05-May-2015 06:08 AM
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भारत के 38 शहर भी ढह सकते हैं
25 अप्रैल 2015 को आसमान मेें खिली धूप और मंद हवाओं से तरोताजा नेपाल की जमीन सुबह 11 बजे से धमाके के साथ जब हिलना शुरू हुई तो चीत्कार मच गया। मंदिरों की घंटियां अपने आप

बज रही थी और दीवारें भरभरा कर गिर रही थीं। धूल का गुबार काठमांडू के आसमान पर कुछ इस तरह छा गया था मानों दिन में ही शाम हो गई हो। पक्षी पेड़ों पर बैठने को तैयार नहीं थे। वे अपने घोसलों से गिरकर टूटते हुए अंडों और नवजात परिंदों को जमीन में समाते देखने को विवश थे। मवेशियों ने इस आपदा को शायद पहले भांप लिया था। वे बदहवास भाग रहे थे। कुत्ते, बिल्ली घरों से नदारत थे। लेकिन इस आपदा को अपने सीने पर झेलने वाले मनुष्यों के पास न तो पंख थे कि वे आसमान में उड़ जाएं और न ही पूर्वानुमान लगाने की नैसर्गिक शक्ति। यह महज एक इत्तेफाक ही था कि कुछ दिन पहले ही दुनिया भर के भूकंप विज्ञानी नेपाल में जुटे थे और उन्होंने नेपाल जैसे भूकंप संभावित क्षेत्र में हो रहे अंधाधुंध और बेतरतीब निर्माण पर चिंता प्रकट की थी। लेकिन आपदा इतनी जल्दी आ जाएगी इसका उन्हें अनुमान न था।
यूं तो हिमालय के जिस क्षेत्र में नेपाल स्थित है वहां की जमीन सदैव कांपती रहती है। लेकिन यह झटके जानमाल को नुकसान पहुंचाने वाले नहीं होते। रिकार्ड बताते हैं कि नेपाल मेें 83 साल पहले अवश्य एक विनाशकारी भूकंप आया था। लेकिन उसके बाद जमीन शांत रही। थोड़ी बहुत हलचल हुई लेकिन रिक्टर पैमाने पर उसकी माप 5.5 से अधिक कभी न थी। रिक्टर पैमाने की यह खासियत है कि 4 रिक्टर स्केल के भूकंप के मुकाबले 8 रिक्टर स्केल का भूकंप 10 हजार गुना ज्यादा शक्तिशाली होता है। भूकंप की पी तरंगों को 16 हजार किलोमीटर का फासला तय करने मेें 8 मिनट 52 सेकंड का समय लगता है। इसीलिए नेपाल के भूकंप को पहले रिक्टर पैमाने पर 7.5 आंका गया लेकिन बाद में इसमें सुधार करते हुए नया आंकड़ा 7.9 सुझाया गया।
यह नया आंकड़ा भूकंप की भयावहता की कहानी साफ कह रहा था। 7.5 रिक्टर स्केल से ज्यादा के भूकंप महाविनाशी होते हैं। इनके प्रभाव को रोकना मानव के वश में नहीं है। प्रकृति की इस विनाशलीला के समक्ष हम सब बेवश हैं। यही बेवशी 25 अप्रैल को उस नेपाल में देखने को मिली जो अब अपने मूल स्थान से खसककर 8 फिट भारत की तरफ आ चुका है। यह रीलोकेशन आपदा की कहानी कहने के लिए पर्याप्त है। कितनी जानें गईं कहना असंभव है। दूर-दराज के गांवों में जिन्हें जला दिया गया या जो अभी भी मलबे में मृत दबे हुए हैं उनका कोई हिसाब नहीं है। ऐसे बहुत से गांव हैं जो तबाह हो चुके हैं। पृथ्वी के नक्शे से उनका नाम मिट चुका है। वे जमीन में कहां दफन हैं किसी को नहीं पता। उन तक पहुंचने वाले रास्ते भी जमीन निगल चुकी है। लेकिन फिर भी नेपाल के लोग भाग्यशाली है कि ये भूकम्प दिनदहाड़े आया। उस वक्त आया जब लोग जागृत थे। सभी को तो मौका नहीं मिला लेकिन बहुतों को मिल गया और वे बेघरवार लोग सुरक्षित हैं। देहरादून के सुरेश थापा जिनका परिवार नेपाल में बसता है, बता रहे हैं कि रात में यही भूकंप 100 गुना ज्यादा तबाही मचा सकता था। क्योंकि तब सो रहे लोगों के पास बचने का कोई अवसर नहीं मिलता। गुजरात के लातूर में आए भूकम्प के समान यह भूकंप भी अत्यंत विनाशकारी था।
नुकसान कितना हुआ, लोग कितने मरे, सदम से उबरने में कितना वक्त लगेगा यह सारी बातें केवल अनुमान पर आधारित हैं। नेपाल में हर एक की अपनी कहानी है। तबाह हो चुके काठमांडू शहर की कई ऐतिहासिक इमारतें खण्डहर में तब्दील हो गई हैं। पशुपतिनाथ का मंदिर बचा हुआ है। वह इस भयानक भूकंप को कैसे झेल गया इस पर शोध जारी है। नेपाल की त्रासदी, जिसमें सारी दुनिया का एकमात्र लक्ष्य फिलहाल मानवीय सहायता प्रदान करना है-कई सवाल खड़े करती है।
दुनियाभर के भू-विज्ञानी कह चुके हैं कि भूकंप की भविष्यवाणी असंभव है। यह कब आएगा, कहां आएगा, कितना भयावह होगा कहा नहीं जा सकता। रात में या दिन में सर्दी, गर्मी बरसात में दुनिया के किसी भी कोनेे में भूकंप आ सकता है। फिर भी दुनिया में कुछ इलाके ऐसे हैं जहां की जमीन कमजोर है। जमीन के भीतर परिवर्तन हो रहे हैं। इसलिए इन इलाकों में भूकंप कभी भी आ सकते हैं। भू विज्ञानियों ने चेताया है कि नेपाल में बड़ा भूकम्प आना अभी बाकी है। यानी आपदा अभी बीती नहीं है। यह आपदा बदस्तूर चलने वाली है। नेपाल जिस सीस्मिक जोन पर है वह बहुत तेजी से ऊपर-नीचे हो रहा है। इसलिए हिमालय की तराई हो, पहाड़ हो या मैदान-भूकंप कभी भी आ सकता है। आज नेपाल कांपा है कल को हिमाचल, कश्मीर, उत्तराखंड जैसे कई राज्य कांप सकते हैं। भारत के 38 शहर खतरनाक सीस्मिक जोन पर हैं जहां मौत हर पल मंडराती है। लेकिन आश्चर्य इस बात का है कि न तो नेपाल सतर्क था न ही हम सतर्क है।
मध्यप्रदेश में ही भूमि विकास नियमों में जो नगर निगम का आईईएस कोड है उसमें भूकंप से संबंधित स्पष्ट दिशा-निर्देश दिए गए हैं। भूकंप संभावित क्षेत्रों में निजी या सरकारी या किसी भी प्रकार के निर्माण के लिए कई तरह की शर्तें हैं। जिनका अक्षरश: पालन किया जाए तो बड़े सेे बड़े भूकंप से बचा जा सकता है। लेकिन दक्षिण एशिया के देशों में सरकारी नियम कागजों के भीतर ही शोभायमान होते हैं। जैसा भूकंप नेपाल में आया है। वैसा जापान मेें आता तो शायद जानें कम जाती या एक भी जान न जाती। क्योंकि वहां भवन निर्माण की तकनीक से लेकर भूकंप की स्थिति में बचने के तरीकों तक हर जगह श्रेष्ठ वैज्ञानिक तकनीक का प्रयोग किया जाता रहा है। जापान का बच्चा-बच्चा भूकंप शिक्षित तो होता ही है, वहां के भवन और इमारतें भी विनाशकारी भूकंप को सहन करने की ताकत रखती हैं। इसी कारण जापान ने कई विनाशक भूकंप झेलने के बावजूद अभूतपूर्व प्रगति की है।
लेकिन नेपाल में ऐसा नहीं है। काठमांडू शहर में जो इमारतें गिरी हैं वे भूकंप रोधी नहीं थी। बताया जाता है कि भूकंप से बचने की कोई अवधारणा ही लोगों में नहीं है। बेतरतीब निर्माण किए जा रहे हैं। इसी कारण भूकंप की तबाही भयावह हो गई। यदि भवनों का निर्माण सही मानकों के अनुसार किया जाता तो शायद कुछ और जानें बच सकती थी। भोपाल के सिटी प्लानर व्हीपी कुलश्रेष्ठ बताते हैं कि भूकंपरोधी इमारतों के निर्माण में लागत कुछ ज्यादा आती है। संभवत: इसी कारण निर्माणकर्ता सस्ता निर्माण करना चाहते हैं। यह जानलेवा है। खासकर बहुमंजिला इमारतों में सही प्रक्रिया अपनाई जानी चाहिए। नेपाल में जो बहुमंजिला इमारतें गिरीं वे या तो बहुत पुरानी थीं या उनमें उचित प्रक्रिया नहीं अपनाई गई थी। सरकार ने भी इन इमारतों को खतरनाक घोषित नहीं किया और वे लोगों की कब्रगाह बन गई।
लेकिन भारत में और भी बड़ी त्रासदी का इंतजार किया जा रहा है। वर्ष 1962 में ब्यूरो ऑफ इंडियन स्टेंडर्ड ने भूकंप रोधी भवन निर्माण डिजाइन के लिए मानक तैयार किए थे जिन्हें वर्ष 2005 में संशोधित किया। आज तक इन मानकों को लागू नहीं किया जा सका। जब वर्ष 2000 में गुजरात में भूकंप आया था। उस वक्त भी मौतें भूकंप से नहीं बल्कि इमारतों के निर्माण में खामियों की वजह से ज्यादा हुई थी। यही हाल महाराष्ट्र में भूकंप के समय हुआ। लोगों ने भारी भरकम पत्थरों को मिट्टी से जोड़कर घर बनाए थे। रातों-रात आए भूकंप से वे घर ही उनकी कब्र बन गए। 1993 में मात्र 6.4 तीव्रता वाले भूकंप ने महाराष्ट्र के लातूर जिले में 10 हजार लोगों की जान ले ली। 8 साल बाद गुजरात में भी ऐसा ही हुआ।
वर्ष 2006 में संयुक्त राष्ट्र ने भारत के गृह मंंत्रालय को एक रिपोर्ट सौंपी थी जिसमें बताया गया था कि भारत के 38 शहरों में से कोई भी शहर भूकंप के समय तबाह हो सकता है। खासकर हिमालय और उत्तर भारत के बहुत से शहर इस जोन में आते है। भारतीय उपमहाद्वीप उत्तर पूर्व एशिया की तरफ प्रतिवर्ष 5 सेंटीमीटर खसक रहा है। यह भूगर्भीय परिवर्तन दुनिया के सबसे खतरनाक भूकंपों की जननी है। वर्ष 2005 में पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर में ऐसे ही एक भूकंप ने 80 हजार जानें ले ली थी। इसी तरह वर्ष 2001 में भारत के गुजरात में 20 हजार मौतें हुई। वर्ष 2004 में हिंद महासागर की तलहटी में 9.3 रिचर पैमाने की तीव्रता वाला भूकंप आया जिसने भयानक सूनामी को जन्म दिया और 14 देशों में 2 लाख 30 हजार लोग मारे गए। लेकिन मौत का यह अंंतिम मंजर नहीं है। दिल्ली कभी भी दहल सकती है। श्रीनगर, गुवाहाटी, मुंबई, चेन्नई, कोलकाता सहित कई शहर भूकंप से दहल सकते हैं। मध्यप्रदेश में जबलपुर सबसे खतरनाक सीस्मिक जोन में है जहां मई 1997 में पहले भी भूकंप आ चुका है। कोलकाता में 1934 में जब भूकंप आया था और 8 हजार 100 जानें गई थी उस वक्त इस शहर की जनसंख्या 10 लाख के करीब थी। आज करोड़ से भी ऊपर है। तब महात्मा गांधी ने कहा था कि यह छुआछूत का दण्ड है। लेकिन आज ऐसा नहीं कहा जा सकता। इस दंड से बचने के लिए निर्माण के समय सभी मानकों का कड़ाई से पालन हो। बताया जाता है कि वर्ष 1950 में असम में जो भूकंप आया था। उसके फलस्वरूप जमीन के भीतर जो परिवर्तन हुए हैं उनसे आने वाले समय में कहीं ज्यादा भयावह भूकंप आ सकता है।
प्रश्न यह है कि सरकारें कब चेतेंगी। जो इमारतें उचित मानकों का पालन करके नहीं बनी हैं उन्हें कब जमींदोज किया जाएगा। मुंबई जैसे शहर में आए दिन इमारतें गिरती हैं। यदि यहां 4-4.5 तीव्रता का भूकंप आ गया तो नेपाल बराबर ही तबाही होगी। यही हाल दूसरे शहरों का है।
दर्द जो कभी नहीं मिटेगा
कभी भूकंप आता था, तो कहा जाता था कि शेषनाग करवट ले रहे हैं। लेकिन नेपाल के भूकंप से लगा कि शेषनाग ने करवट नहीं ली, बल्कि हिमालय की दृढ़ता ढह गई है। रिचर स्केल पर इसका पैमाना 7.9 था पर इसकी तबाही 83 वर्ष पूर्व आए 8.1 तीव्रता के भूकंप से कही भयानक था। जहां देखो वहां लाशों का अंबार। गांव के गांव जमीन में समा गए। काठमांडू शहर तो मीडिया की जानकारी में था इसलिए वहां की पल-पल की खबरें देश और दुनिया को मिल रही थीं लेकिन काठमांडू के आसपास गांव और कस्बे इस भूकंप के बाद जिस त्रासदी को भोग रहे हैं, वह अकथनीय है। उसे शब्दों में नहीं पिरोया जा सकता। मानवीय सहायता भी शहरों तक ही सीमित है। जो दूर-दराज के क्षेत्रों में हैं, वहां जीवन हैलीकॉप्टरों से गिरते भोजन के पैकेट और गंदे हो चुके जल-स्रोतों पर निर्भर है। मौत का सरकारी आंकड़ा 10 हजार के करीब जा पहुंचा है। लेकिन त्रासदी देखकर लगता है कि जब इस सदमें का पूर्ण आंकलन होगा, तो मौतें इससे कई गुना ज्यादा हो सकती हैं। शायद 50 हजार या उससे भी अधिक। क्योंकि भूकंप की त्रासदी कुछ घंटों नहीं बल्कि वर्षों चलती है और अगले भूकंप तक चलती रहती है। जो बच गए हैं, वे घरों में नहीं जा सकते। उन्हें भय है कि घर उनकी कब्र बन जाएगा। भूकंप के बाद भी नेपाल की धरती इन शब्दों को लिखे जाने तक 50 बार कांप चुकी थी। कभी कम तो कभी ज्यादा। हर एक कंपन लोगों के भय को बढ़ा रहा है। नेपाल के मूल निवासियों के अलावा भारत से नेपाल में जाकर बसे तमाम लोग तेजी से स्वदेश लौट रहे हैं। उन्हें अपने घर-बार और रोजी-रोटी की फिक्र नहीं है, बल्कि जान की फिक्र है। उन्हें यह विश्वास ही नहीं होता कि नेपाल की धरती फिर नहीं कांपेगी। अब वे भारत से नेपाल शायद ही जाएं। कम से कम कुछ वर्षों तक तो बिल्कुल नहीं। भूकंप का अध्ययन करने वाले वैज्ञानिक कहते हैं कि भूकंप की भविष्यवाणी असंभव है। पृथ्वी के गर्भ में क्या चल रहा है? यह जानने की तकनीक विज्ञान के पास नहीं है। लेकिन इतना अवश्य कहा जा सकता है कि नेपाल का यह अंतिम भूकंप नहीं है। बल्कि इससे भी कहीं अधिक विनाशकारी भूकंप आना बाकी है, जो शायद रिचर स्केल पर एक नया रिकॉर्ड ही बना डालें। क्योंकि हिमालय के नीचे भारतीय प्लेट यूरेशियन प्लेट के नीचे समा रही है। इसके फलस्वरूप यह वलय पर्वत प्रतिवर्ष 5 मिलीमीटर की दर से ऊपर उठ रहा है। हिमालय कमजोर भूमि है लेकिन यहां जिस तेजी से विकास गतिविधियां चल रही हैं, चीन हिमालय को खोखला करने में जुटा है, भारत में कई बांध हिमालय की नदियों को रोककर बनाए गए हैं। अनेक शहर इस हिमालय की छाती पर बड़ी-बड़ी इमारतों के साथ फल-फूल रहे हैं। इसी कारण हिमालय के लगभग सभी क्षेत्रों में भूकंप का खतरा तो बना हुआ है। इस खतरे को टाला नहीं जा सकता लेकिन इसकी भयावहता कम हो सकती है। जान-माल का नुकसान कम से कम हो, इसकी कोशिश की जा सकती है। 25 अपै्रल को वह भूकंप नेपाल में दिन-दहाड़े आया। कल्पना कीजिए कि यही भूकंप सुबह 4 बजे या देर रात आता, तो शायद इसकी भयावहता और दुखदायी होती। इसीलिए नेपाल जैसे क्षेत्रों मेें हल्के भूकंप रोधी मकान, इमारतें इत्यादि बनाने की आवश्यता है। जनता को यह बताना होगा कि क्या सही है और क्या गलत। किस तरह का निर्माण किया जाना चाहिए। किस तरह की निर्माण सामग्री होनी चाहिए। इन सब पर चर्चा करने की आवश्यकता है।
ईंटों और सीमेंट की नींव यहां नहीं बनाई जाती
जापान जिस भूभाग पर बसा है वो भूभाग धरती की सबसे अशांत टिक्टेनिक प्लेटों पर स्थित है। इन प्लेटों के बदलने के चलते जापान में समय समय पर भूकंप आते रहते हैं। इसलिए जापान में भूकंप की मॉनिटरिंग करने का सिस्टम काफी मजबूत और अपडेट है। जापान की मेट्रोलॉजिकल एजेंसी जापान को छह स्तरों लगातार और हर पल मॉनिटर करती रहती है। द?ुनिया में जापान एकमात्र देश है जहां प्राइमरी कक्षा में ही बच्चों को भूकंप और सुनामी से बचने की ट्रेनिंग दी जाती है। स्कूलों में बच्चों को भूकंप के समय किस तरह, कहां छिपना है और खुद को बचाना है, सिखाया जाता है। बच्चों को बताया जाता है कि अगर वो स्कूल में हैं तो भूकंप आने पर डेस्क के नीचे छिप जाएं। अगर वो घर या किसी ऊंची इमारत में हैं तो भूकंप आने पर सीढिय़ों से उतरते ह?ुए पार्क या मैदान में आ जाए। जापान जानता है कि भूकंप आने पर सबसे ज्यादा प्रभाव इमारत की नींव पर पड़ती है। नींव के हिलते ही इमारत के बाकी और ऊपरी हिस्से डगमगाकर गिर पड़ते हैं। इसी बात को ध्यान में रखते हुए जापान में भूकंप से बचने के? लिए स्प्रिंग बेस प्रणाली के तहत इमारतें तैयारी की जाती है जिससे भूकंप के बड़े झटके आने पर भी इमारत न गिरे। इसके अलावा गद्देदार? सिलेंडरों के बेस वाली नींव भी जापान में खूब प्रचलित है। इसके तहत रबर के सिलेंडरों और स्टील के स्प्रिंग वाले बेस पर इमारत खड़ी की जाती है। भूकंप आने पर ये रबर सिलेंडर वाली नींव खुद ही हिल डुल कर स्थिर हो जाती है और ऊपरी इमारत ज्यों की त्यों रहती है। ऊर्जा को सोख लेने वाली प्लास्टिक नींव भी जापान में इमारत बनाने के लिए काम आती है। प्लास्टिक मालफोरमेशन से बनी ये नींव धरती से ऊर्जा निकलते ही उसे अपने में समाहित कर लेती है और ऊपरी इमारत कंपन से बची रहती है। भूकंप से बचाने वाली इमारत बनाने के लिए ईंटों और सीमेंट की नींव यहां नहीं बनाई जाती।