22-May-2015 03:29 PM
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मध्यप्रदेश की राजधानी भोपाल, देश के नक्शे पर तेजी से उभरता हुआ शहर, दूसरे नंबर की महंगी जमीनें, जनसंख्या का लगातार बढ़ता दबाव, महत्वाकांक्षी राजनेताओं का आश्रयस्थल जो इसे पेरिस बनाने का ख्वाब देखते हैं, आईटी हब, मेट्रो से लेकर स्मार्ट सिटी तक सब कुछ संभव बनाने की योजना लेकिन बिना किसी मास्टर प्लान के।
यह है भोपाल की कहानी। जो, नेताओं की वाणी पर विश्वास करें तो अगले 1 दशक में देश के सबसे विकसित और सुव्यवस्थित शहरों में तब्दील हो जाएगा। क्या यह संभव है?
आज भोपाल और उसके भविष्य पर चिंता करने वाले लोग प्रदेश के नेताओं तथा अधिकारियों के इन दावों को संदेह की दृष्टि से देख रहे हैं। कारण स्पष्ट है, जिस शहर का मास्टर प्लान ही पिछले 1 दशक से लटका हुआ हो, वह शहर स्मार्ट सिटी में कैसे तब्दील हो सकता है? भोपाल का मास्टर प्लान एक ऐसी अनबूझ पहेली बन चुका है, जिसे सुलझाना टॉउन एण्ड कंट्री प्लानिंग के लिए असंभव सा प्रतीत हो रहा है। वर्ष 2005 मेें जब भोपाल विकास योजना की अवधि समाप्त हुई, तो आगामी 20 वर्ष को ध्यान में रखते हुए नई योजना या मास्टर प्लान का खाका तैयार किया गया। इसे तैयार करने में पूरे 3 वर्ष लगे लेकिन जैसे ही 3 वर्ष पूरे हुए समाचार पत्रों में इस योजना की धज्जियां उड़ाई जाने लगीं। मास्टर प्लान जो कि जारी ही नहीं हुआ था, तमाम आलोचनाओं से घिर गया। मीडिया ने तो जमकर इस प्लान की धज्जियां उड़ाई ही, लेकिन भोपाल के नियोजन को अपना परम कर्तव्य मानने वाले कुछ ठेकेदारनुमा लोगों ने भी कभी लेख लिखकर तो कभी मौखिक आलोचना करते हुए इस महत्वाकांक्षी मास्टर प्लान को जारी होने से पहले ही भू्रण हत्या की कगार पर धकेल दिया। इसका नतीजा यह निकला कि मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने भोपाल का मास्टर प्लान ही स्थगित कर दिया।
तब से लेकर आज तक यह मास्टर प्लान तैयार हो रहा है। विशेषज्ञ अनवरत काम में जुटे हुए हैं। मीटिंग चल रही है, बहस हो रही है, अधिकारी नई-नई तारीखें दे रहे हैं, लेकिन मास्टर प्लान पिछले 7 वर्ष से जारी ही नहीं हो पा रहा है। हर बार कोई नई तारीख दे दी जाती है, कोई नया शिगूफा छेड़ दिया जाता है। इस बीच भोपाल में कई महत्वपूर्ण प्रोजेक्ट या तो शुरू हुए या उनकी चर्चा हुई या उन्हें समयबद्ध पूरा करने का आश्वासन दिया गया। भोपाल को आईटी हब बनाने की बात तो पहले से ही की जा रही थी, बाद में भोपाल के भीतर ही मेट्रो चलाने की बात उठी और अब भोपाल को स्मार्ट सिटी बनाने का सब्जबाग दिखाया जा रहा है। जिसके लिए भोपाल एयरपोर्ट को अंतर्राष्ट्रीय एयरपोर्ट बनाने से लेकर तमाम परिवर्तन कर डालने की योजना है।
लेकिन यह सब दिखावटी ही लगता है। इसका कारण यह है कि राजनेता से लेकर नौकरशाह सब शब्दों के वीर हैं। वे एक तरफ तो भोपाल को स्मार्ट सिटी बनाने की बात करते हैं और दूसरी तरफ लोकलुभावन वादे तथा घोषणाएं करने से भी बाज नहीं आते। नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल जैसी महत्वपूर्ण संस्थाओं की अनुशंसाओं की भी धज्जियां उड़ाने में नेता और अधिकारी पीछे नहीं हैं। नेताओं तथा बिल्डरों के दबाव में पुराने मास्टर प्लान को कचरे के डब्बे में डालने वाले मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान तो चार कदम आगे हैं। हाल ही में जब एनजीटी ने कलियासोत नदी के दोनों तरफ 33-33 मीटर निर्माण तोडऩे की अनुशंसा की, तो मुख्यमंत्री ने जनता के बीच जाकर कह दिया कि उनके रहते भला कौन मकान तुड़वा सकता है। दयालु मुख्यमंत्री ने इससे पहले भी मास्टर प्लान के समय कुछ बिल्डरों और नेताओं के आंसू देखकर दया दिखाई थी। बाद में पता चला कि कमी मास्टर प्लान में नहीं थी बल्कि जो ग्रीन बैल्ट और कैचमेंट एरिया घोषित किया गया था उसमें कुछ अधिकारियों, नेताओं और बिल्डरों की जमीनेें आ रही थीं, जिन्होंने अपना दुखड़ा रोया और हमारे दयावान मुख्यमंत्री पिघल गए।
ऐसा नहीं है कि भोपाल का मास्टर प्लान तैयार करने के लिए सरकार ने पहल नहीं की, लेकिन सरकार की नेकनीयती का गलत फायदा उठाया गया। बड़े तालाब का मास्टर प्लान अहमदाबाद के सेप्ट विश्वविद्यालय ने तैयार किया था, उसे नकार दिया गया। कारण वही था, कैचमेंट एरिये में निर्माण पर रोक का सुझाव। इसी तरह एनजीटी द्वारा की गई अनुशंसाओं को भी ठंडे बस्ते में डाल दिया गया। कहा गया कि मास्टर प्लान पर 36 सौ आपत्तियां आई हैं। लेकिन इनमेें से 25 सौ आपत्तियां तो खानू गांव में कैचमेंट एरिया और ग्रीन बेल्ट पर बड़ी-बड़ी इमारतें ताने बैठे लोगों ने लगाई थी। एक ही तरह की आपत्तियां थी उन्हें अलग-अलग कैसे वर्गीकृत किया जा सकता है।
यदि सही तरह से वर्गीकृत करते तो यह आपत्तियां 80 से ज्यादा नहीं बैठतीं। मात्र 80 आपत्तियां एक शहर के मास्टर प्लान को कचरे के डब्बे में डालने के लिए पर्याप्त हैं? यदि इनमें से कुछ जायज भी थीं, तो उनपर चर्चा हो सकती थी। आम तौर पर ऐसा होता है कि मास्टर प्लान जारी करने के बाद जो भी आपत्तियां आती हैं, उनका निराकरण करते हुए बाद में मास्टर प्लान में सुधार किया जा सकता है। कोई भी मास्टर प्लान 100 प्रतिशत फुल पू्रफ नहीं होता है, कुछ न कुछ कमी रहती ही है।
दिक्कत यह है कि लोकतांत्रिक व्यवस्था होने के कारण हमेशा चुनाव चलते रहते हैं और चुनाव का बहाना लेकर मास्टर प्लान को टाल दिया जाता है। नगर निगम भोपाल के तात्कालीन प्रशासक देवीशरण श्रीवास्तव का कहना है कि भोपाल के मास्टर प्लान में भोपाल का क्षेत्रफल बढ़ाया जा रहा है। यदि पहले के मास्टर प्लान को देखें तो उसमें जो क्षेत्र लिया गया था, उसमें से केवल 65 प्रतिशत का उपयोग हो पाया है। 35 प्रतिशत अभी भी अनुपयुक्त पड़ा हुआ है। ऐसे में नए प्लानिंग एरिये की क्या आश्यकता है?
भोपाल को में कार्यस्थल पर जाने के लिए 100-100 किलोमीटर नहीं चलना पड़ता है। भोपाल की जनसंख्या के हिसाब से जो प्लानिंग एरिया पहले लिया गया था, उसे ही सही तरीके से विकसित कर लिया जाता, तो भोपाल को एक विश्वस्तरीय शहर बनाया जा सकता था।
पहले जो मास्टर प्लान में आपत्तियां आई थीं वे केवल निजी स्वार्थों से प्रेरित थीं, जैसे किसी का घर या फार्म हाउस ग्रीन क्षेत्र अथवा कैचमेंट एरिये में है-तो उसने आपत्ति लगा दी। यदि किसी का घर या प्रॉपर्टी कमर्शियल में आ गई, तो रेसिडेंसियल वाले ने आपत्ति लगा दी। ञ्जद्धशह्वद्दद्धह्लद्घह्वद्य स्ह्वद्दद्दद्गह्लद्बशठ्ठह्य न के बराबर थे। कुछ प्रभावशाली लोगों ने भ्रम की स्थिति उत्पन्न की और मुख्यमंत्री को भी गुमराह कर दिया। प्रश्न यह है कि हर मंत्री, प्रशासक या अफसर यह क्यों मान लेता है कि अतीत में जो कुछ किया गया वह सब गलत था और वह जो करेगा वही सही रहेगा? भोपाल के मास्टर प्लान के साथ भी यही खिलवाड़ होता रहा- पिछला गलत हम सही। जो इंजीनियर और प्लानर पढ़ाई केे दौरान एक सेमेस्टर में दो-दो मास्टर प्लान बनाकर समिट कर देते हैं, वे अपनी नौकरी के 10 साल के भीतर भी भोपाल जैसे छोटे शहर का मास्टर प्लान नहीं बना पाते क्योंकि सबके अपने-अपने स्वार्थ हैं।
मीडिया भी कई बार निष्पक्ष नहीं हो पाता। जब मास्टर प्लान रिजेक्ट किया गया, उस वक्त भोपाल के कुछ अखबारों ने लगातार श्रृंखला चलाई थी-मास्टर प्लान के खिलाफ। बाद में पता चला कि हृश ष्टह्वठ्ठह्यह्लह्म्ह्वष्ह्लद्बशठ्र्ठ ंशठ्ठद्ग में किसी प्रभावशाली व्यक्ति की जमीन भी आ रही थी।
जब तक मास्टर प्लान नहीं बनेगा, भूमि का उपयोग कैसे किया जाए? यह जानना संभव नहीं है। 3-3 बार ड्राफ्ट बनने के बाद भी अभी तक एक्सपेरिमेंट ही चल रहा है। बीआरटीएस बगैर प्लानिंग के बना, इसलिए असफल हो गया। कितने लोग बैरागढ़ से मिसरोद या मिसरोद से बैरागढ़ जाते हैं? दोनों जगह जो समुदाय रहता है, उसका कार्यस्थल आस-पास ही है। मेट्रो को लेकर भी यही सवाल उठाया जा रहा है। भोपाल मेें न तो पुणे-अहमदाबाद जैसी आबादी है, न ही दिल्ली-मुंबई जैसे शहरों की तरह आस-पास बसे हुए उपनगरीय और व्यासायिक इलाके। इसलिए मेट्रो का विकल्प उचित नहीं जान पड़ता। फिर मेट्रो में 20 हजार करोड़ का प्रारम्भिक खर्च है, जो बढ़कर योजना पूरी होते-होते दोगुना हो जाएगा। इस बजट को शहर की सड़कों के चौड़ीकरण, फ्लायओवर बनाने, फुटओवर ब्रिज बनाने, नए पार्किंग एरिया विकसित करने तथा मौजूदा जनसुविधाओं को ज्यादा एफिसिएंट बनाने मेंं खर्च किया जाना चाहिए। लाइट मेट्रो भोपाल में ज्यादा उपयोगी सिद्ध नहीं होगी, ऐसा विशेषज्ञों का कहना है। 10-12 किलोमीटर के लिए मेट्रो महंगा सौदा है। फिजीवल नहीं है फिर भी अधिकारियों और नेताओं की जिद है कि भोपाल में मेट्रो बननी चाहिए। क्योंकि वोट का प्रश्न है।
लेकिन यह पैसा किसकी जेब से निकलेगा? जाहिर है पैसा उस जनता की जेब से आएगा, जो मेट्रो में शायद ही सफर करे। ऐसा नहीं है कि इसका विरोध नहीं हुआ है, अंदर ही अंदर कुछ अधिकारियों ने मेट्रो को अव्यवहारिक बताया है। लेकिन उन्हें प्रताडि़त किया गया। पानी को लेकर भी भोपाल में यह भ्रम फैलाया गया कि यहां पानी की भारी कमी है। 724 करोड़ रुपए खर्च किए गए लेकिन नर्मदा जल आने के बावजूद शहर में हर जगह टैंकर दौड़ते मिल जाएंगे। जनता पानी के मीटर के अनुसार पैसा नहीं देना चाहती। नेताओं और अफसरों ने भी इसे स्वीकार कर लिया है जबकि इससे पानी की बर्बादी रुक सकती थी। तकनीकी भाषा में पानी की बर्बादी को ठ्ठशठ्ठ ह्म्द्ग1द्गठ्ठह्वद्ग 2ड्डह्लद्गह्म् (हृक्रङ्ख) कहा जाता है। नियमानुसार एनआरडब्ल्यू 15 प्रतिशत से अधिक नहीं होना चाहिए। लेकिन भोपाल में 50-60 प्रतिशत है और बाकी शहरों में भी 45 प्रतिशत से ऊपर है। मास्टर प्लान बनाकर जल योजना बनाई जाती, तो एनआरडब्ल्यू को 20-25 प्रतिशत तक लाया जा सकता था। लेकिन इच्छा शक्ति का अभाव है और बिल्डरों को बंदरबांट भी करनी है।
एक बात और है, मध्यप्रदेश में टॉउन एण्ड कंट्री प्लानिंग नगरीय निकाय से अलग है। बहुत से प्रदेशों में नगरीय निकायों को भी यह काम सौंपा गया है। होता यह है कि भोपाल जैसे शहर में टॉउन एण्ड कंट्री प्लानिंग के अधिकारी वर्चुअल सर्वे न के बराबर करते हैं। इसके बाद मास्टर प्लान तैयार कर दिया जाता है, जो बहुधा अव्यहारिक होता है। एनफोर्समेंट की जिम्मेदारी नगरीय निकायों की है, लेकिन वह टेबल पर बैठकर बनाए गए मास्टर प्लान को लागू नहीं कर पाता। तथ्य यह है कि कागज पर बनाया गया मास्टर प्लान जब जमीन पर आता है, तो बदल चुका होता है। मध्यप्रदेश में तो टॉउन एण्ड कंट्री प्लानिंग विभाग नगरीय निकाय से संपर्क तक नहीं करता, जनता तो दूर की बात है। जबकि किसी भी अर्बन प्लानिंग में यह जरूरी है कि जनता और नगरीय निकाय हर स्तर पर भागीदार बनें।
भोपाल के मैरिज गार्डन का ही उदाहरण लिया जाए, तो इसमें अधिकारियों को 10 वर्ष पहले तक यह पता था कि भोपाल में मात्र 3 मैरिज गार्डन को छोड़कर आस-पास किसी के पास भी परमीशन नहीं है लेकिन उन्हें बनने दिया गया। पहले 9 हुए, फिर 12 और उसके बाद संख्या कई गुनी बढ़ गई। कोर्ट का डंडा चला तो सरकार थोड़ी सख्त हुई। प्रश्न वही है कि सारे अवैध मैरिज गार्डनों को कब तोड़ा जाएगा? टॉउन एण्ड कंट्री प्लानिंग भले ही अवैध घोषित कर दे किंतु एनफोर्समेंट की जिम्मेदारी जिस संस्था की है, वह संस्था-नगर निगम इतना साहस शायद ही जुटा पाए क्योंकि उस पर कई तरह के दबाव हैं। आज यदि मास्टर प्लान हाथ में रहता और उसमें मैरिज गार्डन स्पष्ट रूप से परिभाषित रहते, तो नगर निगम का कोई छोटा अधिकारी भी एक चेतावनी देकर इन अवैध निर्माणों को तत्काल तोड़ देता। मास्टर प्लान एक ऐसा दस्तावेज है, जो नगरीय निकायों को सशक्त करता है और नगर नियोजन को सुचारू बनाता है। लेकिन जब स्वार्थ जुड़े हों तो मास्टर प्लान ठंडे बस्ते में पड़ा रहेगा।
ग्रीन बेल्ट बाधा बना?
यदि ग्रीन बैल्ट और कैचमेंट एरिया को पूरी तरह ध्यान में रख लिया जाए, तो मास्टर प्लान जारी होने में मात्र 10 दिन लगेंगे, यह उन विशेषज्ञों का मत है जो मास्टर प्लान की अच्छी समझ रखते हैं। लेकिन मास्टर प्लान को स्थगित रखने में सबके अपने स्वार्थ हैं। सबसे बड़ा स्वार्थ तो उन बिल्डरों का है, जिन्होंने शहर के चारों तरफ कृषि की जमीनें खरीद रखी हैं और उनका डायवर्जन करवाकर मनमाने दामों पर कॉलोनियां काट रहे हैं। यहां तक की उन क्षेत्रों में भी आवासीय कॉलोनियां कट चुकी हैं जिन्हें कायदे से ग्रीन बैल्ट, इंडस्ट्रियल एरिया कृषि भूमि या कैचमेंट एरिया में आना था। जहां जिसकी मर्जी है, वैसा निर्माण कर रहा है। न तो कोई एजुकेशन हब है, न कोई चिन्हित व्यावसायिक क्षेत्र है और न ही अन्य इलाके हैं। शहर में चारों तरफ इंजीनियरिंग कॉलेज मिल जाएंगे। यह सब सुनियोजित षड्यंत्र प्रतीत होता है। जब मास्टर प्लान बनेगा तो उसमें स्पष्ट दिशा निर्देश रहेंगे, कहां ग्रीन बैल्ट हो, कहां इंडस्ट्रियल एरिया हो, कहां कैचमेंट एरिया हो, कहां व्यासायिक क्षेत्र बने, कहां दुकानें बनें, कहां मकान बनें। तय होने के बाद जमीनों के दाम बढ़ भी सकते हैं, घट भी सकते हैं और कुछ लोगों के व्यासायिक हितों पर पानी भी फिर सकता है। इसलिए जान-बूझकर एक दशक से मास्टर प्लान ठंडे बस्ते मेें है। इसे कब तक ठंडे बस्ते में रखा जाएगा? 2018 में भोपाल में मेट्रो चलाने की हास्यास्पद घोषणा हमारे कर्णधारों ने कर दी है। स्मार्ट सिटी तो एक ऐसा शिगूफा है, जो पिछले चुनाव के समय से ही चल रहा है। लेकिन किसी को भी नहीं मालूम कि स्मार्ट सिटी क्या होती है? जिस शहर में परिवहन सुचारू और तीव्र हो, सॉलिड वेस्ट मैनेजमेंट सही हो, व्यवस्थित कॉलोनियां हों, अच्छी कनेक्टिविटी हो, चौबीस घंटे शुद्ध पेयजल उपलब्ध हो, अस्पताल, बस अड्डा, हवाई अड्डा, रेलवे स्टेशन, स्कूल, कॉलेज जैसी तमाम जनसुविधाएं त्वरित पहुंच के दायरे में हों और इन सब की मॉनिटरिंग के लिए एक बेहतरीन आईटी सिस्टम हो, वही स्मार्ट सिटी है।
स्मार्ट सिटी अलग से बनाना नहीं पड़ता, बल्कि मौजूदा शहरों को कड़े अनुशासन द्वारा व्यवस्थित करना होता है और इसके लिए सबसे पहले चाहिए एक मजबूत और परफेक्ट मास्टर प्लान। क्कद्यड्डठ्ठठ्ठद्गस्र ह्म्ड्ढड्डठ्ठ ष्ठद्ग1द्गद्यशश्चद्वद्गठ्ठह्ल के जमाने में मास्टर प्लान के बगैर स्मार्ट सिटी की कल्पना कैसे की जा सकती है।
मास्टर प्लान रुकवाया किसने?
मास्टर प्लान पिछली बार जो बनकर तैयार था और उसमें सुनवाई का सिलसिला चल रहा था इसी बीच में अचानक से मास्टर प्लान को कुछ कारणों से सरकार ने खारिज कर दिया। जबकि उसमें बिल्डरों का दबाव और 24 मीटर के आसपास की सारी रोडें कार्मशियल करना भोपाल-इंदौर मार्ग के आसपास कार्मशियल के लिए छोडऩा इत्यादि कई बहाने थे। परंतु सूत्र बताते हैं सरकार के कबीना मंत्री जो बुंदेलखंड से चुनाव लड़ते हैं उनकी और उनकी धरमपत्नी के साथ भोपाल के दो बिल्डर जो कि कोरिया की कारों का व्यापार करते हैं और बिल्डर भी हैं। उनके एक और साथी जो होटलों के व्यापार में लिप्त हैं इन दोनों से मंत्री दंपत्ति की साझेदारी होने के कारण मास्टर प्लान को स्थगित किया गया। यह बात गलियारों में काम करने वाले अफसरों से लेकर मुख्यमंत्री तक को पता है। साथ ही इस मास्टर प्लान के जो विश्वकर्मा थे वह भारतीय प्रशासनिक सेवा के और भोपाल के जवाबदार नागरिक की हैसियत से इस मास्टर प्लान को बड़ी मुस्तैदी से बनवा रहे थे और तरह-तरह से मास्टर प्लान में बदलाव कर रहे थे ऐसा लग रहा था कि मास्टर प्लान अब आए और कब आए। पर पता चला कि उन साहब के मंसूबों पर भी पानी फिर गया और अब साहब भोपाल के मास्टर प्लान पर कुछ बोलने को तैयार नहीं है। जब जवाबदार लोग ही नहीं चाहते हैं कि शहर का विकास हो शहर की प्लानिंग जबरदस्त हो तो भला इस शहर में बाहर से आने वाले व्यवसायी तो इस शहर के कोने-कोने को नोच-नोच कर खा जाएंगे और ऐसा ही इस शहर के साथ व्याभिचार हुआ है। राजधानी होने के कारण मुख्यमंत्री से लेकर सारे प्रशासनिक अफसर भी चुप बैठे हैं।
पूरी खेती की जमीनों का डायवर्जन करके कॉलोनियां बनाई जा रही हैं। जहां गले-गले तक फसल होती थी, वहां अब कक्रींट की इमारते हैं। टॉउन एण्ड कंट्री प्लानिंग बेधड़क परमीशन दे रहा है। पहले जो मास्टर प्लान बना था, उसी का 65 प्रतिशत प्लान एरिया उपयोग में आ पाया। 35 प्रतिशत अभी भी खाली है। शहर चारों तरफ बेतरतीबी से बढ़ रहा है। लेकिन जब तक अच्छे प्लानर और इच्छा शक्ति वाले राजनेता आगे नहीं आएंगे, शहर को सही रूप देना कठिन होगा। देवीशरण श्रीवास्तव