई है। मनु के माता-पिता भी समझ नहीं पाते की क्या करें? ...और पप्पी (दीपक डोबरियाल), वह इस विवाह का हश्र देख कर भी यह लड्डू खाने की जिद पकड़े है। उसने लड़की ढूंढ ली है। निर्देशक आनंद एल.राय और लेखक हिमांशु शर्मा ने फिल्म के माध्यम से विवाह की उन समस्याओं को छूआ है जो चंद महीनों/बरसों बाद सिर उठाने लगती है। एक-दूसरे से लगाई भारी भरकम उम्मीदें जब दरकने लगती हैं तो सपनों के सारे रंगमहल भरभरा कर ढह जाते हैं। इस मलबे में तब प्रेम का मोती खोजना कितना कठिन हो जाता है! वैसे दत्तो के प्रति मनु शर्मा के आकर्षण और प्रेम के माध्यम से लेखक-निर्देशक नारीवाद का घोषणापत्र पढऩे वालों को भी गुपचुप सबक दे जाते हैं। बीते पांच हजार साल में स्त्री पर हुए अत्याचारों का बदला क्या मर्दों की एक ही पीढ़ी से लिया जाएगा! फिल्म शुरू से अंत तक बांधे रखती है और रह-रह कर गुदगुदाती है। लंबे अर्से बाद ऐसी सफल फिल्म दिखती है जिसकी कहानी, पटकथा और संवाद एक ही व्यक्ति ने लिखे हैं। कोई हस्तक्षेप नहीं। यह कई हलवाइयों के द्वारा तैयार की गई मिठाई नहीं है। इसीलिए स्वादिष्ट है। फिल्म लेखक-निर्देशक के परस्पर विश्वास का परिणाम है। तनु-मनु की कहानी फिर याद दिलाती है कि हमारे पास अपने ही देश/समाज की ही अनंत कहानियां हैं, जिन्हें खूबसूरती से कहा जाए तो पाश्चात्य सिनेमा की भौंडी नकल बनाने वालों की जरूरत नहीं है। बीते हफ्ते ही नकली सिनेमा में एक बड़ी कील ठुकी है। विवाह का ड्रामा फिल्मों में हिट के करीब माना जाता है और तनु वेड्स मनु रिटन्र्स भी दर्शकों के लिए बढिय़ा दावत है। इसे देख कर कहा जा सकता है कि इस शादी में जरूर जाना। फिल्म की रीढ़ भले ही इसकी कथा-पटकथा और निर्देशन है, मगर कलाकारों ने इसे जिस ढंग से पर्दे पर जीवंत किया है वह इसके प्राण हैं। कंगना रनौत ने तनु और कुसुम की विपरीत भूमिकाओं को सहज ढंग से जीया है। इसमें संदेह नहीं कि वह समकालीन अभिनेत्रियों में सबसे प्रतिभा संपन्न हैं। कहानी के केंद्र में भले ही तनु हो मगर दत्तो का अंदाज आपका दिल जीत लेता है। माधवन की तारीफ इस बात में है कि वह दो नायिकाओं के बीच अपनी उपस्थिति को लगभग खामोश रहते हुए दर्ज करा जाते हैं। उनकी खामोशी बोलती है। फिल्म दीपक डोबरियाल को फिर से स्थापित करती है। जिमी शेरगिल सधे हुए ढंग से अपना काम करते हैं। बाकी कलाकार भी अपनी भूमिकाओं में फिट हैं। फिल्म का गीत-संगीत आपको याद रहता है। इसमें अपनी जमीन की सौंधी सुगंध है। बन्नो तेरा स्वैगर लागे सेक्सी खूब बज रहा है। सिनेमा हॉल में सुन कर आइए। वहां सीटियों और तालियों का शोर इसे और मधुर बना देता है।

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