18-May-2015 02:58 PM
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महिला एवं बाल विकास विभाग के जिम्मेदार अधिकारियों ने पहले तो पदोन्नति देने के मामले में नियम विरुद्ध घालमेल किया और जब इसकी जानकारी मध्यप्रदेश विधानसभा ने मांगी तो गलत जानकारी देकर विधानसभा को गुमराह करने की कोशिश की गई। मामला महिला एवं बाल विकास विभाग में पोषण आहार निरीक्षक के पद पर नियुक्तियों के दौरान आरक्षण नियमों के रोस्टर के उल्लंघन से जुड़ा हुआ है। इसमें ब्रिजेश कविश्वर का संविलियन नियम विरुद्ध किया गया। इसके अलावा वर्ष 1999 में उप संचालक से संयुक्त संचालक पद पर हुई पदोन्नति में अनियमितता का प्रकरण भी सामने आया था। जिसमें रविन्द्र रघुवंशी और प्रज्ञा अवस्थी को अनुचित पदोन्नति देकर उनसे वरिष्ठ सीमा ठाकुर, राजपाल कौर एवं सुरेश सिंंह तोमर को पदोन्नति से वंचित करने का मामला था।
बृजेश कविश्वर के मामले में वर्ष 2006 में डॉ. ढाल सिंह बिसेन ने विधानसभा में पत्र क्रमांक 1888 (सत्र अक्टूबर-नवंबर) के तहत महिला एवं बाल विकास विभाग से जानना चाहा था कि बृजेश कविश्वर का जिस पद पर संविलियन किया गया है। रोस्टर के अनुसार वह किस जाति/वर्ग के लिए आरक्षित है एवं जिस अधिकारी का संविलियन किया गया है उसकी जाति अथवा वर्ग क्या है। नियमानुसार इस सीधे-साधे प्रश्न का सीधा-साधा उत्तर विभाग द्वारा दिया जाना था किंतु विभाग ने अधूरा उत्तर दिया और उत्तर में अन्य अवांछनीय जानकारी देकर विधानसभा को गुमराह किया जिसके कारण यह प्रकरण विशेषाधिकार भंग का भी बनाया गया। लेकिन मामला यहीं नहीं रुका बृजेश कविश्वर के संविलियन से संबंधित एक अन्य प्रश्न क्रमांक 5792 वर्ष 2011 के फरवरी, अप्रैल विधानसभा सत्र में पुन: पूछा गया। जिसके संबंध में तत्कालीन महिला एवं बाल विकास मंत्री रंजना बघेल ने माना था कि इस प्रकरण में त्रुटि हुई है फिर भी गलत जानकारी दी गई है। उक्त जानकारी का अवलोकन करने से ये साफ ज्ञात होता है कि कविश्वर के संविलियन प्रकरण में विधानसभा को न केवल गुमराह किया गया बल्कि आरक्षण अधिनियम 1994 की धारा 3 की गलत तरीके से व्याख्या कर उसका उल्लंघन भी किया गया। इस मामले में महिला एवं बाल विकास के तत्कालीन आयुुक्त एस.आर. मोहंंती द्वारा अनियमितता करने पर उनके खिलाफ कार्यवाही की अनुशंसा की गई है।
विधानसभा को गुमराह करना और नियुक्तियों और पदोन्नतियों में सरकारी नियमों की धज्जियां उड़ाते हुए अपने चहेतों को उपकृत करना और योग्य कर्मचारियों की उपेक्षा करना कुछ जिम्मेदार अधिकारी का शगल बन गया है। बृजेश कविश्वर के संविलियन के मामले में भी ऐसा ही किया गया। स्थानांतरण द्वारा या प्रतिनियुक्ति पर नियुक्तियों में रोस्टर लागू ही नहीं होता है। लेकिन यहां सारा घालमेल किया गया। कविश्वर से संबंधित प्रकरण को गौर से देखने पर पता चलता है कि वर्ष 1998 में सितंबर माह में मध्यप्रदेश प्रशासनिक ट्रिब्यूनल ने ये निर्देश दिया था कि संविलियन प्रकरणों के समान ही कविश्वर के प्रकरण में भी सहानुभूतिपूर्वक विचार किया जाना चाहिए। किंतु अधिकारियों ने जान बूझकर आरक्षण अधिनियम 1994 एवं मध्यप्रदेश लोक सेवा नियम 1998 के अंतर्गत बनाए गए नियमों का उल्लंघन किया।
नियम 1998 के नियम 5 के अनुसार नियुक्ति/पदोन्नति के आदेश में प्रमाणीकरण का प्रावधान है जिसके अनुसार नियुक्ति प्राधिकारी द्वारा प्रत्येक नियुक्ति आदेश के नीचे यह प्रमाणित किया जाना आवश्यक किया गया है कि पद के संबंध में म.प्र लोक सेवा (अनुसूचित जातियों अनुसूचित जनजातियों और अन्य पिछड़ा वर्गों के लिए आरक्षण) अधिनियम 1994 के उपबंधों और इसके अधीन बनाये गये नियमों का अनुपालन किया गया है। उक्त प्रावधान के अंतर्गत कविश्वर के प्रकरण में जारी संविलियन आदेश में प्रमाणीकरण नहीं किया गया है इस प्रकार ऊपर वर्णित स्थिति में नियम का उल्लंघन है। जब किसी व्यक्ति का प्रतिनियुक्ति पर रहते हुए उसका संविलियन किया जाता है, तो वह उस विभाग में सीधी भरती के कोटे में उपलब्ध पदों के विरुद्ध नियुक्ति मानी जाती है, तो वह उस विभाग के लिए भर्ती नियमों के अनुसार समस्त आवश्यक शर्तों का पालन नियुक्ति कर्ता अधिकारी द्वारा सुनिश्चित किया जाना आवश्यक होता है, जिसमें म. प्र. लोक सेवा (अनुुसूचित जाति, अनुसूचित जनजातियों एवं अन्य पिछड़ा वर्गों के लिए आरक्षण) अधिनियम 1994 के प्रावधानों का तथा उसके अंतर्गत बनाये बये नियम 1994 जिसमें 100 बिन्दु रोस्टर बनाया गया है का पालन किया जाना आवश्यक होता है। इन नियमों के अनुसार आरक्षित प्रवर्ग के लिए उपलब्ध पद के विरुद्ध अनारक्षित प्रवर्ग के व्यक्ति की नियुक्ति संविलियन नहीं किया जा सकता। जिस पद पर किया गया है वह अनुसूचित जनजाति के लिए आरक्षित था। अत: उक्त पद पर किया गया संविलियन विधि विरुद्ध है तथा आरक्षण अधिनियम का उल्लंघन है। मामला केवल इसी नियुक्ति का नहीं हैै। महिला एवं बाल विकास विभाग में पदोन्नति के समय अनियमितताओं का यह पहला मामला नहीं है। किंतु सीमा ठाकुर, तोमर व राजपाल कौर के पदोन्नत होने पर तत्समय (वर्ष 1999 में) उपलब्ध कुल 5 पदों से अधिक पदोन्नत 8 संयुक्त संचालकों में से 3 कनिष्ठ संयुक्त संचालकों रविन्द्र रघुवंशी, सुरेश सिंह तोमर डी.पी.सी. की अनुशंसा को दरकिनार करते हुए इन कनिष्ठ 3 संयुक्त संचालकों को आज तक पदावतन नहीं किया गया है। इसी प्रकार बी.एल. प्रजापति के मामले में मान. उच्च न्यायालय, जबलपुर के आदेशानुसार वर्ष 2008 में पदोन्नति में हुई गड़बड़ी को सुधारते हुये माह अक्टूबर 2013 में की गयी रिव्यू डी.पी.सी. की अनुशंसा को दरकिनार करते हुए विभागीय मंत्री के अनुमोदन/आदेश के बावजूद राजेश मेहरा एवं राजेश प्रताप सिंह संयुक्त संचालकों को अभी तक पदावनत नहीं किया गया। 3 कनिष्ट संयुक्त संचालकों (रविन्द्र रघुवंशी, सुरेश सिंह तोमर और प्रज्ञा अवस्थी) की अवैध पदोन्नति को सुरक्षित व वर्ष 1999 से प्रभावशील रखकर उन्हें 14 वर्षों की अनुचित वरिष्ठता भी दी जा रही है।
विभाग उक्त अधिकारियों का पदावनत नहीं कर रहा, बल्कि उक्त अधिकारियों को विशेष लाभ देकर उनकी अनुचित/अवैध वरिष्ठता को बचाकर उन्हें अनुचित/अवैध पदोन्नति देने के लिये पदोन्नति की कार्यवाही करने जा रहा है।
विभाग में स्वीकृत संख्या से अधिक पदों पर कनिष्ठ अधिकारियों को अवैध पदोन्नतियां देकर, अवैध पदोन्नत अधिकारियों का शासन के नियम-निर्देशों के अनुसार पदावनत न कर, पदावनति रोक कर 14 वर्षों की पुरानी वरिष्ठता देकर, कुछ विशेष अधिकारियों को बार-बार अवैध पदोन्नति देकर भ्रष्टाचार किया जा रहा है और विभाग के पात्र अधिकारियों को पदोन्नति और वरिष्ठता से बार-बार वंचित किया जा रहा है।
कोर्ट के नियमों की धज्जियां उड़ाते हुए विभाग में गड़बड़ी का सिलसिला जारी है, हाईकोर्ट के आदेश में वर्ष 99 की डीपीसी को रिव्यू करने को कहा गया था। आदेश में स्पष्ट उल्लेख किया गया था कि नियम विरुद्ध किए गए प्रमोशन को रिवर्ट किया जाए। अफसरों ने अगस्त 2014 में रिव्यू डीपीसी की, लेकिन बजाए संबंधितों को रिवर्ट करने के उनको विशेष लाभ देते हुए उनकी अनुचित पदोन्नति और वरिष्ठता को बचाने के लिए 15 वर्ष पुरानी तारीखों से सांख्येतर पदों (स्वीकृत पदों के अलावा दर्शाए गए पद) का निर्माण कराने के लिए कैबिनेट मेें प्रस्ताव भेजने की तैयारी कर ली है। विभाग ने सांख्येतर पद घोषित करने के लिए जब वित्त विभाग से अनुमति लेने को प्रस्ताव भेजा, तो वित्त विभाग ने भी इससे इंकार कर दिया। यहां तक कि विभाग द्वारा तीन बार भेजी गई फाइल को वापस लौटा दिया।
हाईकोर्ट के आदेश के बावजूद विभाग ने फिर घालमेल किया और आपत्ति दर्ज कराने वाली सीमा ठाकुर, राजपाल कौर क साथ एक अन्य उपसंचालक सुरेश सिंह तोमर को 1999 से प्रमोशन दे दिया। इनमें से डॉ. संध्या व्यास को फिर छोड़ दिया गया। डॉ. संध्या ने फिर कोर्ट में याचिका लगाई है।
पूर्व प्रमुख सचिव बीआर नायडू ने भी इस मामले की स्टडी करके, कोर्ट के आदेशानुसार इन तीनों को रिवार्ड करने की टीप लिखी थी। हालांकि इसके तुरंत बाद उनका तबादला हो जाने से मामला फिर ठंडे बस्ते में चला गया।
विज्ञापनों में नहीं दिखेंगे मंत्री, सीएम
सुप्रीम कोर्ट ने सरकारी विज्ञापनों में प्रधानमंत्री, राष्ट्रपति और मुख्य न्यायाधीश के अतिरिक्त किसी अन्य की फोटो देने से साफ इनकार कर दिया है। इस संबंध में विज्ञापनों के नियमन के लिए सरकार से तीन सदस्यीय कमेटी बनाने को भी कहा है। यह निर्णय तत्काल प्रभाव से लागू हो गया है। कोर्ट का कहना है कि राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री के अतिरिक्त महात्मा गांधी जैसे राष्ट्रीय नेताओं की फोटो भी लगाई जा सकती है।
दरअसल सरकारी विज्ञापनों को सत्तासीन सरकारों ने मंत्रियों, मुख्यमंत्रियों और अपने लीडरों की इमेज बनाने के लिए प्रयुक्त करना शुरू कर दिया था। यूपीए सरकार के समय तो धड़ल्ले से ऐसे विज्ञापन निकाले गए जिनमें सोनिया गांधी, मनमोहन सिंह के साथ बराबरी से दिखाई दीं। राज्य सरकारों ने भी मंत्रियों, मुख्यमंत्रियों के होर्र्डिंग्स और विज्ञापन भरपूर प्रकाशित करवाए। आज भी देश के सभी शहरों में राज्यों के मुख्यमंत्रियों के विज्ञापन वाले बड़े-बड़े होर्डिंग्स देखे जा सकते हैं। प्राय: सभी शहरों में इस तरह की ब्रांडिंग की जा रही है। जिसका असर चुनाव पर भी पड़ता है। खासकर चुनावी वर्ष में सरकारें कुछ ज्यादा ही ब्रांडिंग करती नजर आती है। अब सुप्रीम कोर्ट के फैसले से एनडीए सरकार को अपनी योजनाओं के प्रचार-प्रसार के लिए प्रधानमंत्री के चेहरे पर ही निर्भर रहना होगा। राज्य सरकारों के लिए तो यह निर्णय मुसीबत भरा हो सकता है। इससे सरकारी खर्च पर सत्तासीन दलों की ब्रांडिंग रुक जाएगी और जनता के पैसे का दुरूपयोग नहीं हो सकेगा।
दरअसल कुछ समय पूर्व सरकारी विज्ञापनों में पब्लिक मनी के दुरुपयोग को रोकने के लिए याचिका दायर की गई थी। याचिका में कहा गया है कि सरकार चला रही पार्टियां सरकारी विज्ञापनों के जरिए राजनीतिक लाभ लेती हैं। इसलिए विज्ञापनों की सामग्री पर नियंत्रण के लिए व्यवस्था बनाई जानी चाहिए। इस मामले में सुप्रीम कोर्ट द्वारा नियुक्त कमेटी ने गाइडलाइन्स कोर्ट में पेश की थी। गाइडलाइन्स के मुताबिक, सरकारी विज्ञापनों में न तो पार्टी का नाम, न पार्टी का सिंबल या लोगो, न पार्टी का झंडा और न ही पार्टी के किसी नेता का फोटो होना चाहिए। हालांकि, केंद्र सरकार ने इसका विरोध किया था। सरकार के मुताबिक, यह मामला ज्युडिशियल दायरे में नहीं है, क्योंकि चुने गए प्रतिनिधि इसके लिए संसद के प्रति जवाबदेह हैं। केंद्र सरकार का कहना था कि कोर्ट यह कैसे तय कर सकती है कि किसी विशेष विज्ञापन का जारी होना राजनीतिक फायदे के लिए है।