05-Jun-2015 07:46 AM
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68 वर्ष की जिंदगी। लंबी तो पर्याप्त थी, लेकिन उस जिंदगी में जिंदगी नहीं थी। जिंदा लाश थी वह। एक दरिंदे द्वारा आज से 42 वर्ष पूर्व दबोच ली गई थी। हवस और बदले की भावना से वहशी बने

उस दरिंदे ने कुत्ते की चेन से बांधकर अरुणा शानबाग के साथ घिनौना कृत्य किया। मस्तिष्क में खून की आपूर्ति बाधित हुई और 42 साल के लिए अरुणा जीते जी मर गई। कोमा में रह रहा मरीज ज्यादा नहीं जीता। उसके हाथ-पैर गलने, सडऩे लगते हैं और शरीर पर घाव भी हो सकते हैं लेकिन उस चिकित्सालय और उसके सेवाभावी कर्मचारियों की प्रशंसा करनी होगी, जिन्होंने 42 वर्ष तक अरुणा के शरीर पर मक्खी नहीं बैठने दी पर उस समाज को क्या कहा जाए जिसने अरुणा को अस्पताल में उसके हाल पर छोड़ दिया। जिस दरिंदे ने अरुणा पर हमला किया था, उसे महज 7 साल की सजा हुई। सजा से छूटकर उसने दोबारा अरुणा पर हमले की कोशिश की। 7 साल की सजा के बाद उसका विवाह हो गया। बाल-बच्चेदार बन गया। इधर वह पीडि़ता 4 दशक तक तड़पती रही। क्या यही न्याय है? अरुणा को अनंत पीड़ा में धकेलने वाले उस राक्षस को किस पिता ने अपनी बेटी ब्याही? क्यों? भारत के समाज की यही तो त्रासदी है। बलात्कार जैसे आरोप में आरोपित होने के बाद आरोपी तो छोटी-मोटी सजा पाकर, कुछ वर्षों के लिए जेल में जाकर बरी हो जाता है। किंतु पीडि़ता वर्षों अपमान, तिरस्कार, उपेक्षा झेलती है। उसी शारीरिक सदमे के साथ जीती है। परिवार-समाज के निर्दय लोग पीडि़ता को ही चरित्रहीन घोषित कर देते हैं। कई बार हमले के कारण मानसिक और शारीरिक रूप से टूट जाती है या फिर अरुणा शानबाग जैसे अस्पताल के एक कमरे में पुरुषों से सहमते हुए अपनी जिंदगी बिता देती है।
अरुणा शानबाग का प्रकरण हैरान करता है। डबडबाई आंखों से वे नर्स जो उसकी सेवा कर रही थीं, पूछती हैं कि सजा किसने भुगती? हमारी न्याय व्यवस्था की विडंबना देखिए कि उस वहशी को अहसास तक नहीं है कि उसने एक जीवन न केवल बिगाड़ा बल्कि उस स्त्री को जीते जी तिल-तिल करके मरने के लिए छोड़ दिया। 70 के दशक में बलात्कार जैसे घिनौने अपराध के लिए जो कानून बने थे, वे इतने लचर थे कि महज 10 प्रतिशत मामलों में सजा हो पाती थी। बलात्कार का अर्थ था जबरन यौन संबंध बनाना। इसमें अप्राकृतिक यौन संबंध शामिल नहीं थे। उसे अपराध नहीं माना जाता था। इसलिए अरुणा शानबाग के साथ जो दुराचार हुआ उसकी तो सजा मिली ही नहीं। सजा मिली जानलेवा हमले की। जिसमें अधिकतम 7 वर्ष की जेल हो सकती थी। अस्पताल प्रबंधन ने भी अरुणा शानबाग के साथ हुए हमले को दबाने की कोशिश की क्योंकि उन्हें अपने अस्पताल की बदनामी का भय था। इसलिए अरुणा को न्याय नहीं मिला। न्याय मिल भी जाता, तो उस न्याय को समझने लायक वह बची भी कहां थी। उसके तो अहसास ही खत्म हो चुके थे। परिजनों ने कोई रुचि नहीं दिखाई। अस्पताल के प्रबंधन ने पहले तो थोड़ी आनाकानी की लेकिन जब नर्सों ने सामूहिक हड़ताल की घोषणा कर दी, तो प्रबंधन को झुकना पड़ा। सही मायने में तो उन नर्सों और कुछ डाक्टरों ने अरुणा को कोमा के बावजूद जीवित रखा। उसे समय पर खाना दिया, उसकी देखभाल की, उसे मन-पसंद गाने सुनाए, जितना संभव हो सकता था उससे कहीं अधिक सेवा की। इतनी सेवा के बाद जब अरुणा की मौत हुई, तो उसके दो भांजे लाश का दावा करने पहुंच गए। लेकिन अस्पताल की नर्सों और स्टाफ ने विरोध किया। उनका विरोध जायज था। जिन परिजनों ने 4 दशक तक पलटकर नहीं देखा, वे लाश लेने का दावा कैसे कर सकते हैं?
अंतिम संस्कार का हक तो उनका ही है, जो अरुणा के प्रति पूरी दया और करुणा से सेवारत रहे। अरुणा पंचतत्व में विलीन हो चुकी है लेकिन कई सवाल छोड़ गई है। बलत्कृत महिला के प्रति समाज का घिनौना रवैया तो एक बड़ा सवाल है ही, न्याय भी कई सवालों से घिरा हुआ है। लेकिन जिन मरीजों की जिंदगी दवाओं और कृत्रिम साधनों पर आधारित है, जिनके स्वस्थ होने की संभावना नगण्य हैं, उन्हें दया मृत्यु या इच्छा मृत्यु देने का प्रश्न अभी भी यथावत है। अरुणा शानबाग को दया मृत्यु देने की मांग उठाई गई थी। मांग उठाने वाली उनकी अपनी मित्र थीं। वे सुप्रीम कोर्ट में लड़ाई हार गईं। सुप्रीम कोर्र्ट ने एक व्यवस्था अवश्य बना दी है कि जिन मरीजों की बचने की संभावना नहीं है, उनका लाइफ सपोर्ट सिस्टम परिजनों के कहने पर हटाया जा सकता है। अरुणा शानबाग का मस्तिष्क ही मृत था, बाकी सारे अंग ठीक काम कर रहे थे। दूसरी तरफ उनके कोई परिजन ही नहीं थे, जो सहमत या असहमत होते। इसलिए कोर्ट ने अरुणा की मित्र की अपील खारिज कर दी और मामला अनसुलझा ही रह गया। वैसे भी 2011 या 2015 फर्क क्या पड़ता है। जो पीड़ा की पराकाष्ठा से गुजर चुका हो, उसके लिए समय का कोई महत्व नहीं। देश और समाज के लिए इस पीड़ा ने कई सवाल पैदा किए हैं। एक स्त्री जिसके साथ बलात्कार किया जाता है, समाज में उपेक्षित क्यों है? जबकि उसने कोई अपराध नहीं किया। उसकी देह का अतिक्रमण जिन्होंने किया, उनके प्रति यह समाज अपेक्षाकृत उदार और टॉलरेंट बना रहता है जैसे उन्होंने कोई अपराध ही न किया हो। जेल में बंद तमाम ताकतवर लोग जिन पर इस तरह के आरोप लगे हैं, जनता की सहानुभूति के पात्र बन चुके हैं लेकिन उन पीडि़ताओं का कोई दर्द बांटने को तैयार तक नहीं। पुरुष ताकतवर है, उसके हाथ में सत्ता है और पैसा है इसलिए वह कानूनों से खिलवाड़ करने की कोशिश करता है। समाज भी उसी के पीछे लामबंद हो जाता है। यह कैसी विडम्बना है? आसाराम बापू अभी दोषमुक्त नहीं हुए हैं, उन्हें अपनी निर्दोषता प्रमाणित करनी है। किंतु उनके पीछे अपार भीड़ खड़ी हुई है। अंधे भक्तों की फौज है, जो न्यायालय के निर्णय के बगैर बापू को निर्दोष मान बैठे हैं। उनका आक्रोश उस पीडि़ता के प्रति है। गवाहों पर हमले हो रहे हैं। पीडि़ता के परिवार पर भी दबाव है। क्या अपने प्रति किए गए जुल्म का प्रतिकार करने के लिए कानून का सहारा लेना अपराध है? जो ताकत में हैं, सत्ता में हैं, धर्म या आध्यात्म की ठेकेदारी करता है, उसे पूरी छूट दे दी जाए-मनचाहा अत्याचार करने की?
बलात्कार के प्रकरणों में अक्सर यह देखने में आया है कि ताकतवर लोग कानून का सहारा लेकर बच निकलते हैं। निर्भया प्रकरण के बाद कानून थोड़ा सख्त तो हुआ है, लेकिन रास्ते फिर भी बने हुए हैं साफ बच निकलने के। इसीलिए इतना कठोर कानून बनने के बावजूद न तो लोगों की वहशियत मेें कोई कमी आई और न ही समाज में बलात्कारियों की संख्या घटी। आंकड़े उत्तरोत्तर बढ़ते जा रहे हैं। प्रकरण वीभत्स से वीभत्सतम हो चुके हैं। दुधमुंही बच्ची से लेकर 70 साल की वृद्धा तक सुरक्षित नहीं है। पुलिस और न्याय व्यवस्था का दायरा सीमित है। वे केवल दंड दिला सकते हैं, मानस नहीं बदल सकते। जब तक मानसिकता में बदलाव नहीं होगा, ये प्रकरण दिनों-दिन बढ़ते जाएंगे। समाज को बदलना होगा। अपने भीतर छिपे आपराधिक तत्वों को निकालकर बाहर फेंकना होगा।
दया मृत्यु क्यों नहीं?
अरुणा शानबाग के लिए दया मृत्यु की मांग की गई थी। दुनिया के बहुत से देशों मेंं दया मृत्यु स्वीकार्य है। बहुत से देशों में इच्छा मृत्यु को भी मान्यता दी गई है। लेकिन भारत के उदार लोकतंत्र में यह एक अपराध है। किसी की भी जान लेना कानूनन जुर्म की श्रेणी में आता है। पर चिकित्सा विज्ञान की दुनिया में बहुत से शरीर ऐसे हैं, जो केवल दवाओं पर या जीवन रक्षक यंत्रों पर जीवित हैं। बहुत से शरीर ऐसे हैं जो जीवित तो हैं लेकिन मस्तिष्क और शरीर में कोई तालमेल नहीं है। मस्तिष्क मृत हो चुका है। संवेदनाएं शून्य हैं। ऐसे लोगों के लिए भी इच्छा मृत्यु की मांग उठती रही है ताकि जीवन बोझ न बन जाए। लेकिन कानून की तरफ से फिलहाल इतनी इजाजत दी गई है कि गंभीर रूप से बीमार व्यक्ति के लाइफ सपोर्ट सिस्टम को परिजनों की सहमति से हटाया जा सकता है। इच्छा मृत्यु या दया मृत्यु की सहमति देने में अभी वक्त लगेगा। कानून के जानकारों को लगता है कि इसका दुरुपयोग हो सकता है। कई बार छुटकारा पाने के लिए भी लोग इस कानून का सहारा ले सकते हैं। इसीलिए भारत में इस विषय पर खामोशी है।
-कुमार सुबोध