20-Apr-2015 05:33 AM
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आपको यह शीर्षक पढ़कर थोड़ी हैरानी हो रही होगी। लेकिन इस शीर्षक में कोई खराबी नहीं है। भारत के उन तमाम लुटेरों, डकेतों, हत्यारों, बलात्कारियों के प्रति कृतज्ञता ज्ञापित करने का मन होता है क्योंकि उन्होंने भारतीय रेलवे को बख्शा हुआ है। यह जो छुट-पुट हत्या, बलात्कार, लूट, चोरी इत्यादि की घटनाएं सुनाई पड़ती हैं यह तो आटे में नमक के बराबर हैं। दरअसल रेलवे का जो सुरक्षा ढांचा है उसेे देखते हुए तो प्रतिपल इससे कहीं जघन्य अपराध रेलवे में होना चाहिए क्योंकि रेलवे में अपराध करनेे के बाद बच निकलने की पूरी-पूरी गारंटी है।
रेलवे में स्ड्डद्घह्ल4 और स्द्गष्ह्वह्म्द्बह्ल4 ये दो बड़ी चुनौतियां हैं। स्ड्डद्घह्ल4 का आलम क्या है यह दिनों-दिन घट रही दुर्घटनाएं साफ बता रही हैं। किंतु उनकी चर्चा बाद में। पहले स्द्गष्ह्वह्म्द्बह्ल4 की बात करते हैं। रेलवे के पास सुरक्षा के लिए अपना सुरक्षा बल है जिसे रेलवे प्रोटेक्शन फोर्स या आरपीएफ कहा जाता है। राज्य सरकारें जीआरपी की नियुक्ति रेलवे में करती हैं, जिनकी आधा वेतन रेलवे से ही निकलता है। इसके अलावा जिला पुलिस भी है। कुल मिलाकर बड़े गर्व के साथ कहा जाता है कि रेलवे में त्रि-स्तरीय सुरक्षा व्यवस्था है। दरअसल यह गर्व नहीं शर्म की बात है। क्योंकि इस त्रि-स्तरीय सुरक्षा व्यवस्था ने ही रेलवे को इतना असुरक्षित बना दिया है कि वह अपराधियों के रहमों-करम पर है। अपराधियों के पास या तो बुद्धि नहीं है या फिर उनका कोई सुव्यवस्थित सिंडीकैट नहीं है। अन्यथा भारतीय रेलवे मेें अपराध करना इतना आसान है कि अपराध करने के बाद अपराधी बेखौफ होकर घूम-फिर सकते हंै।
त्रि-स्तरीय सुरक्षा प्रणाली में कई खामियां हैं। सबसे बड़ी खामी है समन्वय की। आरपीएफ का काम केवल यात्रियों के माल की सुरक्षा करना तक है, उसे कोई अधिकार नहीं है न ही वह रिपोर्ट लिख सकता है। यदि कोई घटना हो जाए, तो सबसे पहले रिपोर्ट लिखाना ही असंभव बन जाता है। चलती टे्रन में कोई व्यवस्था नहीं है। दुर्घटना घटने पर संबंधित राज्य, जिला, शहर या गांव तक जाकर रिपोर्ट लिखवानी पड़ेगी। जहां दुर्घटना घटी है पहली रिपोर्ट वहीं लिखेगी, उसके बाद आगे की कार्रवाई होती है। इस दौरान अपराधियों को बड़े आराम से फरार होने, बचने का मौका मिल जाता है। रेलवे में एक मोबाइल या बैग चोरी हो जाए, तो चार-पांच माह तो केवल कागजी खानापूर्ति में लगते हैं उसके बाद कहीं जांच शुरू होती है। इसलिए रेलवे में होने वाली घटनाएं आपसी समन्वय और सही जांच के अभाव में बिना किसी नतीजे पर पहुंचकर खत्म हो जाती हंै। रेलवे के अपराधों में इन्वेटीगेशन और सजा की दर बहुत कम है। इसी को देखते हुए रेल मंत्री सुरेश प्रभु ने सारे रेलवे का एक फोर्स बनाने और पूरी सुरक्षा व्यवस्था उस फोर्स को सौंपने की बात कही थी, लेकिन राज्य सरकारों ने आंखें तरेर लीं। दो-चार सरकारों ने सहमति जताई लेकिन ज्यादातर ने यह कह दिया कि सुरक्षा राज्य का विषय है। रेलवे भारत है कोई पाकिस्तान में तो है नहीं जो सुरक्षा को लेकर इतना हल्ला मचाया जा रहा है। राज्य सरकारों के असहयोग के कारण ही आज तक रेलवे का कोई अपना सुरक्षाबल नहीं बन पाया है। आलम यह है कि 1 किलोमीटर की छोटी दूरी अपराधियों के लिए बच निकलने का मौका उपलब्ध करा देती है। क्योंकि दूसरे राज्य की सीमा लग जाती है या दूसरा जिला शुरू हो जाता है। रिपोर्ट दर्ज करने वाले एक-दूसरे पर जिम्मेदारी टालते हैं। यह मामला हमारे प्रदेश का नहीं है, हमारे जिले का नहीं है, हमारे ज्यूरिडिक्शन में नहीं है, इस तरह के जुमले अक्सर सुनने में आते हैं। कई बार तो ऐसा भी हुआ है कि लाश टे्रक पर पड़ी है और सुरक्षा बल यह तय कर रहे हैं कि मामला कहां का है, वे अक्षांश, देशांश और भूगोल में उलझे रहते हैं। इसी कारण रेलवे में जो अपराध हो रहे हंै उनकी दर कम ही कही जाएगी। कायदे में तो इससे कई गुना ज्यादा अपराध होने ही चाहिए। राज्य सरकारों को न जाने कौन सा भय है कि वे सारे रेलवे की एक यूनिफार्म फोर्स नहीं बनने देना चाहतीं। उन्हें लगता है कि ऐसा करने से केंद्र का हस्तक्षेप बढ़ेगा। अपराध बढ़ेंगे इसकी फिक्र नहीं है, लेकिन केंद्र के हस्तक्षेप की है।
इसलिए स्ह्वद्घद्घद्गह्म् करते हंै यात्री
पिछले माह मध्यप्रदेश के वित्तमंत्री जयंत मलैया और उनकी पत्नी के साथ लूटपाट हुई थी, इस मामले में गॉसिप और फालतू की बातें बहुत सुनने को मिलीं लेकिन किसी ने भी मूल समस्या की ओर ध्यान नहीं दिया। रेलवे में यात्रियों की सुरक्षा एक गंभीर चुनौती बनती जा रही है। वर्ष 2012 में 5 हजार 174 लूट की घटनाएं हुई थीं, जो वर्ष 2013 में बढ़कर 6 हजार 258 हो गईं और 2014 में इनकी संख्या 7 हजार 606 हो गई। सबसे ज्यादा 1754 घटनाएं वेस्ट सेंट्रल रेलवे जोन में घटीं। 2013 में डकैती की 261 घटनाएं हुई थीं, जिनमें 2014 में थोड़ी कमी आई और यह घटकर 235 रह गई लेकिन इस वर्ष अभी तक यह घटनाएं बढ़ रही हैं। वर्तमान में लगभग 1300 रेलगाडिय़ों को आरपीएफ के जवान संभालते हैं। 2200 रेलगाडिय़ां डेली बेसिस पर जीआरपी द्वारा संभाली जाती हैं। आरपीएफ, जीआरपी और जिला पुलिस की त्रि-स्तरीय सुरक्षा व्यवस्था के बावजूद रेलवे की सुरक्षा जीर्ण-शीर्ण हो चुकी है। इस वर्ष 3 माह के दौरान ही कई बड़ी घटनाएं घटी हैं। मंत्री से लेकर अधिकारी और आम आदमी सब लूटपाट के शिकार हो रहे हैं। पिछले 5 वर्ष के दौरान रेलवे में अपराध दोगुने हो चुके हैं और इनकी संख्या 19 हजार के करीब पहुंच गई है। पिछले वर्ष 26 हजार अपराधिक घटनाएं घटीं, जिनमें डकैती और बलात्कार की घटनाएं बहुत तेजी से बढ़ी हैं। इसका अर्थ यह है कि रेलवे प्रति सप्ताह 1 हजार अपराधों की साक्षी बनती है, जिनमें हत्या, बलात्कार, छेड़छाड़, डकैती, लूटपाट, चोरी शामिल हैं। 2013 में टे्रनों के अन्दर 270 हत्याएं हुईं जो कि 2014 में बढ़कर 290 के करीब पहुंच गई। जिन टे्रनों को सुरक्षित कहा जाता है उनमें भी हत्या, बलात्कार, लूटपाट से लेकर चोरी, डकैती तक हो जाती है। आलम यह है कि अब यात्रिगण खुद कानून हाथ में लेते हुए अपराधियों की पिटाई करने लगे हैं। मध्यप्रदेश में सिविल जज की परीक्षा देकर लौट रहे पीयुष दुबे, महिराज सिसौदिया और आलोक मिश्रा नामक युवकों ने नर्मदा एक्सप्रेस में एक छोटी बच्ची के साथ छेडख़ानी की, जिसके बाद भीड़ ने उनकी पिटाई कर दी। पीयुष दुबे खंडवा के किसी जज का बेटा है, शराब के नशे में अपनी बेटी समान 9 वर्षीय लड़की के साथ बदतमीजी करने वाले ये हैवान न्यायाधीश बनने का ख्वाब देख रहे थे। लेकिन इस मामले में जीआरपी की भूमिका भी संदेह से परे नहीं है। तीनों टे्रन में खुलेआम शराब पी रहे थे और जब जनता ने जीआरपी से शिकायत की, तो पुलिस वालों ने उन्हेंं थोड़ा समझा-बुझाकर अपनी ड्यूटी पूरी कर ली। यदि पुलिस वाले समय रहते कार्यवाही करते, तो उस मासूम बच्ची को सदमा न झेलना पड़ता। वह बच्ची अभी भी रातों को सो नहीं पाती है। छेडख़ानी करने वालों को सजा मिलेगी या नहीं, इसका भी कोई ठिकाना नहीं है क्योंकि पुलिस कई बार दबाव में या लालच में आकर केस ही लचर बनाती है। कई बार सही अपराधी भी नहीं पकड़े जाते, दबाव में किसी को भी पकड़ कर प्रस्तुत कर दिया जाता है। मध्यप्रदेश के वित्तमंत्री जयंत मलैया और उनकी धर्मपत्नी सुधा मलैया के साथ हुई लूटपाट के बाद जीआरपी ने जिन लोगों को गिरफ्तार किया, उनके परिजनों ने हंगामा करते हुए आरोप लगाया था कि पुलिस गलत फंसा रही है। सारी टे्रन में गिने-चुने सुरक्षाकर्मी होते हैं, जो वसूली में लगे रहते हंै। जब कोई टे्रन लुटती है तो सबसे ज्यादा सुरक्षित एसी डब्बों पर हमला बोला जाता है। लुटेरे हत्या तक कर डालते हैं। साल दर साल किराया बढ़ता जा रहा है लेकिन रेलें उससे अधिक असुरक्षित होती जा रही हैं।
दुर्घटनाओं के मामले में भी भारतीय रेलों का रिकॉर्ड बहुत दयनीय है। दुनिया के 15 प्रतिशत रेल एक्सीडेंट भारत में ही होते हैं, जो दुनिया में सर्वाधिक हैं। दुनिया का चौथा बड़ा रेल नेटवर्क जो 16 हजार टे्रनों में 1 करोड़ 80 लाख यात्रियों को ढोता है, वहां प्रतिवर्ष 15 हजार लोग रेल से जुड़ी दुर्घटनाओं में मारे जाते हैं, जिनमें 1600 की संख्या में तो रेल स्टॉफ ही रहता है।
पिछले 23 सालों से भारतीय रेलें अपनी क्षमता से 15 गुना ज्यादा यात्रियों को ढो रही हैं। ओवरलोडिंग एक बड़ी समस्या है। ्रस्टॉफ की कमी के कारण जो गिने-चुने लोग हैं, उन्हीं के भरोसे रेल की सुरक्षा है। देश में 50 हजार रेलवे क्रॉसिंग में से 15 हजार पर अभी भी कोई व्यक्ति तैनात नहीं है। सुरक्षा के लिए उच्च स्तरीय इंतजामों की घोषणा तो की जाती है, लेकिन वे लागू नहीं हो पाते। अगले 20 वर्ष के दौरान रेलवे का आकार दोगुना करना पड़ेगा क्योंकि रेल यात्रियों की संख्या बढ़ जाएगी। सुरक्षा के इंतजाम भी बढ़ाने पडेंग़े। केवल मनुष्य ही नहीं जंगली जानवरों की कुछ विलुप्तप्राय प्रजातियां भी रेल दुर्घटना का दंश झेल रही हैं। सारे देश में हर वर्ष कई हाथी, सिंह और अन्य जंगली जानवर रेल से कट कर मारे जाते हैं।
8 अपै्रल को गुजरात में भाव नगर जिले में 3 सिंह शावक रेल से टकरा कर मौत के मुंह में समा गए। रेलवे की सुरक्षा खामी का खामियाजा उन मासूम जानवरों को भुगतना पड़ा। गुजरात सरकार ने 10 करोड़ रुपए खर्च करके रेलवे टे्रक के आसपास फेंसिंग लगाने की योजना बनाई थी, लेकिन अभी वह कागजों पर ही है। कांजीरंगा नेशनल पार्क में भी इस तरह की दुर्घटनाएं घटती रहती हैं।
रेल मंत्री सुरेश प्रभु ने कुछ समय पहले हरिद्वार में रेलवे स्टेशन पर टिकट और आरक्षक बिल्डिंग का उद्घाटन करते हुए कहा था कि मौजूदा बजट में 1 लाख करोड़ रुपए का निवेश रेलवे के आधुनिकीकरण और अधोसंरचना पर किया जाएगा। लेकिन 1 लाख करोड़ रुपए पर्याप्त नहीं हैं। रेलवे पर तत्काल 4-5 लाख करोड़ खर्च करने की आवश्यकता है। एक दशक की योजना बनाकर इस योजना पर अमल किया जाना चाहिए। भारत का रेलवे दुनिया में चौथा सबसे बड़ा नेटवर्क है, लेकिन यहां सुविधाएं और रेल की गति तथा अधोसंरचना बाबा आदम के जमाने की हैं। आज तक इस देश में कोई बुलेट टे्रन नहीं चली है। पड़ोसी देश चीन ने स्पेन की राजधानी मैड्रिट तक टे्रन भेजने में सफलता पा ली है और अब वह हिमालय को खोखला कर नेपाल तक रेल लाइन बिछा रहा है। जापान की बुलेट टे्रन लगातार भूकंप के झटके झेलने के बावजूद दुनिया में सर्वश्रेष्ठ हैं। फ्रांस की टे्रनें वक्त की पाबंदी और गति के लिए मशहूर हैं। लेकिन भारत में जैसा कि बताया गया टे्रन का सफर स्ह्वद्घद्घद्गह्म्द्बठ्ठद्द है। आनंददायी नहीं है। खतरनाक है और असुरक्षित भी है। टे्रनों की संख्या बढ़े न बढ़े, टे्रक की लंबाई बढ़े न बढ़े, नए स्टेशन बनें न बनें, लेकिन भारतीय रेल की गुणवत्ता बढऩी चाहिए। रेल किराया यदि आवश्यक है तो बढ़ाया जाना चाहिए। इस देश के यात्री मुफ्त का सफर या सस्ता सफर नहीं करना चाहते, उन्हेें पता है कि सस्ते सफर में स्ह्वद्घद्घद्गह्म्द्बठ्ठद्द बढ़ जाएगी। वे सफर को आरामदेह बनाना चाहते हैं। सुरक्षित बनाना चाहते हैं और तीव्र गति से अपने गंतव्य तक पहुंचना चाहते हैं।
रेलवे की सफाई भी एक बड़ी चुनौती है। गंदे रेलवे स्टेशन हमें शर्मिंदा कर रहे हैं। भारत के यात्रियों को इस बात की जरा भी समझ नहीं है कि जब रेल स्टेशन पर खड़ी हो या स्टेशन आने वाला हो तो बाथरूम का उपयोग नहीं करना चाहिए। इसी कारण जब कोई टे्रन स्टेशन पर आकर खड़ी होती है और थोड़ी देर बाद रवाना हो जाती है, तो अपने पीछे टे्रक पर गंदगी का अंबार छोड़ जाती है। यात्रियों की आदत सुधरना संभव नहीं है, फिर कई बार इमरजेंसी भी हो सकती है। इसीलिए टे्रनों में ही ऐसी व्यवस्था की जानी चाहिए जिससे टे्रक पर गंदगी न फैले। सौ-पचास किलोमीटर के बाद एक नियत स्थान पर टे्रन की गंदगी का सही निपटान किया जाए। बहुत से देशों में ऐसी व्यवस्था है, इसलिए वहां स्टेशन साफ-सुधरे रहते हैं। भारत में तो देश की राजधानी दिल्ली का रेलवे स्टेशन ही गंदगी से भरा लगता है। स्वच्छता, सुरक्षा, सुविधा, सुचारू संचालन यह सब बड़ी चुनौतियां हैं।
आर्थिक संकट: रेल मंत्रालय के अनुसार, भारतीय रेलवे पर संचालन अनुपात भारी पड़ रहा है। वर्ष 2004-05 में यह अनुपात 90.98 प्रतिशत था, यानी एक रुपए में करीब आठ पैसे की बचत। वित्त वर्ष 2013-14 में यह अनुपात बढ़कर 93.5 प्रतिशत हो गया। इस वित्त वर्ष में रेलवे को महज 600 करोड़ रुपए का लाभ हुआ।
निवेश की समस्या: वर्तमान में 357 रेलवे प्रोजेक्ट लटके हुए हैं, जिनके लिए 1.82 खरब रुपए की जरूरत है। फरवरी 2012 में सैम पित्रोदा कमेटी की रिपोर्ट में रेलवे के आधुनिकीकरण के लिए अगले पांच सालों में 5.6 खरब रुपए की जरूरत का अनुमान लगाया गया था, जबकि मार्च 2012 में ही अनिल काकोदकर कमेटी ने रेलवे सुरक्षा उपायों पर अगले पांच सालों में एक खरब रुपए के निवेश का अनुमान लगाया था।
क्षमता में ठहराव: पटरियों के विस्तार का काम लगभग ठहरा हुआ है। वित्त वर्ष 2004-05 में रनिंग ट्रैक (डबल ट्रैक समेत पटरियों की कुल लंबाई) 84,260 किलोमीटर और रूट की लंबाई 63,465 किलोमीटर थी। जबकि वित्त वर्ष 2012-13 में रनिंग ट्रैक में केवल 4,976 किलोमीटर और रूट की लंबाई में केवल 1,931 किलोमीटर की ही बढ़ोत्तरी हो पाई। आबादी के बढ़ते दवाब और धन की कमी के चलते पटरियों की लंबाई बढ़ाना एक बड़ी चुनौती है।
निजी और विदेशी निवेश की चुनौती: वित्त वर्ष 2012-2013 में भारतीय रेलवे सार्वजनिक-निजी भागीदारी (पीपीपी) के तहत केवल 2,500 करोड़ रुपए का निवेश ही आकर्षित कर पाई, जबकि लक्ष्य 6,000 करोड़ रुपए इक_ा करने का था। रेलवे की आधारभूत संरचनाओं के विकास में 100 प्रतिशत एफडीआई की मंजूरी के बावजूद भारतीय रेलवे विदेशी निवेशकों का ध्यान नहीं खींच पाई है।
बाजार हिस्सेदारी में गिरावट: माल ढुलाई के मामले में भारतीय रेलवे सड़क मार्ग के मुकाबले तेजी से पिछड़ रही है। रेल मंत्रालय के आंकड़ों के अनुसार, 1950-51 में जहां इसकी बाजार हिस्सेदारी 89 प्रतिशत थी, वहीं 2007-08 में इसकी हिस्सेदारी घटकर 30 प्रतिशत तक पहुंच गई है। वहीं सड़क मार्ग से होने वाली ढुलाई की हिस्सेदारी 11 प्रतिशत से बढ़कर 61 प्रतिशत हो गई है।
साफ-सफाई शौचालय: सीधे डिस्चार्ज और गंदगी, भारतीय रेलवे की एक बड़ी समस्या रही है। ओडिशा के एक सामाजिक कार्यकर्ता द्वारा दिसम्बर 2013 में राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग में दायर याचिका में सीधे डिस्चार्ज को खुले में मलत्याग जैसा माना। इसकी जगह बॉयो टॉयलेट की मांग की गई। 2013-14 (दिसम्बर तक) 2,774 बोगियों में बॉयो टॉयलेट लगाए जा चुके हैं। लेकिन 51,288 डिब्बों के मुकाबले ये कुछ भी नहीं है।
एक्सिडेंट: ट्रेनों की टक्कर और रेल पटरियों पर होने वाली दुर्घटनाओं का न रुकना हमेशा से ही एक आम यात्री की चिंता का विषय रहा है। हालांकि रेल मंत्रालय के आंकड़ों के अनुसार, वर्ष 1960-61 में जहां प्रति दस लाख किलोमीटर पर दुर्घटनाएं की संख्या 5.5 थी जबकि 2011-12 में यह घटकर 0.13 हो गई। लेकिन इन दुर्घटनाओं में हताहतों की संख्या कम नहीं हो रही है। वर्ष 2011-12 के आंकड़ों के अनुसार, सभी प्रकार की दुर्घटनाओं में 3,665 लोग हताहत हुए, जिसमें पटरियों और मानवरहित क्रासिंग पर होने वाली दुर्घटनाओं में मारे गए और घायल होने वालों की संख्या सर्वाधिक 2,107 है।
पीने का साफ़ पानी: ट्रेनों में पीने के पानी की समस्या विकराल हो चुकी है। यहां तक कि कुछ-एक को छोड़कर रेलवे स्टेशनों पर पीने के साफ पानी की सुविधा नदारद होती है। वर्ष 2003-04 में बोतल बंद पानी के लिए रेल नीरÓ परियोजना की शुरुआत की गई लेकिन अब इसके दाम भी बाजार से नियंत्रित हो गए हैं, जबकि उस समय इसका मूल्य 10 रुपए रखा गया था।
असुरक्षित रेलवे
9 अपै्रल 2015 : बरेली स्टेशन के निकट हावड़ा से अमृतसर लौटने वाली अकालतख्त सुपर फास्ट एक्सप्रेस में एयरफोर्स के सिपाही से लूटपाट।
8 अपै्रल 2015 : कालवा स्टेशन के पास एक 35 वर्षीय महिला पत्रकार के साथ छेडख़ानी के बाद उनका मोबाइल फोन लूट लिया।
7 अपै्रल 2015 : भुवनेश्वर-नई दिल्ली-उड़ीसा संपर्क क्रांति की स्लीपर बोगियों में जमकर लूूटपाट।
6 अपै्रल 2015 : मुगलसराय-गया रेलखंड के परैया स्टेशन के पास लुटेरों ने पेसेंजर टे्रन को रोककर 18 स्त्री-पुरुषों से पैसे व जेवरात छीन लिए, कई महिलाओं के कान व नाक से खून बहने लगा।
3 अपै्रल 2015 : कुरुक्षेत्र से 4 किलोमीटर दूर अज्ञात बदमाशों ने चाकू की नोंक पर चलती टे्रन में यात्री महिला के हीरे और सोने के जेवर लूट लिए।
17 अगस्त 2014 : बिहार के लखीसराय जिले में मोर्य एक्सप्रेस में डाकुओंं ने 2 यात्रियों की हत्या करके लूटपाट की।
15 सितम्बर 2012 : हावड़ा-नई दिल्ली टे्रन में 5 बोगियां मुगलसराय के पास लुट गईं।