21-May-2015 03:17 PM
1234816

उत्तरप्रदेश में चुनाव भले ही 2017 में हों लेकिन सियसी घमासान तो अभी से प्रारंभ हो गया है। नरेंद्र मोदी के अयोध्या में विवादित राम मंदिर जाने की अटकलों से अब इस आशंका को बल मिला है कि कहीं लोकसभा चुनाव की तरह विधानसभा चुनाव के दौरान भी हिंदू बनाम मुस्लिम मतों का विभाजन तो नहीं हो जाएगा। आजम खान ने जिस तरह विभाजन के बाद भारत में रहने वाले मुसलमानों के लिए पश्चाताप व्यक्त किया है, उससे तो यही लग रहा है कि समाजवादी पार्टी और भाजपा मिलकर इन चुनावों को हिंदू बनाम मुस्लिम के स्तर पर ले आएंगे। ज्ञात रहे कि कुछ समय पूर्व आजम खान ने मुसलमानों का आव्हान किया था कि वे आरएसएस को चकनाचूर कर दें। आरएसएस को नष्ट करने के आव्हान को तो सियासी कहा जा सकता है और भी कई पार्टियां अतीत में इस तरह से बोल चुकी हैं। लेकिन जब आजम खान ने भारत में रहने के मुसलमानों के फैसले पर पश्चाताप व्यक्त किया, तो यह साफ हो गया कि अब समाजवादी पार्टी अपने पुराने समीकरण पर लौटने वाली है- यादव-मुस्लिम समीकरण। आजम खान और सपा को यह लगता है कि हिंदुओं को कितना भी गरियाओ यादवों का खून नहीं खौलेगा क्योंकि यादवों और मुस्लिमों का समीकरण अटूट है। इसीलिए समाजवादी पार्टी ने जमकर मुस्लिम तुष्टिकरण प्रारंभ कर दिया है। कई कुख्यात मुस्लिम अपराधियों को जेल से छुड़ाने के लिए अखिलेश यादव सरकार पुरजोर कोशिश कर रही है। मुस्लिमों के लिए कुछ विशेष योजनाएं भी प्रारंभ की गई हैं। उधर दूसरे छोर पर भाजपा हिंदुओं को लुभाने के लिए तरह-तरह के हथकंडे अपना रही है। नरेंद्र मोदी की संभावित राम मंदिर यात्रा इसी हथकंडे का एक रूपक है। लेकिन जानकार मानते हैं कि मोदी शायद ही राम मंदिर जाना पसंद करें। क्योंकि हिंदू वादी ताकतों ने उनकी पर्याप्त बदनामी करवा दी है, अब वे विवादों से दूर रहना चाहते हैं। पर राजनाथ सिंह का कहना है कि हिंदू होने के नाते नरेंद्र मोदी को किसी भी मंदिर में जाने का हक है लिहाजा वे अयोध्या में राम मंदिर भी जा सकते हैं। लेकिन भाजपा सरकार राम मंदिर बनवा सकती है? यह सवाल जरा टेढ़ा है। राजनाथ सिंह का कहना है कि भाजपा को राज्यसभा में बहुमत नहीं है इसलिए इस मुद्दे को संसद में नहीं लाया जा सकता। इस पर किसी ने सवाल दागा कि राज्यसभा में बहुमत आ गया, तो क्या मंंदिर बनाने के लिए बिल संसद में लाया जाएगा। इस सवाल पर राजनाथ सिंह कन्नी काट गए। लेकिन राजनाथ सिंह ने भले ही मंदिर मुद्दे से किनारा कर लिया हो, पर यूपी में चुनाव नजदीक आते-आते सांप्रदायिक धु्रवीकरण की पूरी कोशिश की जाएगी। इसका कारण यह है कि पिछड़ा वर्ग के कुछ एक मतदाताओं को छोड़ दिया जाए तो उत्तरप्रदेश में भाजपा का वोट बैंक कहीं नहीं है। दलितों के बीच मायावती लोकप्रिय हैं। यादवों और मुस्लिमों के वोट बैंक पर समाजवादी पार्टी का कब्जा है। राजपूतों और ब्राह्मणों के बीच कांग्रेस ज्यादा लोकप्रिय है। इसके बाद जो बचता है, उस पर बाकी छोटे-मोटे दलों की नजर रहती है। ऐसी स्थिति में भाजपा एक अस्थायी वोट बैंक के सहारे है, जो लहर चलने पर ही भाजपा को यूपी में ज्यादा मत दिलवाता है। मोदी लहर में भाजपा ने विपक्षियों का सफाया कर दिया था। उससे पहले राम लहर में भी भाजपा ने यूपी जीती थी। लेकिन अब कोई लहर तो है नहीं। उपचुनाव के नतीजों से पता चल रहा है कि समाजवादी पार्टी की पकड़ मजबूत है। जातिगत राजनीति में महारथ हासिल करने वाली सपा और बसपा आज भी उत्तरप्रदेश में मुख्य ताकत हैं। इसीलिए चुनाव तक माहौल सांप्रदायिक ही बना रहेगा। आजम खान, आदित्यनाथ, वरुण गांधी आदि की तैनाती इसी के मद्देनजर की गई है। लेकिन आजम खान जिस तरह से आक्रामकता दिखा रहे हैं, वह समाजवादी पार्टी को भारी भी पड़ सकती है। यदि आजम खान ज्यादा मुखर हुए तो उत्तरप्रदेश में हिंदू बनाम मुस्लिम समीकरण यादव मुस्लिम समीकरण को ध्वस्त कर डालेगा और यह घाटे का सौदा साबित होगा।
इसीलिए समाजवादी पार्टी आजम खान को थोड़ा बैलेंस करना चाहती है। बैलेंसिंग की यह शुरुआत अमर सिंह की वापसी के साथ हो सकती है जो राजपूत और ब्राह्मण वोटों पर अच्छी पकड़ रखते हैं। सपा सुप्रीमो मुलायम सिंह यादव और मुख्यमंत्री अखिलेश यादव से अमर सिंह की बार-बार की मुलाकात, उनकी बातों में झलकता अपनापन और विरोधी नेताओं के प्रति नरम रवैया कम से कम यही संकेत दे रहा है। समाजवादी पार्टी के राष्ट्रीय महासचिव राम गोपाल यादव के भारी विरोध के चलते समाजवादी पार्टी से बाहर जाने वाले अमर सिंह के नाम की इस बीच अचानक तब चर्चा शुरू हुई जब वह सपा मुखिया मुलायम सिंह यादव और उनके बेटे अखिलेश यादव से पिछले महीने मिले। इस मुलाकात पर अमर सिंह ने यही सफाई दी थी कि मुलायम सिंह उनके भाई हैं और अखिलेश भतीजे, इसलिए इसे सियासी चश्मे से नहीं देखा जाना चाहिए। पर, बदले समीकरणों में अमर सिंह मुलायम व अखिलेश से मिलें, यह गैरसियासी मसला होगा, माना नहीं जा सकता। अमर सिंह की सपा में वापसी की चर्चाओं के बीच शिवपाल सिंह यादव ने दो दिन पहले यह कहकर कयासों को बल दे दिया कि अमर सिंह पार्टी में कब आ रहे हैं, वह खुद प्रेस कॉन्फे्रंस करके इसकी जानकारी देंगे। जानकार सूत्रों का कहना है कि अमर सिंह के सपा में आने की चर्चा अबकी बार निराधार नहीं है। उसके पीछे पुख्ता तर्क हैं। सपा में उनका प्रवेश तब हुआ था, जब गैरकांग्रेस और गैरभाजपा दलों ने मिलकर केंद्र में सरकार बनाई थी।
दिल्ली समेत दूसरे राज्यों में दूसरी पार्टी के नेताओं से बात करने और उनसे सामंजस्य बनाने के लिए मुलायम सिंह यादव को एक ऐसे सियासी आदमी की जरूरत है, जिसकी कमी फिलहाल अमर सिंह से ही पूरी हो सकती है क्योंकि उनके पास अब न तो जनेश्वर मिश्र जैसा धुरंधर चेहरा है और न ही बाबू कपिलदेव सिंह जैसा रणनीतिकार। ऐसे में एचडी देवेगौड़ा, शरद यादव, लालू यादव, नीतीश कुमार, चौटाला आदि नेताओं से नियमित मेल मुलाकात और सपा के फायदे की रणनीति तैयार करने में अमर सिंह से बेहतर नेता शायद कोई और नहीं होगा। मुलायम सिंह के चचेरे भाई रामगोपाल यादव वैसे भी नए गठबंधन और पार्टी विलय के हामी नहीं बताए जा रहे हैं और वैसे भी रामगोपाल यादव अमर सिंह का विकल्प नहीं हो सकते। तब मुलायम सिंह यादव को एक भरोसेमंद कूटनीतिक व्यक्ति की जरूरत ही अमर सिंह की पुनर्वापसी का रास्ता तैयार कर रही है। वैसे समाजवादी पार्टी में अमर सिंह के विरोधियों की संख्या भी पहले के मुकाबले कुछ कम हुई है। खुले तौर पर न सही, लेकिन जनेश्वर मिश्र कूटनीतिक तरीके से अमर सिंह के विरोधी रहे हैं। कपिलदेव सिंह, बेनी प्रसाद वर्मा, राज बब्बर भी उनके विरोधी थे, लेकिन अब यह सब पार्टी का अतीत बन चुके हैं। मौजूदा समय में आजम खां और रामगोपाल यादव ही सपा में अमर सिंह के विरोधी खेमे के माने जाते हैं, लेकिन वक्त के आगे सब बदलते हैं।
भाजपा का समरसता अभियान
केवल सांप्रदायिक धु्रवीकरण ही नहीं बल्कि और भी कई रास्ते हैं जिनपर चलकर भाजपा हिंदुओं की सर्वमान्य पार्टी बनने का ख्वाब देख रही है। भाजपा को पर्दे के पीछे से समर्थन करने वाले समस्त हिंदूवादी संगठन यह जानते हैं कि भाजपा हिंदुओं की सर्वमान्य पार्टी तभी बन सकती है जब हिंदू-हिंदू का भेदभाव कम से कम हो या पूरी तरह खत्म हो जाए। इसीलिए संघ परिवार ने सामाजिक समरसता के लिए अनेक कदम उठाए हैं। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ परिवार के संगठनों में दलितों-पिछड़ों को जोडऩे की छटपटाहट बढ़ती जा रही है। भाजपा तो राजनीतिक दल ही है। इसलिए उसकी तरफ से तो वोटों की गणित दुरुस्त करने के लिए इनको जोडऩे के लिए अलग काम चल ही रहा है। पर, विश्व हिंदू परिषद सहित कुछ अन्य संगठनों ने भी दलितों-पिछड़ों को जोडऩे के कार्यक्रम तय किए हैं। विहिप ने नारा ही दे दिया है, एक हो कुआं, मंदिर व श्मशान, हिंदुओं की हो यह पहचान।Ó इसी के साथ पूरे देश में डॉ. अंबेडकर सहित दलित व पिछड़े वर्ग के अन्य महापुरुषों के सम्मान में कार्यक्रम करने का भी फैसला किया गया है। विहिप ने संघ के साथ मिलकर पूरे देश में हिंदुओं का समूह बनाने की योजना बनाई है। इनका नाम हिंदू परिवार मित्रÓ दिया गया है। इस अभियान का मकसद सभी हिंदुओं को एकजुट करना है ताकि सभी जाति के हिंदू एक साथ भोजन करें, रोजमर्रा की जिंदगी में एक-दूसरे के सुख-दुख में भागीदार बने। जिससे देश छुआछूत मुक्त बन सके। पूरे देश में कम से कम एक लाख हिंदू परिवार मित्रÓ समूह गठित करने का लक्ष्य रखा गया है। यह समूह हिंदुओं के बीच छुआछूत को खत्म करने के लिए काम करेंगे। कोशिश करेंगे कि गांव में हिंदू समाज की किसी जाति की किसी मंदिर में जाने पर, किसी कुआं या नल से पानी लेने पर रोक न हो। महीने में कम से कम एक बार यह समूह अपने-अपने स्थानों पर सामूहिक भोज का आयोजन करे, जिसमें हिंदू समाज के सभी लोग बिना किसी भेदभाव के एक साथ बैठकर भोजन करें। गांवों में भी हिंदुओं का एक श्मशान हो। जिस पर सभी जातियों के लोगों का अंतिम संस्कार हो। इन संगठनों के अलावा संघ से जुड़े सामाजिक समरसता मंच, सेवा विभाग, मठ-मंदिर विभाग भी अलग-अलग तरीके से दलितों व पिछड़ों को जोडऩे की कवायद में जुटे हैं। छुआछूत मुक्त हिंदू समाज बनाने के लिए आचार्यों की मदद से समरसता यज्ञों की योजना बनाई गई है। इसके तहत संगठन के लोग गांवों में सभी को बुलाकर हवन-पूजन कराएंगे। पिछले वर्ष यहां हुए राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की केंद्रीय कार्यकारी मंडल की बैठक में दलित व पिछड़ी जातियों के बीच संघ की पकड़ व पहुंच कमजोर होने पर चिंता जताई गई थी। यह भी स्वीकार किया गया था कि इन जातियों में पकड़ व पहुंच बढ़ाए बगैर संगठन की पकड़ व पहुंच मजबूत नहीं रहने वाली। माना जाता है कि उसी के चलते संघ परिवार के संगठनों ने अलग-अलग तरीके से दलितों व पिछड़ों को जोडऩे की योजना बनाई है। कुछ का यह भी कहना है कि भले ही संघ अपने फैसलों के पीछे कोई राजनीतिक वजह न होने का तर्क देता हो लेकिन इस कवायद के पीछे कहीं न कहीं 2017 के चुनाव की भी गणित है।