23-May-2015 04:59 AM
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फरवरी माह की बात है, बंगाल भाजपा अध्यक्ष राहुल सिन्हा ने बनगांव लोकसभा और कृष्णागंज विधानसभा के उपचुनावी नतीजों के बाद दावा किया था कि बंगाल में भाजपा के करीब 6 लाख मुस्लिम सदस्य हैं। उस समय बनगांव लोकसभा सीट पर भाजपा को 25.40 प्रतिशत और कृष्णागंज में 29.53 प्रतिशत वोट मिले। 2014 के लोकसभा चुनाव के बाद यह भाजपा का सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन था। जो जनवरी 2014 के बाद भाजपा की लोकप्रियता में लगातार वृद्धि के फलस्वरूप सामने आया।
लेकिन हाल में 91 स्थानीय निकाय के चुनाव में जो नतीजे सामने आए हैं, उनसे तो यह कहीं नहीं लगता कि भाजपा के पैर पश्चिम बंगाल में जम गए हैं। यह नतीजे तो कुछ और ही कहानी कहते हैं। यूपी, बिहार, राजस्थान, उत्तराखंड की उप चुनावी पराजय के बाद यह हार भी मोदी के खाते में तो नहीं जाएगी?
बंगाल के 92 स्थानीय निकायों में से 70 पर तृणमूल कांग्रेस ने जीत का झंडा फहरा दिया। कोलकाता नगर निगम (केएमसी) में उसने अपना प्रदर्शन सुधारते हुए 2010 में 95 वार्डों पर जीत के मुकाबले हालिया चुनावों में 114 वार्डों पर जीत हासिल की। उसके प्रतिद्वंद्वी वाम मोर्चे ने महज छह स्थानीय निकाय संस्थाओं पर जीत हासिल की और केएमसी में उसे केवल 15 वार्डों पर जीत हासिल हुई। वहीं राज्य की राजनीति में मुख्य विपक्षी दल के तौर पर उभरने का ख्वाब देख रही भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) का यह सपना बुरी तरह टूट गया, वह राज्य में एक भी स्थानीय निकाय पर काबिज होने में नाकाम रही तो वहीं केएमसी में भी वापमंथी दलों की संख्या के आधे में ही सिमट गई। कांग्रेस ने किसी तरह अपनी जमीन बचाई और पांच स्थानीय निकायों पर कब्जे के साथ ही उसने केएमसी में पांच वार्डों पर जीत हासिल की। वर्ष 2010 में तृणमूल ने 81 में से 33 स्थानीय निकायों पर जीत का परचम फहराया, जबकि वामपंथी दलों ने 33 स्थानीय निकाय अपने नाम किए। वहीं कांग्रेस ने सात पर जीत हासिल की।
केएमसी चुनावों में अगर वोट प्रतिशत के लिहाज से देखें तो भाजपा 15.37 फीसदी वोटों के साथ तीसरे स्थान पर रही। दूसरे स्थान पर वाम मोर्चा रहा, जिसका वोट प्रतिशत 18.72 फीसदी रहा तो वहीं 6.54 फीसदी वोटों के साथ कांग्रेस चौथे स्थान पर रही। तृणमूल को भारी भरकम 50 फीसदी वोट मिले। मई में हुए लोकसभा चुनावों में भाजपा को 17 फीसदी मत मिले थे। ऐसे में पिछले एक साल के दौरान भाजपा के साथ क्या गलत हुआ? एक तो लोकसभा चुनाव के दौरान जारी मोदी लहर की कमी महसूस की गई तो वहीं राज्य स्तर पर अक्षम नेतृत्व की भी अपनी खामियां हैं। 2014 के लोकसभा चुनाव के मैन ऑफ द मैच करार दिए जाने वाले अमित शाह स्थानीय कार्यकर्ताओं से बेहतर संवाद स्थापित करने के लिए बांग्ला सीख रहे थे लेकिन वह आखिरी बार जनवरी में यहां देखे गए थे। इससे पहले कोलकाता में नवंबर में उनकी रैली हुई थी, जिसमें नारा गूंजा था, आपकी सरकार की उल्टी गिनती अब हुई शुरू।Ó तब से भाजपा के अभियान में चपलता गायब हो गई और राज्य इकाई के अध्यक्ष टेलीविजन स्टूडियो पर होने वाली बहसों में मसरूफ हो गए। इस बीच पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से मुलाकात की और उसमें राज्य के वित्तीय हालत और घर वापसीÓ जैसे मसलों पर चर्चा हुई। बंगाल में 27 फीसदी अल्पसंख्यकों में से अधिकांश का समर्थन बनर्जी को हासिल है। मगर यह क्या महज एक संयोग है कि वस्तु एवं सेवा कर के मसले पर तृणमूल केंद्र सरकार के साथ है? फिलहाल चारों ओर यही सवाल है कि क्या भाजपा नेतृत्व को इस हकीकत का एहसास हो गया है कि बंगाल बहुत दूर की कौड़ी है? क्या यह वामपंथी दलों को असंतुष्टï प्रमुख विपक्षी के तौर पर स्थापित करता है? वाम मोर्चा पिछले कुछ वर्षों की तुलना में चुनावी नतीजों को लेकर उतना उत्साहित नहीं दिखा, जो संयोग से पार्टी नेतृत्व में परिवर्तन के साथ आए। वर्ष 2009 से ही वाम मोर्चा चुनावों में लगातार फिसलन का शिकार ही रहा है। हाल के दौर में यह पहली दफा है कि वह गिरावट को कुछ थामने में सफल रहा। लोकसभा चुनावों के नतीजों के आधार पर उसे केएमसी में 11 सीटें मिलनी चाहिए थीं लेकिन उसने 15 पर जीत हासिल की। यह वाम मोर्चे के लिए बुनियाद भरने के लिहाज सेे काफी हैं, जिस पर वह शानदार इमारत बना सके।
पिछले कुछ समय से वाम मोर्चा इसकी जुगत भिड़ा रहा है। अगस्त, 2014 से कोलकाता में 10 टैक्सी हड़ताल हो चुकी हैं, जिनमें से अधिकांश को माक्र्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी (माकपा) से संबंधित मजूदर संगठन सीटू का समर्थन हासिल हुआ और हड़ताल की मुख्य वजह किराये की दरों में संशोधन की मांग थी। शहर में करीब 37,000 टैक्सी चलती हैं। साथ ही हाल में आयोजित बंद से भी वाम मोर्चे की आंखों में चमक लौटी है। स्थानीय निकाय चुनाव में 11 निकाय संस्थाओं में किसी को बहुमत हासिल नहीं हुआ और वाम मोर्चे ने तृणमूल कांग्रेस से सिलिगुड़ी नगर निगम को भी झटका है। अगर भाजपा नहीं तो क्या वाम मोर्चा वर्ष 2016 में बनर्जी के लिए चिंता का सबब बनेगा?
- कोलकाता से इंद्रकुमार बिन्नानी