16-Apr-2015 02:55 PM
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बुद्धया विशुद्धया युक्तो धृत्यात्मानं नियम्य च।
शब्दादीन्विषयांस्त्यक्त्वा रागद्वेषौ व्युदस्य च।।
विविक्तसेवी लघ्वाशी यतवाक्कायमानस:।
ध्यानयोगपरो नित्यं वैराग्यं समुपाश्रित:।।
अहंकारं बलं दर्पं कामं क्रोधं परिग्रहम्।
विमुच्य निर्मम: शान्तो ब्रह्मभूयाय कल्पते।।
पनी बुद्धि से शुद्ध होकर तथा धैर्यपूर्वक मन को वश में करते हुए, इन्द्रियतृप्ति के विषयों का त्याग कर, राग तथा द्वेष से मुक्त होकर जो व्यक्ति एकान्त स्थान में वास करता है, जो थोड़ा खाता है, जो अपने शरीर, मन तथा वाणी को वश में रखता है, जो सदैव समाधि में रहता है तथा पूर्णतया विरक्त, मिथ्या अहंकार, मिथ्या शक्ति, मिथ्या गर्व, काम, क्रोध तथा भौतिक वस्तुओं के संग्रह से मुक्त है, जो मिथ्या स्वामित्व की भावना से रहित तथा शान्त है वह निश्चय ही आत्म-साक्षात्कार के पद को प्राप्त होता है।
जो मनुष्य बुद्धि द्वारा शुद्ध हो जाता है, वह अपने आपको सत्व गुण में अधिष्ठित कर लेता है। इस प्रकार वह मन को वश में करके सदैव समाधि में रहता है। वह इन्द्रियतृप्ति के विषयों के प्रति आसक्त नहीं रहता और अपने कार्यों में राग तथा द्वेष से मुक्त होता है। ऐसा विरक्त व्यक्ति स्वभावत: एकान्त स्थान में रहना पसन्द करता है, वह आवश्यकता से अधिक खाता नहीं और अपने शरीर तथा मन की गतिविधियों पर नियन्त्रण रखता है। वह मिथ्या अहंकार से रहित होता है क्योंकि वह अपने को शरीर नहीं समझता। न ही वह अनेक भौतिक वस्तुएँ स्वीकार करके शरीर को स्थूल तथा बलवान बनाने की इच्छा करता है। वह देहात्मबुद्धि से रहित होता है अतएव वह मिथ्या गर्व नहीं करता। भगवत्कृपा से उसे जितना कुछ प्राप्त हो जाता है, उसी से वह संतुष्ट रहता है और इन्द्रियतृप्ति न होने पर कभी क्रुद्ध नहीं होता। न ही वह इन्द्रिय विषयों को प्राप्त करने के लिए प्रयास करता है। इस प्रकार जब वह मिथ्या अहंकार से पूर्णतया मुक्त हो जाता है, तो वह समस्त भौतिक वस्तुओं से विरक्त बन जाता है और यही ब्रह्म की आत्म-साक्षात्कार अवस्था है। यह ब्रह्मभूत अवस्था कहलाती है। जब मनुष्य देहात्मबुद्धि से मुृक्त हो जाता है, तो वह शान्त हो जाता है और उसे उत्तेजित नहीं किया जा सकता इसका वर्णन इस प्रकार हुआ है-
जो मनुष्य इच्छाओं के अनवरत प्रवाह से विचलित नहीं होता, जिस प्रकार नदियों के जल के निरन्तर प्रवेश करते रहने और सदा भरते रहने पर भी समुद्र शांत रहता है, उसी तरह केवल वही शान्ति प्राप्त कर सकता है, वह नहीं, जो ऐसी इच्छाओं की तुष्टि के लिए निरन्तर उद्योग करता रहता है।ÓÓ
असली बुद्धिमान की पहचान
बुद्धिमान व्यक्ति भी अशांत क्यों हो जाता है, यह सोचने वाली बात है। पढ़े-लिखे व्यक्ति के पास जिंदगी की सभी समस्याओं का समाधान होना चाहिए। आप पढ़े-लिखे हों या निरक्षर, शांति की खोज का तरीका दोनों के लिए समान रहेगा। दोनों जीवन में शांति चाहते हैं। हिंदू धर्म में अवतारों की जीवनशैली देखें तो समझ में आ जाएगा कि शांति आदमी के अंदर रहती है। यह तथ्य जितना साफ-साफ समझ में आ जाएगा शांत होना उतना ही आसान हो जाएगा, क्योंकि बुद्धि मनुष्य को बाहर की ओर ले जाती है। बुद्धि का स्वभाव है चीजों को तर्क की दृष्टि से देखना। इसमें कोई बुराई नहींं है, लेकिन तार्किक होना मजबूरी नहीं होनी चाहिए। फिर मनुष्य को हर बात तर्क की कसौटी पर खरा उतारने की आदत पड़ जाती है। इस चक्कर में बुद्धि सत्य से दूर हो जाती है और जिसे वह गढ़ती है, उसे ही सत्य मान लेती है।
बुद्धिमानों के साथ यही खतरा पैदा हो जाता है कि जो हम सोच रहे हैं या कर रहे हैं वही सही है। संसार अपने ढंग से चलता है और अशांति शुरू होने लगती है, लेकिन जैसे ही हम शांति की खोज में अपने भीतर उतरने लगते हैं बुद्धि इससे सहमत नहीं होती। अपने भीतर उतरने के लिए बुद्धि को अपने परिष्कृत रूप, प्रज्ञा में बदलना पड़ेगा। यह परिष्कार चिंतन से नहीं कुछ समय बिना चिंतन के रहने से आता है। चौबीस घंटे में कुछ समय विचारशून्य हो जाएं, बुद्धि को प्रज्ञा में बदलने का मौका दें, तो बुद्धि आपको भीतर उतरने का अवसर देगी। इसीलिए असली बुद्धिमान वह है जो बुद्धि का उपयोग करते हुए संसार में सफलता भी प्राप्त कर ले और उसकी शांति भी बची रहे। बुद्धिमान व्यक्ति यदि अशांत है, तो यह बुद्धि का सबसे बड़ा अपमान है।