04-May-2015 02:54 PM
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भारतीय गहरी खोज है कि परमात्मा के लिए सृष्टि का कोई काम नहीं है, कोई मतलब नहीं है, कोई प्रयोजन नहीं है सब खेल है। इसलिए हमने इसे लीला कहा है। लीला जैसा शब्द दुनिया में किसी भाषा

में नहीं है। क्योंकि लीला का अर्थ होता है कि सारी सृष्टि एक निष्प्रयोजन खेल है। इसमें कोई प्रयोजन नहीं है। लेकिन परमात्मा आनंदित हो रहा है, बस। जैसे सागर में लहरें उठ रही हैं, वृक्षों में फूल लग रहे हैं, आकाश में तारे चल रहे हैं, सुबह सूरज उग रहा है, सांझ तारों से आकाश भर जाता है। यह सब उसके होने का आनंद है। वह आनंदित है।
ला का एक अर्थ यह भी है कि वही है इस तरफ, वही है उस तरफ; दोनों बाजियां उसकी। हारेगा भी, तो भी वही; जीतेगा तो भी वही। फिर भी मजा ले रहा है। हाइड एंड सीक, खुद को छिपा रहा है और खुद को ही खोज रहा है। कोई प्रयोजन नहीं है।
इसी तरह अगर हम जिंदगी को एक काम समझते हैं, तो हमारी जिंदगी में एक बोझ होगा। और अगर जिंदगी को हम खेल यानी लीला समझते हैं, तो जिंदगी निर्बोझ हो जाएगी। धार्मिक आदमी वह है, जिसके लिए सभी कुछ खेल हो गया। और अधार्मिक आदमी वह है, जिसके लिए खेल भी खेल नहीं है, उसमें भी जब काम निकलता हो कुछ, तो ही। धार्मिक आदमी वह है, जिसके लिए सब लीला हो गई। उसे कोई अड़चन नहीं है कि ऐसा क्यों हो रहा है? ऐसा क्यों नहीं हो रहा है? यह बुरा आदमी क्यों है? यह भला आदमी क्यों है? निष्प्रयोजन लीला की दृष्टि से, वह जो बुरे में छिपा है, वह भी वही है। वह जो भले में छिपा है, वह भी वही है। रावण में भी वही है, राम में भी वही है। दोनों तरफ से वह दांव चल रहा है। और वह अकेला है। अस्तित्व अकेला है। इस अस्तित्व के बाहर कोई लक्ष्य नहीं है। इसलिए जो आदमी अपने जीवन में लक्ष्य छोड़ दे और वर्तमान के क्षण में ऐसा जीने लगे, जैसे खेल रहा है, वह आदमी यहीं और अभी परमात्मा का अनुभव करने में सफल हो जाता है। -ओशो
जब न्यूटन ने बताया ईश्वर के अस्तित्व का राज
यूं तो हर इंसान किसी न किसी रूप मे ईश्वर को मानता है। लेकिन बुद्धिवाद ने ईश्वर के अस्तित्व को प्रयोगशाला मे परखना चाहा। किन्तु यहां उसकी सत्ता सिद्ध न हो सकी। इन्द्रियशक्ति ने भी इस संदर्भ मे कुछ न किया। मस्तिष्क भी प्रमाण न खोज सका और यांत्रिकी-भौतिकी ने भी अपनी हार स्वीकार कर ली। ऐसी दशा में स्वाभाविक ही था की बुद्धिवाद ईश्वर के अस्तित्व को अस्वीकार करता। प्रकृति की क्रम व्यवस्था सुनियोजित है ऐसा तो माना गया पर उसे स्वसंचालित कहकर संतोष कर लिया गया। इसके लिए किसी सृष्टा का हाथ हो सकता है इस बात से शोधकर्ताओं ने इंकार कर दिया। नास्तिकवाद की प्रचंड लहर इसी वैज्ञानिक इंकारो से उत्पन्न हुई और आंधी-तूफ़ान की तरह बौद्धिक जगत पर अपना अधिकार जमाती गयी। पिछले दिनों ईश्वर की अस्वीकृति प्रगतिशीलता का चिन्ह बनकर उभरता रहा है। लेकिन विज्ञान ने कभी भी ईश्वर के अस्तित्व को नाकारा भी नहीं है। उसने केवल इतना ही कहा की अनुसंधान प्रक्रिया की पकड़ में ऐसी सत्ता नहीं आती। अब प्रश्न यह उठता है की चमत्कारों से भरी इस सृष्टि का संचालन सुसंबद्धतापूर्वक अनायास चल रहा है क्या? अणु से लेकर सौर मंडलों तक का छोटा बड़ा प्रत्येक घटक अपने निर्धारित कर्त्तव्य उत्तरदायित्व को तत्परता पूर्वक पूर्ण कर रहा है। एक के बाद एक प्रमाण इस स्तर के मिल रहे है जिनसे इस ब्रह्माण्ड में एक व्यापक चेतन तत्व का समुद्र भरा हुआ सिद्ध होता है। तो फिर ईश्वर है क्या, इसके लिए प्रसिद्घ वैज्ञानिक न्यूटन के एक संवाद को यहां जानना जरूरी है। एक बार उनके किसी मित्र ने उनसे पूछा आप वैज्ञानिक होकर भी ईश्वर की उपासना करते हो, जब की कई वैज्ञानिक तो ईश्वर के अस्तित्व को ही संदिग्ध बताते है इसलिए आप अधिक प्रामाणिक ढंग से ईश्वर क्या है यह बता सकते है। तब न्यूटन ने गंभीरता पूर्वक उत्तर दिया। हमारा मस्तिष्क ज्ञान की खोज में जहा पहुंचता है वहीं उसे शाश्वत चेतना का ज्ञान होता है। कण-कण में जो ज्ञान की अनुभूति भरी पड़ी है वह परमात्मा का ही स्वरुप है। ज्ञान की ही शक्ति से संसार का नियंत्रण होता है। परमात्मा इसी रूप में सर्वशक्तिमान है। ईश्वर की सत्ता दृश्य जगत का प्राण है उनके बिना इतना व्यवस्थित विश्व संभव नहीं हो सकता था।
-आचार्य श्रीराम शर्मा