ईश्वर का प्रसाद है संतान
22-May-2015 05:06 AM 1234840

 

जब तक नारियल फूटता नहीं उसके भीतर का गुण भी पता नहीं चलता। सूखा है या गीला, मीठा है या कसैला, सड़ा है या अच्छा। संतान भी बचपन में बहुत सुहावनी लगती है लेकिन उम्र के साथ-साथ संतान में नम्रता, योग्यता और करुणा जैसे गुण विकसित न हों, तो संतान के औचित्य पर प्रश्नचिन्ह लग जाता है। संसार में सबसे बड़ा मोह संतान का ही है। एक ऋषि की कथा इस संदर्भ में याद आती है कि उनके गले मेंं मरा हुआ सर्प किसी ने डाल दिया तो भी उनका तप भंग नहीं हुआ किंतु जैसे ही उन्हें अपने बच्चे का आंर्तनाद सुनाई पड़ा, ऋषि तप छोड़कर बच्चे के पास भागे। उनका ध्यान टूट गया। बाल हठ जितना आनंददायी है उतना ही कष्टदायी भी है। बच्चे माता-पिता से अपनी असंगत मांगें भी मनवा लेते हैं। वे जिद करते हैं, खासकर किशोरावस्था में यह भ्रम पाल लेते हैं कि वे ही सच हैं दुनिया गलत है। उनकी दिशा और दशा का कोई ठिकाना नहीं रहता किंतु उन्हें यह गलतफहमी रहती है कि जिस दिशा में जा  रहे हैं, वह दिशा सही है। ऐसी दिशाहारा तरुणाई देश और समाज के लिए तो घातक है ही लेकिन इसका सबसे पहला प्रभाव परिवार पर पड़ता है। उन माता-पिता पर पड़ता है जो अपनी संतानों को बड़े जतन से, लाड़-प्यार से अरमानों के साथ पालते हैं।
आज की संस्कारविहीन, धर्मविहीन नई पीढ़ी माता-पिता के अरमानों के मर्म को नहीं समझ पाती। वह गलत संगति और गलत रास्ते पर चलकर विदेशियों की संस्कृति का अनुसरण करने का ढोंग करती है। किंतु उसे ज्ञात नहीं कि विदेशों में भी सभ्य, सुसंस्कृत और काबिल संतान अपने बड़ों, माता-पिता, अभिभावकों की बातों को न केवल ध्यान से समझती है बल्कि उन सबको प्रसन्न रखने की कोशिश करती है। वहां जीवन बंधन से मुक्त है किंतु उन्मुक्त नहीं। वहां स्वतंत्रता मिली हुई है किंतु स्वच्छंदता नहीं। भारत में यह माना जाता है कि ईश्वर द्वारा प्रदत्त संतान भगवान की प्रसादी के समान है। जैसे प्रसाद का आस्वादन जिव्ह्या पर लंबे समय तक रहता है वैसे ही संतान की शालीनता, विनम्रता जैसे गुणों का आस्वादन भी दीर्घकालीन प्रभाव छोड़ता है। यदि संतान गुणी है, विनम्र है, सुसंस्कृत है तो समाज में उसका अलग प्रभाव होगा। लेकिन वह गलत मिजाज की हो, उसके स्वभाव में दुष्टता हो, उसके आचरण में पाप हो तो जीवन नर्क बन जाता है। पांच पांडवों से सौ कौरव केवल संख्या में ही अधिक थे, लेकिन गुणों में बहुत न्यून थे। इसलिए संख्या बल काम नहीं आया। बल्कि पांडवों की न्यूनतम संख्या के समक्ष कौरव कमजोर पड़ गए। बल, बुद्धि, विवेक और युद्ध कौशल में वे पांडवों के समक्ष कहीं नहीं ठहर पाए। उनका अहंकार, उनकी ईष्र्या, उनके दुर्गुण यह सब उनके पतन का कारण बने। महाभारत का युद्ध भी देखा जाए तो संतानों के अहंकार का परिणाम था। धृतराष्ट्र अपने पुत्रों को उचित दिशा नहीं दे पाए। गांधारी अपनी आंखों पर पट्टी बांधें रहीं। वे आंखें खोली रखतीं तो शायद अपने बच्चों को न्याय का दर्शन करा देतीं।
लेकिन जिन माता-पिता की आंखें खुली हैं उनकी संतानें भी कहां सुख दे पाती हैं। वे माता-पिता की आंखों से दुनिया को देखने का प्रयास नहीं करतीं। उनका अहंकार उनके ज्ञानचक्षुओं पर पर्दा डाल देता है। माता-पिता का अनुभव, मार्गदर्शन उन्हें बेमानी लगता है। यह परवरिश की कमी हो सकती है लेकिन इस पर बाहरी वातावरण का प्रभाव भी कहीं न कहीं पड़ता है।
आज अति वैभव और विलासितापूर्ण जीवन शैली के कारण आज की पीढ़ी में भटकाव की स्थिति उत्पन्न हो गई है, चार कदम धूप में चलना दूभर हो गया है! तुमने ही उनको भोगों का दास बना उनको रोगी बना दिया है! बिना तपिस और कष्ट झेले कभी भी महान व्यक्तित्व का निर्वाण नहीं हो सकता!
इंसान के अलावा अधिकतर प्राणी एक समय के पश्चात अपनी संतान को स्वतंत्र जीने के लिए छोड़ देते है। केवल इंसान ही मोह, माया के चक्कर में पड़कर संतान को जीवनभर अपने से अलग कर उसको स्वतंत्र नहीं छोड़ पाता जिसके कारण वह सिर्फ दुख पाता है! दरअसल तुम अपनी संतान के भाग्य के निर्माता बनने की नाकाम कोशिश करते हो और दुखित रहते हो!
एक पीढ़ी का दूसरी पीढ़ी से टकराव और भेदभाव कोई नई बात नहीं है, सदैव से नई पीढ़ी पुरानी पीढ़ी को चुनौती देती आई है ! यह टकराव क्रमिक विकास के लिए बहुत जरूरी भी है! तुम जितना अधिक संतान को अपने से बांधने का, रोकने का प्रयास करोगे उतना ही विरोध और तीव्र होगा और उस तीव्रता के कारण कुछ नकारात्मक घटित होने की आशंका बहुत अधिक है! तुमने अगर उनके मन में प्रेम का बीज बोया होता तो शायद स्थिति विपरीत होती, प्रेम में कोई बंधन नहीं, कोई रुकावट नहीं सिर्फ समर्पण है!
पहला सुख निरोगी काया। दूसरा सुख बताया गया है-घर में माया। घर में अथाह धन सम्पति हो तो व्यक्ति के जीवन में किसी भी प्रकर की कोई कमी नहीं रहती। धन से व्यक्ति जीवन में उसका भोग करते हुए शारीरिक सुख प्राप्त कर सकता है।          तीसरा सुख बताया गया है-घर में संस्कारवान नारी। व्यक्ति की धर्मपत्नी अगर सुसंस्कारित हो तो वह उस व्यक्ति के लिए सुख का कारण होती है। संस्कारित पत्नी घर को व्यवस्थित रखती है और अपनी संतान का भी लालन पालन कर संस्कारित करती है जिससे भविष्य में संतान की तरफ से भी व्यक्ति निश्चिन्त हो जाता  है।
ऐसे कई परिवार मैंने देखें है जिसमे पत्नी का कर्कश व्यवहार होता है और फलस्वरूप उसकी संतान संस्कारित नहीं हो पाती। इसी कारण से व्यक्ति दोनों मोर्चों पर दु:ख का अनुभव करता है-पत्नी के कर्कश स्वभाव के कारण और संतान के संस्कारित न होने के कारण। इसीलिए कहा जाता है कि पुत्र अगर संस्कारित हो तो केवल एक घर में सुख का अनुभव होता है परन्तु अगर पुत्री सुसंस्कारित हो तो वह दो परिवारों में  संस्कार का आधार तैयार करती है और सुख का लाभ प्रदान करती है । संसार का चौथा सुख बताया गया है-पुत्र आज्ञाकारी। जिस व्यक्ति का पुत्र उसका प्रत्येक आदेश मानाने को उद्यत हो ऐसा पिता अत्यंत सुखी माना जाता है। आधुनिक युग में ऐसे पुत्र मिलना दुर्भर होते जा रहे हैं। श्रवण कुमार  एतिहासिक हो गए है। पुत्र आज्ञाकारी होते हैं तो व्यक्ति का सम्पूर्ण जीवन ही सुखमय बना रहता है।  

  • ओम शिवम

 

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