20-Apr-2015 06:29 AM
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Ghetto या Promised Land
Ghetto
- 19वीं शताब्दी के अंत तक यूरोपीय कस्बों, शहरों, गांवों के बाहर यहूदियों की बस्ती रहती थी। जिसे Ghetto कहा जाता था।
Promised Land
- बाईबिल में इसका 170 बार उल्लेख आया है। यह वह भूमि है जो अब्राहम के वंशजों को ईश्वर ने दी थी। वर्तमान में जहां इजराइल है उसे Promised Land कहा जाता है। अब्राहम के प्रपौत्र का एक नाम इजराइल भी है।
1990 की एक सर्द रात, श्रीनगर के बाहरी इलाकों में मस्जिदों से मधुर आवाज मेें आती अजानों को सुनने के आदी कश्मीरी पंडितों के कान में अचानक मस्जिद के लाउड स्पीकर से अजान की जगह कुछ और सुनाई पडऩे लगा। श्रीनगर के एक संभ्रांत इलाके में अपने तिमंजिला मकान में रहने वाली सुचीता काक उनके माता-पिता और दोनों जवान बहनें मस्जिद से आती उन चेतावनी भरी आवाजों से सहम गईं। उन आवाजों में कश्मीरी पंडितों, गैर-मुस्लिमों को सख्त चेतावनी थी, कि चौबीस घंटे के भीतर घाटी से भाग जाएं या फिर मौत का सामना करने को तैयार रहें। आवाजें भयंकर थीं। चेतावनी स्पष्ट थी। जिन लाउड स्पीकरों से अल्लाह-हू-अकबर की मधुर ध्वनि निकलती थी, वहां से पंडितों के खिलाफ जहर उगला जा रहा था, मस्जिद जैसी पवित्र जगह से माँ-बहनों की इज्जत लूटने की चेतावनी दी जा रही थी। वह एक सिहरनभरी रात थी। वन विभाग में ऊंचे पद पर काम कर रहे, किताबें पढऩे-लिखने के शौकीन शांतनु धर उस रात संयोग से रूशह्यद्गह्य द्यद्गस्र ह्लद्धद्ग श्व3शस्रह्वह्य शह्वह्ल शद्घ श्वद्द4श्चह्ल. (ष्ठद्गह्वह्लद्गह्म्शठ्ठशद्व4 १:८) का अध्ययन कर रहे थे। उन्हें यह मालूम नहीं था कि श्व3शस्रह्वह्य शह्वह्ल शद्घ 1ड्डद्यद्य4 कुछ क्षणों में ही शुरू होने वाला है। सुचीता के मामा अपनी मारुति वैन लेकर आनन-फानन में सुचीता के घर पहुंचे। उन्हें नौजवान सुचीता और उनकी तीन बहनों की फिक्र थी। सुचीता की माँ और पिता जाने के लिए तैयार नहीं थे। दोनों अच्छी-खासी नौकरी में थे। श्रीनगर जैसे शहर में तीन मंजिला मकान था। राजसी रहन-सहन था। थोड़ी दहशत तो थी फिर भी उन्हें लगता था कि आस-पड़ोस के मुसलमान रहम दिल हैं। वे कोई अनहोनी नहीं होने देंगे। लेकिन सुचीता के मामा जानते थे कि क्या होने वाला है। उन्हें मौत सामने दिख रही थी मौत का भय नहीं था, भय था उन तीन जवान बेटियों की इज्जत लुट जाने का। आनन-फानन में जाने की तैयारी की गई। माँ ने बेटियों की शादी के लिए कपड़े खरीद रखे थे। गहने, सामान, पश्मीना की शॉल से लेकर न जाने कितना कुछ कीमती था। माँ का दिल नहीं चाह रहा था। जिस मकान में पुश्तें गुजरीं, जहां सुख-दुख देखा, जीवन के कई बसंत देखे, कश्मीर की खूबसूरती को दिन-रात निहारा, वहां से अचानक अब जाना पड़ेगा। तीनों बहनों, माँ और पिता की आंखों से आंसू रुक नहीं रहे थे। लेकिन मस्जिद से आती वे आवाजें रह-रह कर गरज रही थीं, भयानक होती जा रही थीं। आखिरकार देर रात तीनों बेटियों के कपड़े जरूरी सामान, नगद पैसे और गहने जितना कुछ हो सकता था वह सब लपेटकर सुचीता और उसका परिवार रातों-रात घाटी से नीचे जम्मू में उतर आया। तीन मंजिला मकान से सीधे डाक बंगले के एक कमरे में। डाक बंगला भी इसलिए मिला क्योंकि सुचीता के माता-पिता ऊंचे पद पर थे, स्वयं सुचीता अच्छे जॉब में थी। उन्होंने श्रीनगर के कॉलेज से इंजीनियरिंग की थी। उन्हें नहीं मालूम था कि जिस कश्मीर में स्कूलिंग से लेकर कॉलेज तक की पढ़ाई की, उस कश्मीर में वापस जाना अब शायद संभव न हो। न ही सौरभ रैना के चाचा यह जानते थे जिन्होंने जम्मू में ही कश्मीर घाटी से रातो-रात आकर एक झुग्गी बनाई थी। आरामदायक घर से सीधे झुग्गी में पहुंचने वाले वे अकेले नहीं थे। जम्मू में पंडितों के कैंप जो असल में झुग्गी झोपड़ी से भी बदतर थे। कुछ और कहानी कह रहे थे। शांतनु जैसे कुछ लोग दिल्ली गए लेकिन वहां भी माहौल वैसा ही था, उन्हें झुग्गीनुमा कैंप में ठहरा दिया गया। कुछ के नरम दिल रिश्तेदारों और मित्रों ने उन्हें अपने यहां पनाह दी। जो थोड़े सम्पन्न थे वे नया रास्ता बनाने के लिए निकल पड़े। आंसुओं के सैलाब के बीच मंजिल की तलाश सबको थी।
उस पूरे वर्ष भर बल्कि लगातार वर्षों तक कश्मीर से पलायन करने वाले पंडितों और अन्य गैर-मुस्लिमों की कहानी लगभग एक सी ही है। जाने अचानक क्या हुआ कि कश्मीर का मुसलमान अपने ही प्रदेश के निवासी गैर-मुस्लिमों और खासकर पंडितों के खून का प्यासा हो गया। अपने ही पूर्वजों के वंशजों के प्रति कश्मीर के मुसलमानों में अचानक नफरत क्यों पनपने लगी? पाकिस्तान और कश्मीर की आजादी अलग विषय है लेकिन पड़ोसियों को खदेडऩे पर वे लोग क्यों आमदा हो गए? यह समझ से परे है।
सुचीता नम आंखें उस कहानी को बयां करती हैं। कश्मीर से खदेड़ दिए गए लाखों पंडितों की तरह वे भी इस त्रासदी का कारण धर्मांधता को मानती हैं। उनका कहना है कि आम कश्मीरी के दिलो-दिमाग में यह बैठा दिया गया है कि कश्मीर केवल मुसलमानों की जमीन है अन्य किसी का वहां कोई हक नहीं है। इसीलिए गैर-मुस्लिमों को खदेडऩे का सिलसिला तो 1947 के कबाइली आक्रमण के समय से ही प्रारंभ हो गया था। उस वक्त कश्मीर से बाहर निकले सौरभ रैना बताते हैं कि कश्मीरी पंडितों और गैर मुस्लिमों के घर के बाहर लाल निशान बना दिए गए। कबायलियों ने पेट्रोल से भरे केन लेकर उन लाल निशान वाले घरों को जला दिया। सुरक्षा के लिए जो लोग ऊपरी मंजिल पर चले गए थे उनकी झुलसी लाशें मलबे में मिली। उन जले हुए घरों के अवशेष कश्मीर में जगह-जगह देखे जा सकते हैं। वह तो कबायली आक्रमण था जिसका एक लक्ष्य कश्मीर की ष्ठद्गद्वशद्दह्म्ड्डश्चद्ध4 को बदलना भी था ताकि भविष्य में इस क्षेत्र को मुस्लिम बहुल घोषित करते हुए पाकिस्तान में विलय का मार्ग प्रशस्त किया जा सके। बात 1947 की है। उस वक्त पंडित जवाहरलाल नेहरू ने जो भयानक गलतियां कीं वे सब इतिहास बन चुकी हैं। वे ऐसे घाव हैं जो भारत को अभी तक टीस पहुंचा रहे हैं।
लेकिन 90 के दशक में खासकर 1986 के बाद कश्मीर में पंडितों ने जो कुछ भोगा वह दर्द अभी भी ताजा है। सौरभ बताते हैं कि पंडितों को उम्मीद थी कि कुछ दिन बाद हालात सामान्य होंगे तो अपने पुस्तैनी घरों में लौट सकेंगे, लेकिन हालात बिगड़ते गए। कश्मीरी नौजवानों ने पंडितों के घरों में नल से आने वाला पानी खोल दिया। कश्मीर में लकड़ी और मिट्टी से घर बनाए जाते हैं। फर्श पर लगी मिट्टी तापमान माकूल बनाए रखती है। जब इस मिट्टी पर पानी पड़ा तो लकड़ी सडऩे लगी। दीमक से वे घर तबाह हो गए और भरभराकर गिर पड़े। उन तबाह घरों को बेचने के लिए कश्मीरी पंडितों पर दबाव बनाया गया। पड़ोस के मुसलमानों ने पंडितों को औने-पौने दाम पर उन घरों को जिन्हें पहले ही लूट लिया गया था बेचने पर मजबूर कर दिया। अभी भी कुछ खाली घर देखे जा सकते हैं, लेकिन कश्मीरी पंडितों की हिम्मत नहीं है कि वे उन घरों में चले जाएं। उन्हें भय है कि लौटने पर जानवरों जैसा बर्ताव उनके साथ हो सकता है। कश्मीरी पंडितों का यह डर अकारण नहीं है, भोपाल की एमराल्ड कालोनी में रहने वाले जिमी काक बताते हैं कि पंडित समुदाय पढऩे- लिखने वाला और तरक्की पसंद समुदाय है। लड़ाई -झगड़े, खून खराबे से उनका कोई सरोकार नहीं है। वे सदियों से अपने मुसलमान पड़ोसियों के साथ सद्भाव पूर्वक रह रहे थे। छोटी-मोटी लड़ाईयां होती थीं लेकिन कभी खूनी टकराव नहीं हुआ। आजादी के बाद से जब कबायली आक्रमण में पंडितों और हिन्दुओं को निशाना बनाया गया। मुसलमानों को भी निशाना बनाया गया लेकिन उन मुसलमानों को बख्शा गया जो पाक परस्त थे। पर तब भी पाकिस्तान आधिकृत कश्मीर को छोड़कर बाकी कश्मीर में हिन्दू मुसलमान मिलजुलकर रहने लगे थे। बॉलीवुड फिल्मों की शूटिंग होती थी और दुनिया भर के पर्यटक कश्मीर की घाटियों को निहारने आते थे। पर्यटन उद्योग फल फूल रहा था।
लेकिन अचानक कश्मीर क्यों धधकने लगा। इस प्रश्न के जवाब में मध्यप्रदेश के रिटायर्ड आईपीएस अधिकारी अरुण गुर्टू बताते हैं कि 70 के दशक में जब पेट्रोलियम की कीमतें अचानक बढ़ गईं उस वक्त अरब जगत से भारत में बहुत पैसा आया, जिसे सरकार ने रोकने की कोई व्यवस्था नहीं की। यह पैसा मदरसों और अन्य धार्मिक संस्थाओं के फलने फूलने में सहायक बना। देवबंद की जमातें कश्मीर में गईं और उन्होंने माहौल हिन्दू बनाम मुस्लिम बना दिया। धारा 370 ने इस आग में घी का काम किया। मुसलमान जिनकी संख्या हिन्दुओं की अपेक्षा ज्यादा थी उन्हें यह बताया गया कि इस जमीन से किसी तरह हिन्दुओं को खदेड़ दिया जाए तो दोबारा उनके लौटने की संभावना नहीं रहेगी क्योंकि धारा -370 किसी गैर कश्मीरी को कश्मीर में जमीन खरीदने की इजाजत नहीं देती। यह एक कड़वी सच्चाई है जो कश्मीर में पंडितों की वापसी की राह में सबसे बड़ी बाधा हो सकती है। मुफ्ती मोहम्मद सईद ने कहा है कि केवल 15 प्रतिशत कश्मीरी पंडित लौटेंगे, लेकिन इतने भी शायद न लौटें। क्योंकि बहुत से पंडित भारत की जनसंख्या में दूध में शक्कर की तरह समाहित हो चुके हैं। उनके वैवाहिक रिश्ते कश्मीरी समुदाय से इतर स्थापित हो चुके हैं। ऐसे में धारा 370 इन तमाम पंडितों को उनकी ही जमीन पर वापस लौटने से अवश्य रोकेगी, गैर कश्मीरी से विवाह करने पर कश्मीर में अधिकारों से वंचित होना पड़ सकता है।
सवाल उस धारा का नहीं है, सवाल तो कश्मीरियों के भीतर टीस मारते दर्द का है। वे उन हालातों को भूले नहीं हैं जिन हालातों में रातो-रात उन्हें अपनी जमीन से बेदखल कर दिया गया। श्री नगर जैसे शहरों में तो माहौल फिर भी नियंत्रित था क्योंकि वहां सेना थी, लेकिन गांव, कस्बों और दूर-दराज के क्षेत्रों में रहने वाले पंडितों ने जो विपदा सही है उसे शब्दों में बयां नहीं किया जा सकता। भारत सरकार के पास इसका कोई रिकार्ड नहीं है कि वे पंडित कहां हैं। उन्हें जमीन निगल गई? सचमुच जमीन ही निगल गई। गांवों में मुसलमानों ने पंडितों के परिवारों को दो विकल्प दिए थे। या तो इस्लाम स्वीकार करो या मौत के लिए तैयार रहो। जिन्होंने फरमान नहीं माना उन्हें मौत के घाट उतार दिया गया। लाशें दफना दी गईं। उनकी मां-बहनों और बेटियों के साथ जो किया गया उसका वर्णन करना संभव नहीं है। मीरपुर में तो पाकिस्तान ने मौत का तांडव मचाया था। किन्तु 90 के दशक में घाटी में मुसलमानों ने अपने ही निर्दोष हिन्दू पड़ोसियों को मौत के घाट उतार दिया।
गुर्टू कहते हैं कि पहले कश्मीर में ऐसा नहीं था। मुस्लिमों में ज्यादातर शिया थे जो अपेक्षाकृत उदार और मानवतावादी थे। 70 के दशक में बहावी धारा कश्मीर में भी बही और देखते-देखते सुन्नी बड़ी तादाद में हो गए। तभी से माहौल बिगडऩा शुरू हुआ। सुन्नियों ने शियाओं को नहीं बख्शा तो फिर हिन्दुओं या अन्य समुदायों की बिसात ही क्या है? लेकिन फिर भी कश्मीर में 10 हजार के करीब पंडित रह रहे हैं। आखिर वे वहां क्यों हैं? यदि मुसलमान इतने ही खराब हैं तो उन्हें खदेड़ क्यों नहीं देते। इस प्रश्न पर जिमी काक का कहना है कि ज्यादातर पंडित जम्मू में रहते हैं और कश्मीर में व्यापार करते हैं। जो कश्मीर में रह रहे हैं वे सुरक्षित इलाकों में हैं। लेकिन इन सबको जजिया करÓ देना पड़ता है। यह जवाब सुनकर सन्नाटा आ जाता है। कभी औरंगजेब ने जजिया कर लगाया था लेकिन आजाद हिन्दुस्तान में जजिया कर गले नहीं उतरता। काक कहते हैं कि कोई माने या न माने लेकिन सच्चाई यही है। कश्मीर में जो बचे खुचे पंडित हैं वे अपनी सुरक्षा के लिए हफ्ता या प्रोटेक्शन मनी देते हैं। इसके बिना उनका जीवन बचना संभव नहीं है। ऐसा नहीं है कि सारे मुसलमान खराब हैं। कुछ अच्छे भी हैं। पिछले दिनों जब एक गांव के एक मात्र कश्मीरी पंडित की मृत्यु हो गई तो उसका अंतिम संस्कार करने वाला कोई नहीं था। मुसलमानों ने ही उसका हिन्दू रीति से अंतिम संस्कार किया। किन्तु आतंकवादियों और पाकिस्तान के दबाव में मुसलमानों का वह तबका भी सहमा हुआ है जो पंडितों की वापसी चाहता है।
अरुण गुर्टू कहते हैं कि पंडितों की उनके पुस्तैनी घरों में वापसी अब कभी नहीं हो पाएगी। ज्यादातर औने-पौने दामों पर अपने घर बेच चुके हैं। पुरानी पीढ़ी अब नहीं रही। जो नई पीढ़ी आई है वह उस दर्द से आगे निकल चुकी है इसलिए पंडि़तों की घर वापसी भले ही केंद्र सरकार का एक वादा है लेकिन यह व्यावहारिक नहीं है। इतना अवश्य है कि पंडितों को अलग स्थान दिया जाए तो उनमें से कुछ वापस जा सकते हैं। लेकिन सवाल वही है कि यह अलग स्थान द्दद्धद्गह्लह्लश होगा या क्कह्म्शद्वद्बह्यद्गस्र रुड्डठ्ठस्र, कश्मीर की जमीन पर पंडि़तों का भी उतना ही हक है, इसलिए सरकार उन्हें कुछ देगी तो यह खैरात नहीं कहलाएगी बल्कि एक बड़ी गलती को सुधारने की मामूली शुरुआत कही जा सकती है। लेकिन जिन कश्मीरी पंडितों को धार्मिक नफरत के चलते उनकी जमीन से बेदखल कर दिया गया उनकी वापसी का मुसलमान स्वागत करेंगे? कोई भी पहल दिखावे की नहीं होनी चाहिए। जब तक दिल से कश्मीर के मुसलमान पंडि़तों को नहीं अपनाएंगे सरकार की सारी कोशिशें बेकार जाएंगी। इस पूरे घटनाचक्र में एक तथ्य और उल्लेखनीय है वह यह है कि कश्मीर में रहने वाले मौजूदा लोग अपनी रोजी-रोटी किसी अन्य से क्यों बाटेंगे।
कश्मीर का इतिहास
- नीलमत पुराण और कलहण की राजतरंगिणी के अनुसार कश्मीर जिसे झेलम घाटी के नाम से भी जाना जाता था, वह मूलत: एक बड़ी झील थी, जिसे ब्रह्मा के पौत्र कश्यप ऋषि ने झील का पानी सुखाकर रहने योग्य बनाया।
- कश्मीर के पहले निवासी नागा थे, लेकिन बुर्जहोम में खुदाई के दौरान मिले अवशेष बताते हैं कि नागाओं से पहले भी कश्मीर में एक जनजाति निवास करती थी।
- बाद में यहां की खूबसूरती से आकर्षित होकर आर्यों ने कश्मीर में पहले-पहल अपना ठिकाना बनाया।
- कलहण की राजतरंगिणी में कश्मीर के पहले राजा गौनंद का उल्लेख मिलता है जिन्होंने 653 ईसा पूर्व में सिंहासन संभाला।
- बाद में कश्मीर मौर्य और कुषाण शासकों के अधीन रहा। श्रीनगर को राजा अशोक के समय बसाया गया था। उस समय कश्मीर बौद्ध धर्म के प्रभाव में था।
- कनिष्क ने कश्मीर में चौथी बुद्ध परिषद आयोजित करके बौद्ध धर्म को नई ऊंचाईयां दीं।
- जब शंकराचार्य ने कन्या कुमारी से कश्मीर तक ऐतिहासिक पद यात्रा की उस दौरान कश्मीर में शैव मत का प्रभाव बढ़ता गया।
- 533 ईसवी में मिहिरगुल नामक हूण राजा ने कश्मीर में शैव मत के विस्तार में महत्वपूर्ण योगदान दिया। ऐसा कहा जाता है कि मिहिरगुल ने बौद्ध मठों को ध्वस्त किया था, लेकिन इसके कोई स्पष्ट प्रमाण नहीं हैं।
- सातवीं शताब्दी की शुरूआत में कारकूट राजवंश ने कश्मीर में अपना आधिपत्य जमाया। इसी समय चीन के महान यात्री ह्वेनसांग का भारत आगमन हुआ। 625 ईसवी के लगभग वे महाराजा दुर्लभवर्धन के दरबार में पहुंचे। उस समय शंकराचार्य द्वारा निर्मित मंदिर का जीर्णोद्वार चल रहा था।
- 724 ईसवी से कश्मीर का स्वर्णकाल शुरू हुआ जब ललितादित्य मुक्तपिदे ने कश्मीर की बागडोर संभाली। ललितादित्य ने अपने राज्य का विस्तार किया और बेहतरीन शासन दिया।
- 855 ईसवी में अवंतीवर्मन ने उत्पल राजवंश की नींव डाली। उनके योग्य इंजीनियर सूया ने बारामूला के निकट नहर बनाकर झेलम की बाढ़ से उन दिनों जनता को मुक्ति दिलाई।
- सुगंधा और दिद्दा नामक दो महिलाओं ने भी कश्मीर में शासन किया है। इसके बाद लंबे समय तक कभी बौद्ध तो कभी शैव शासकों के अधीन कश्मीर की बागडोर रही।
- इस्लाम का प्रवेश कश्मीर में मुगल सल्तनत के समय हुआ। यद्यपि उससे पहले भी कई छोटे-मोटे मुस्लिम शासक हुए लेकिन वे बौद्ध मत के प्रभाव में थे। जनता या तो बौद्ध थी या शैव इसलिए शासक भले ही मुस्लिम रहे लेकिन कश्मीर की मूल संस्कृति शैव और बौद्ध की मिलीजुली संस्कृति रही।
- 1917 तक कश्मीर की जनसंख्या में पंडितों और हिन्दुओं का बाहुल्य था, लेकिन उसके बाद से हिन्दू और पंडित कश्मीर से बाहर निकलने लगे।
- 1947 में कश्मीर से पंडितों और गैर मुस्लिम समुदायों को खदेडऩे का सिलसिला शुरू हो गया जो अभी तक जारी है।
कश्मीरी पंडितों का उनकी जमीन पर वापस लाना मेरी प्राथमिकता रहेगी। मैं उन्हें उनका हक अवश्य दिलाऊंगा। (जम्मू, चुनावी रैली के दौरान कहा)
नरेन्द्र मोदी
कश्मीर की राज्य सरकार घाटी में विस्थापित कश्मीरी पंडितों के लिए समग्र टाउंशिप हेतु भूमि अधिग्रहित कर जल्द से जल्द प्रदान करेगी।
राजनाथ सिंह
कश्मीरी पंडितों को उनके मूल स्थान पर ही बसाया जाएगा। उन्हें घाटी में एक अलग-थलग समुदाय नहीं बनने दिया जाएगा।
मुफ्ती मो. सईद
भाजपा का कश्मीरी पंडितों के लिए अलग कालोनी बनाने का प्रस्ताव कश्मीरियत को खत्म करने का षड्यंत्र है। यह प्रतिस्पर्धी सांप्रदायिकता है।
मणिशंकर अय्यर
कश्मीर घाटी में कश्मीरी पंडितों के लिए घेटो बनाने की कोशिश का कोई समर्थन नहीं करेगा। ये निश्चित रूप से असुरक्षित कैंप ही रहेंगे।
उमर अब्दुल्ला
सरकार को पहली स्मार्ट सिटी कश्मीर में कश्मीरी पंडितों के लिए अलग से बनानी चाहिए। और बाकी के लोगों को हमारे घरों के आसपास घर बनाने चाहिए।
अनुपम खेर
कश्मीरी पंडितों की वापसी बात की बात है। पहले 1990 में सैकड़ों कश्मीरी पंडितों को बर्बर तरीके से मारने वालों के खिलाफ मुकदमा शुरू होना चाहिए।
राहुल पंडिता
हम कश्मीर में ऐसी कोई भी टाउनशिप का विरोध करेंगे जो घृणा पर आधारित हो। पंडितों के लिए टाउनशिप इजराइल की तर्ज पर बनाने की योजना है।
यासीन मलिक
पहले कश्मीरी पंडितों को वहां के मुसलमानों से माफी मांगनी चाहिए क्योंकि वे आतंकवादियों के बीच छोड़कर भाग गए थे।
राशिद इंजीनियर
अलग नहीं तो कहां रहें पंडित?
कश्मीरी पंडित पारसियों के बाद सबसे छोटी संख्या का समुदाय है। यह सत्य है कि वे हिंदू हैं, लेकिन फिर भी हर समुदाय अपनी पहचान कायम रखना चाहता है। पारसियों की तरह ही कश्मीरी पंडितों ने भी विपरीत परिस्थितियों में अपनी काबीलियत और मेधा के बल पर देश में अपनी जगह बनाई है। उन्होंने बुरे दिन देखने के बावजूद संघर्ष करते हुए अपना खोया गौरव और वैभव प्राप्त किया है। आज कश्मीरी पंडितों से किए वायदे को निभाता हुए दिखने पर आतुर मोदी सरकार उनके पुनर्वास कार्यक्रम के लिए नए सिरे से जोर लगा रही है। जो कि एक अच्छी पहल है। कांग्रेस ने तो इस दिशा में सोचना भी उचित नहीं समझा। लेकिन घाटी में कश्मीरी पंडितों के लिए अलग बस्ती बसाने की घोषणा होते ही वह विवादों में घिर गई है। कश्मीरी अलगाववादियों ने इसे खारिज कर दिया है। जाहिर है वे नहीं चाहते कि पंडित वापस लौटें। चिट्टी सिंहपुरा नरसंहार को अंजाम देकर आतंकियों ने सिक्खों को भी घाटी छोडऩे के लिए धमकाया था लेकिन सिक्ख वहीं जमे रहे। पर अब अलगाववादियों को मालूम है कि पंडित उनके घरों में नहीं लौटेंगे, इसीलिए वे पंडितों की अलग कॉलोनी का विरोध कर उनके वापस लौटने के सारे रास्ते बंंद कर देना चाहते हैं। आधिकारिक रूप से पीडीपी-भाजपा गठबंधन सरकार के मुखिया,मुख्यमंत्री मुफ़्ती मोहम्मद सईद, इन अलग बस्तियोंÓ के लिए भूमि अधिग्रहण करने के लिए प्रतिबद्ध हैं लेकिन कांग्रेस, नेशनल कांफ्रेंस, हुर्रियत नेताओं के विरोध के बाद मुफ्ती ने अपना राग बदल लिया है। वैसे भी मुफ्ती की राजनीति तभी चल सकती है जब वे कश्मीर में पंडितों या हिंदुओं के प्रति ज्यादा नरमी न दिखाएं। अन्यथा अगले चुनाव में वे शून्य हो जाएंगे। मुफ्ती यह जोखिम नहीं उठाना चाहते। इससे बेहतर तो वे सरकार गिराना ज्यादा उचित समझेंगे। इसीलिए उन्होंने कह दिया है कि नई बस्ती बसावट के पारंपरिक तरीके की तर्ज पर मिश्रित बस्ती होंगी, जिनमें मुस्लिम भी शामिल होंगे। कश्मीरी पंडितों को अलग बस्ती में बसाने का विचार केंद्र को इसलिए लुभा रहा है क्योंकि इससे उसे सुरक्षा और प्रशासन में सुविधा हो जाएगी। कश्मीरी पंडितों का एक वर्ग भी अलग से कॉलोनी को ज्यादा महफूज मान रहा है क्योंकि उन्हें अपने मूल स्थान में वापसी का कोई विश्वास नहीं है। सैकड़ों, हज़ारों जगहों पर अलग-अलग पंडित परिवारों की सुरक्षा का झंझट पालने के बजाय सरकार यकीनन एक सीमित संख्या में अति सुरक्षित बस्तियों पर ध्यान देना चाहेगी। प्रशासनिक रूप से भी पंडित परिवारों को अपनी पसंद की जगह में अलग से बसाने की बजाय भूमि अधिग्रहण कर, पंडितों के लिए बस्ती में फ़्लैट बनाना कहीं ज्यादा आसान है। चिंता इस बात की है कि चरमपंथी समूहों के लिए अलग-अलग बसे परिवारों के बजाय पंडितों की बस्ती एक आकर्षक निशाना हो सकती है। इस खतरे की आशंका से यह बस्तियां न सिर्फ घैट्टो में बदल जाएंगी बल्कि भारी सैन्य दस्तों से घिरे परिसर बनकर रह जाएंगी। इससे यहां बसे लोगों के लिए सामान्य जीवन की संभावनाएं क्षीण हो जाएंगी।
वर्ष 2008 में शेखपुरा, बडग़ाम में बनाए गए कश्मीरी पंडितों के आवासीय परिसरों के किस्से भी बताते हैं कि यहां रहने वाले पंडित परिवारों के इस बारे में अनुभव मिले-जुले हैं। लेेकिन यदि उन्हें एक स्मार्ट सिटी बनाकर दी जाती है, तो उसमें रोजगार के साधन भी उपलब्ध हो सकेंगे। प्रदेश सरकार का कहना है कि कश्मीरी पंडितों को उनके मूल स्थान पर ही बसाया जाएगा। उन्हें घाटी में एक अलग-थलग समुदाय नहीं बनने दिया जाएगा। कश्मीरी पंडित पारंपरिक कश्मीरी परंपराओं का अंग हैं। मुफ्ती ने कहा था कि कश्मीरी पंडित मुश्किल समय में राज्य के मुसलमानों के साथ भाइचारे से रहते आए हैं। उनको अपनी पैतृक जमीन पर लौटने का पूरा अधिकार है। कश्मीरी पंडितों की संस्था पनुन कश्मीर लगातार मांग करती रही है कि पंडितों को कश्मीर में अलग सुरक्षित स्थान पर बसाया जाना चाहिए। जिस ढंग़ से आतंकवाद शुरू होने पर उन्हें निशाना और भागने पर मजबूर किया, ऐसे में दोबारा कश्मीर से विस्थापित नहीं होना चाहते।