05-May-2015 06:01 AM
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दिल्ली के रामलीला मैदान पर जब लगभग 60 दिन के बाद राहुल गांधी फिर से सक्रिय राजनीति में लौटे तो आभाष हुआ कि देश में विपक्ष नाम की कोई चीज है। सोनिया गांधी और राहुल गांधी ने किसान रैली में सरकार को कोसा। उन्ही नीतियों की आलोचना की जो नीतियां यूपीए सरकार के समय में भी लगभग वैसी ही थी...
सीताराम केसरी के समय जब कांगेे्रस वेंटीलेटर पर आ गई थी, उस समय सोनिया ने दया दिखाते हुए कांग्रेस को अपने नेतृत्व की संजीवनी से नया जीवन दिया। जिसका परिणाम यह निकला कि 2004 में केंद्र की सत्ता पर कांग्रेस काबिज हो गई। लेकिन वह स्वर्णकाल बीत चुका है। केंद्र ही नहीं बल्कि राज्यों से भी कांग्रेस की विदाई का दौर चल रहा है। कर्नाटक को छोड़कर कोई भी बड़ा राज्य कांग्रेस के पास नहीं है। केंद्र में उसकी संख्या मात्र 44 है। जहां वह मजबूत थी, वहां कमजोर है। दिल्ली जैसे राज्यों में तो तीसरे-चौथे नंबर पर पहुंच चुकी है। ऐसे हालात में राहुल गांधी की गैरमौजूदगी में कांगे्रस को जो दूरगामी नुकसान पहुंचा है, उसका प्रभाव तो अगले 2-3 वर्ष में ही पता चलेगा। लेकिन फिलहाल राहुल गांधी की वापसी से कांग्रेस की जान में जान आ गई है। मणिशंकर अय्यर जैसे गांधी परिवार के अय्यारों ने तो बकायदा कॉलम लिखकर घोषणा कर दी कि राहुल का यह नया अवतार परमेश्वर के नृसिंह अवतार से कम नहीं है। लेकिन राहुल जैसे थे वैसे ही हैं। न उनके बोलने के अंदाज में कोई बदलाव आया है और न ही विचार के स्तर पर वे परिपक्व हो पाए हैं। उनका अंदाज-ए-बयां वही है। विचार की धारा वैसी ही दिशाहीन है। सलाहकारों की जो कोटरी उनके आस-पास जमा थी, उसके भी मानस में कोई विचित्र बदलाव नहीं आया है।
फर्क केवल इतना है कि राहुल पहले की अपेक्षा ज्यादा मुखर हैं। संसद में अपने भाषण में उन्होंने किसानों और उद्योगपतियों के बीच टकराव पैदा करने की कोशिश की। भूमि-अधिग्रहण पर राहुल का भाषण बहुतों ने सुना लेकिन उसमें कुछ भी ऐसा नहीं था, जो तर्क और साक्ष्यों की कसौटी पर कसा हो। राहुल ने सरकार पर यह आरोप लगाया कि वह उद्योगपतियों के लिए काम कर रही है। प्रश्न यह है कि ऐसी कौन सी सरकार है जिसने उद्योगपतियों के लिए काम नहीं किया हो? पिछले 60 वर्ष का रिकॉर्ड उठाकर देखें उद्योग-जगत में जितना पैसा और समृद्धि आई है, उसका 1 प्रतिशत भी किसानों के पास नहीं पहुंचा। उद्योग-जगत को हमेशा यह शिकायत रही है कि किसानों को सब्सिडी दी जाती है। लेकिन इतना सब कुछ मिलने के बाद भी किसान पनप क्यों नहीं पाया? वह आत्महत्या के लिए विवश क्यों है? इसका जवाब न तो राहुल गांधी के पास है और न ही मौजूदा सरकार के पास। राहुल इतने ही किसान हितैषी थे, तो उन्होंने 10 साल की मनमोहन सरकार के दौरान अपनाई गई किसान विरोधी नीतियों का विरोध क्यों नहीं किया? किसानों की सबसे ज्यादा आत्म-हत्याएं उस दशक में ही क्यों हुईं? इसलिए संसद में भूमि अधिग्रहण विधेयक पर राहुल गांधी ने जो तर्क दिए उनमें से ज्यादातर कांग्र्रेसियों द्वारा पहले भी प्रस्तुत किए जा चुके हैं, उसमें नया कुछ नहीं है। इतना अवश्य है कि कांग्रेस के दबाव में सरकार इस विधेयक को रोकती है, तो यह लंबे समय तक दफन हो जाएगा। किंतु किसानों की समस्याओं का क्या होगा? वे तो यथावत ही रहेंगी।
इसी प्रकार नेट निरपेक्षता पर राहुल गांधी ने जो बोला, वह प्राय: अधिकांश सांसदों का मत है। सरकार भी नेट निरपेक्षता में बाधा न बनने का संकेत दे चुकी है। राहुल ने कहा कि मनरेगा की बात सभी करते हैं लेकिन नेट न्यूट्रिलिटी की बात कोई नहीं करता जबकि यह एक जटिल विषय है। दरअसल नेट न्यूट्रिलिटी की प्रासंगिकता तभी है, जब भारत में मध्यम वर्ग का दायरा बढ़े। फिलहाल तो आधी से ज्यादा जनसंख्या के समक्ष रोटी, कपड़ा और मकान की ही बुनियादी समस्याएं हैंं। नेट न्यूट्रल है या नहीं, इससे उन गरीब लोगों को क्या सरोकार?
अमेरिका के राष्ट्रपति बराक ओबामा ने नरेंद्र मोदी की प्रशंसा में एक बड़ा सा लेख लिखा है। यह लेख भारत ही नहीं विश्व के कई राजनीतिज्ञों के लिए ईष्र्या का विषय हो सकता है। राहुल गांधी ने ओबामा द्वारा लिखे गए इस लेख पर भी कटाक्ष किया। उन्होंने कहा कि अमेरिका गोर्बाचोव और स्टालिन की तारीफ करता था, लेकिन गोर्बाचोव ने रूस को विखंडन की कगार पर धकेल दिया। गोर्बाचोव ने रूस में पेरोस्त्राईका जैसे सुधार लागू किए जिसके चलते रूस के कई टुकड़े हो गए। उनसे मोदी की तुलना उचित नहीं है। मोदी विकास के लिए निजीकरण को बढ़ावा तो दे सकते हैं। लेकिन वे देश की अखंडता से कोई खिलवाड़ करेंगे, ऐसा सोचना बेमानी और अतार्किक है। इसलिए इन दोनों नेताओं की तुलना भी नासमझी का ही एक उदाहरण है।
लग रहा था कि राहुल गांधी अपने नए अवतार में मोदी सरकार को चैन की सांस नहीं लेने देंगे। लेकिन वे तो संसद में किसानों की बात उठाने की बजाय केदारनाथ को रवाना हो गए। लगता है छुट्टियों से उनका मन नहीं भरा इसलिए तीर्थ यात्रा पर चले गए हैं। राहुल की वापसी को सुपरहिट बनाने के लिए कांग्रेस ने दिल्ली में किसान रैली भी की थी, लेकिन रैली में राहुल के भाषण तक तो मैदान ही साफ हो गया। शीला दीक्षित मंच से किसानों को मनाती रहीं लेकिन किसानों में न तो सोनिया को सुनने का उत्साह था और न ही राहुल को। भीड़ भी कुछ खास नहीं थी। रामलीला मैदान पर ऐसा लगा जैसे सांप-सीढ़ी का खेल चल रहा हो जिसमें कई बार शून्य से शुरुआत करने की संभावना बन जाती है। राहुल को भी शून्य हो चुकी कांग्रेस को नई शुरुआत देनी है, इसलिए उन्हें ज्यादा आक्रामक बनना पड़ेगा। नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में भाजपा भारत में अपना एक अच्छा-खासा वोट बैंक बनाने मेें कामयाब हो गई है लेकिन भाजपा से जो कुछ बचा है, उसे काबू में लाने के लिए कांगे्रस को भरपूर मेहनत करनी पड़ेगी। राहुल की वापसी से कांग्रेस एक हो गई है या पहले की अपेक्षा ज्यादा संगठित बन चुकी है, ऐसा नहीं है। उनकी छुट्टी के दौरान शीला दीक्षित, संदीप दीक्षित, अमरिंदर सिंह, दिग्विजय सिंह, कमलनाथ जैसे कई नेता प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से बहुत कुछ बोल चुके हैं। राजनीति में सातों दिन और चौबीस घंटे सक्रिय रहना पड़ता है। राजनीति पार्ट टाइम नहीं की जा सकती क्योंकि राहुल गांधी अल्फे्रड द ग्रेट तो हैं नहीं, जो रहस्यमय तरीके से गायब होने के बाद जब लौटा तो हर मोर्चे पर जीत गया था। वे उन मोर्य शासकों की तरह भी नहीं हंै, जो अकाल पडऩे पर अज्ञातवास में चले गए थे और बाद में जब लौटे तो जनता समृद्ध हो गई। राहुल जिस दौर में हैं वहां जनता जल्दी-जल्दी भूल जाती है। राजनीति में भी नैपथ्य में जाने में समय नहीं लगता। इसका प्रत्यक्ष उदाहरण वे नेता हैं, जो कभी भारतीय राजनीति में छाए हुए थे और आज शून्य हो चुके हैं। राहुल की उम्र 45 के करीब है। उनके पास राजनीति चमकाने के लिए केवल 1 दशक है। उसके बाद बाकी समय तो जो कुछ हासिल किया है, उसका फायदा उठाने में ही बीतेगा। भूमिअधिग्रहण पर सोनिया गांधी ने जब राष्ट्रपति भवन की तरफ मार्च किया था, उस वक्त उनके सामने राहुल का प्रश्न उपस्थित हुआ था। बाद में जब कोयला घोटाले में आरोपी मनमोहन सिंह के प्रति एकजुटता दिखाने सोनिया गांधी और अन्य नेता मनमोहन सिंह के आवास पहुंचे, तो उस वक्त भी यही यक्ष प्रश्न था। वर्ष 2012 में जब राहुल गांधी म्यांमार के शहर रंगून में एस.एन. गोयनका से विपश्यना सीख रहे थे, उस वक्त उन्हें यह बताया गया था कि जो जैसा है उसे ठीक वैसा ही देखो और समझो। राहुल गांधी उस वक्त इस बात का महत्व समझ लेते तो शायद लोकसभा चुनाव में कांग्रेस की सीटें कुछ बढ़ सकती थीं। समय अभी भी उतना बिगड़ा नहीं है।
राहुल के शब्दबाण
- आपकी सरकार बड़े लोगों की सरकार है, सूट बूट की सरकार है। हम ये समझते हैं। एक बात साफ है कि आपकी जो सरकार है वो किसानों की मुश्किलों को नजरअंदाज कर रही है। आप भी जानते हैं, हम भी जानते हैं ये कार्पोरेट की सरकार है। प्रधानमंत्री कार्पोरेट से किए वादे तोड़े, किसानों से किए वादें निभाएं।
- 67 प्रतिशत जनता कृषि पर निर्भर है, देश के जो प्रधानमंत्री हैं जो राजनीतिक गणित अच्छी तरह समझते हैं, तो फिर इन 67 प्रतिशत लोगों को क्यों नाराज करते हैं? मेरे लिहाज से इसका जवाब ये है कि हिंदुस्तान के किसान की जमीन की कीमत तेजी से बढ़ रही है, आपके कार्पोरेट दोस्त उस जमीन को चाहते हैं। एक ओर आप किसान को कमजोर कर रहे हो। जब किसान कमजोर हो जाएगा तब आप उस पर अपने आर्डिनेंस की कुल्हाड़ी मारोगे।
- मैं नितिन गडकरी जी का आभार व्यक्त करना चाहूंगा क्योंकि वे सच बोलते हैं और दिल से बोलते हैं। उन्होंने कहा कि किसान को ना भगवान पर और ना ही सरकार पर भरोसा करना चाहिए। अच्छी बात है कि उन्होंने अपने मन की बात कही।
- एमएसपी जहां थी वहीं है और किसान पर मौसम की मार भी पड़ी है। ओले-बारिश में किसान का नुकसान हुआ।
- बीजेपी का तरीक़ा यही है, यहाँ कुछ बोलो, वहाँ कुछ बोलो और फिर कहो कि तीनों एक ही बात कर रहे हैं।
- मैं प्रधानमंत्री को सुझाव देता हूँ कि क्यों नहीं पीएम जाकर अपनी आँखों से देख ले, जहाँ लोगों के दिल में दर्द हैं वहां जाकर उनसे बात कर लें।
- किसान उर्वरक लेने जा रहा है वहाँ उसे लाठियां मिल रही हैं।