पप्पू यादव की बगावत कहां तक जाएगी?
22-May-2015 02:55 PM 1234826

 

बिहार में जनता परिवार के कथित एकीकरण के साइड इफेक्ट्स दिखने लगे हैं। कभी अपनी आत्म कथा में भाजपा और बसपा पर खरीद-फरोख्त का आरोप लगाने वाले पप्पू यादव को जनता परिवार  (राष्ट्रीय जनता दल) से निष्कासित कर दिया गया है। यह निष्कासन अप्रत्याशित नहीं है। राष्ट्रीय जनता दल को कांग्रेस की तर्ज पर चलाने वाले लालू यादव ने कुछ दिन पहले ही यह घोषणा की थी कि उनका राजनैतिक वारिस उनका पुत्र ही होगा। इसी के बाद से पप्पू यादव के ऊपर तलवार लटक गई थी। क्योंकि पप्पू यादव भी राष्ट्रीय जनता दल के प्रमुख होने का सपना देख रहे थे। लेकिन जब यह सुनिश्चित हो गया कि कांग्रेस का विरोध करके राजनीति में पनपे लालू यादव भी वंश की बेल को ही राजनीति में आगे पनपाना चाहते हैं, तो पप्पू यादव ने अपनी अलग राजनीति गढऩी शुरू कर दी। इस क्रम में उन्होंने सबसे पहले मांझी सरकार को बचाने मेंं एड़ी-चोटी का जोर लगा दिया। हालांकि उन्हें सफलता नहीं मिली, लेकिन उन्हें यह अहसास हो गया कि बिहार मेेें अभी भी भाजपा और अन्य दलों से इतर एक दबाव वाली राजनीति का स्कोप तो है और यह स्कोप तब और भी अधिक ताकतवर बन सकता है जब सारे बगावती एक मंच पर आ जुटें चाहे वे मांझी हों या कोई और। अभी फिलहाल तो मांझी से कोई उम्मीद पप्पू यादव को नजर आ नहीं रही है लेकिन जनता परिवार के विलय होने से नया दल जो बनेगा, उसका अलग चुनाव चिन्ह होगा। ऐसी स्थिति में पप्पू यादव राष्ट्रीय जनता दल के चुनाव चिन्ह पर दावा कर सकते हैं। सुनने में आया है कि कई बागी उनके इस दावे की पुष्टि करने के लिए उनके साथ आने को तैयार हैं। लेकिन एक मुश्किल यह भी है कि जीतनराम मांझी भी अपने मातृ संगठन जनता दल यूनाइटेड के चुनाव चिन्ह का दावा प्रस्तुत करने जा रहे हैं। यदि यह हुआ तो बिहार में इस बार चुनाव चिन्हों की जंग देखने को मिलेगी। पप्पू यादव बिहार के सर्वमान्य नेता हैं ऐसा कहना उचित नहीं है लेकिन पूर्णिया, सहरसा, मधेपुरा, अरबिया, सुपौल जैसे जिलों में पप्पू यादव की अच्छी पकड़ है। पूर्वात्तर बिहार में भी पप्पू यादव ने अपना प्रभाव कायम किया है। लोकसभा चुनाव में उन्होंने अपनी पत्नी रंजीता रंजन को सुपौल से कांग्रेस के टिकट पर जीत दिला दी थी। वे स्वयं भी मधेपुरा से जीतने में कामयाब रहे। 2004 में जब जेल में बंद थे, उस वक्त पप्पू यादव ने अपने आका लालू यादव को मधेपुरा से जितवा दिया था इसीलिए लालू यादव ने मधेपुरा सीट पप्पू यादव के लिए खाली करके अहसान चुकाया था। लेकिन अब अहसानों की बात नहीं है बल्कि चुनावी गणित का प्रश्न है। पप्पू यादव राष्ट्रीय जनता दल जिसका विलय जनता परिवार में हो चुका है, को खासा नुकसान पहुंचा सकते हैं। लेकिन वे खुद अपना वजूद कितना बनाए रखेंगे, कहना मुश्किल है। जिस क्षेत्र में पप्पू यादव सक्रिय हैं, वहां मुस्लिम मतदाता भी अच्छी-खासी तादात में हैं। यदि पप्पू यादव का झुकाव भाजपा की तरफ होता है, तो फिर उनका अपना वोट बैंक खत्म हो जाएगा। क्योंकि बिहार में मुस्लिम-यादव समीकरण को लालू यादव ने बहुत बढ़ाया था लेकिन लोकसभा चुनाव के समय इसका फायदा नहीं मिला। क्योंकि नीतिश कुमार ने भी वोट काटे। अब विधानसभा चुनाव है और लालू, नीतिश, कांग्रेस सहित तमाम दल एक साथ हैं। जिन्हें कथित रूप से धर्मनिरपेक्षता का सर्टिफिकेट मिला हुआ है, लिहाजा वे स्वयं को मुस्लिम वोट प्राप्त करने के योग्य समझते हैं। लेकिन बिहार में मुस्लिम वोट के अलावा भी कई वोट समूह हैं। मांझी के साथ नीतिश ने जो कुछ किया, उसके बाद बिहार में महादलित वोट अब पासवान को ज्यादा विश्वसनीय मानने लगा है और इसी कारण उसकी सहानुभूति भाजपा के साथ है। लेकिन मांझी भाजपा से कितने पास रहेंगे और कितने दूर, यह कहना मुश्किल है। मांझी ने ऐसा कोई संकेत भी नहीं दिया है। पप्पू यादव भी भाजपा से ज्यादा नजदीकी नहीं बना सकते। पप्पू यादव बिहार के उन बाहुबलियों में शुमार हेँ जिन्होंने लालू राज को जंगल राज बनाने का सुयशÓ प्राप्त किया था। इसलिए भाजपा पप्पू यादव को ज्यादा तवज्जो नहीं देगी। मांझी भी उतने मुफीद नहीं हैं क्योंकि वे सरेआम कमीशन लेने की बात स्वीकार चुके हैं। इसलिए भाजपा यह चाहेगी कि पप्पू यादव और मांझी जैसे दल लालू तथा नीतिश के वोट काटने की मुहिम पर तैनात हों। लेकिन इसका एक उलटा असर यह हो सकता है कि यह दोनों मिलकर सत्ता विरोधी रुझान को एब्जॉर्ब कर लें। ऐसा हुआ तो भाजपा के लिए मुसीबत खड़ी हो जाएगी।

  • आर.एम.पी. सिंह

 

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