20-Apr-2015 06:13 AM
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भारतीय राजनीति में गुटीय संतुलन के लिए भाजपा सदैव प्रशंसनीय पार्टी रही है। पार्टी के भीतर अनेकानेक गुट होते हुए भी लड़ाई कभी सतह पर नहीं आई। बैंग्लोर की राष्ट्रीय कार्यकारिणी में पहली बार दिखा कि भाजपा के भीतर गुटीय संतुलन लडख़ड़ा रहा है। आडवाणी की चुप्पी उतना बड़ा मुद्दा नहीं है। आडवाणी लंबे समय से गहन चुप्पी में हैं और उन्हें यह भलीभांति मालूम है कि 87 वर्ष की उम्र में अब ज्यादा सक्रियता न तो संभव है और न ही उन्हें अवसर दिया जा सकता है। अटल, आडवाणी, जोशी युग बीत चुका है। इसीलिए भाजपा की राष्ट्रीय कार्यकारिणी में अहम मुद्दों पर चिंतन लगभग एकतरफा रहा। बल्कि यूं कहें कि एक गुट ने अपना प्रभाव पूरी तरह जमा लिया है तो कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी।
भूमि अधिग्रहण विधेयक को ही लिया जाए तो भाजपा में इस विधेयक को लेकर भीतरी कश्मकश इतनी अधिक है कि कई बड़े नेता इस विधेयक में किसानों की सहमति वाला बिंदू रखवाना चाहते हैं, लेकिन वे अपनी बात कहने से क्यों हिचक रहे हैं? उन्हें क्या भय है? कई नेता और मंत्री ऑफ द रिकार्ड यह बोल रहे थे कि भूमि अधिग्रहण कानून में किसानों की आशंकाएं दूर नहीं की गईं तो अगले चुनाव में अनर्थ हो जाएगा, बल्कि यूपी और बिहार के चुनाव में भी खासा नुकसान होगा। लेकिन जब बात कहने का मौका आया, तो इनमें से बहुतों ने यंत्रवत चुप्पी बना ली। मजे की बात तो यह है कि इस विधेयक का पार्टी के भीतर ही विरोध कर रहे कुछ नेताओं को विधेयक का बचाव करने की जिम्मेदारी सौंप दी गई है जो उन्होंने सहज स्वीकार भी कर ली। तो क्या भाजपा अब ऐसी पार्टी बनती जा रही है जिसमें असहमतियों का कोई स्थान नहीं है। भूमि अधिग्रहण विधेयक पर एक सवाल यह भी खड़ा हो रहा है कि इसमें सरकार जो करने जा रही है उसमेें संघ की सहमति है अथवा नहीं? संघ के कई नेता इस विधेयक के मौजूदा स्वरूप से असहमति प्रकट कर चुके हैं। दिल्ली चुनाव भी एक ऐसा ही विषय है, जिस पर व्यापक विचार-विमर्श की आवश्यकता थी लेेकिन न तो प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और न ही अमित शाह ने इस दुखती रग को छेडऩा उचित समझा। बाकी वक्ता तो शुरू से ही मोदी का बचाव ठीक उसी तरह करते आ रहे हैं जैसे कांग्रेस हर पराजय के बाद राहुल गांधी का बचाव किया करती है। इसी प्रकार मंत्रिमंडल को लेकर भी कुछ असहमतियां हैं जिन्हें खुलकर प्रकट नहीं किया गया।
कांग्र्रेस पर निशाना
भाजपा के नीति-नियंता मानते हैं कि भाजपा के चुनावी घोषणा-पत्र को अमल मेें लाने के लिए भूमि अधिग्रहण विधेयक का पारित होना अतिआवश्यक है। विडम्बना यह है कि यह विधेयक अपने मौजूदा स्वरूप में पारित हो तभी भाजपा के लिए लाभकारी होगा, ऐसा माना जा रहा है। भाजपा इसमें सबसे बड़ी बाधा कांग्रेस को मानती है इसलिए कांगे्रस पर कार्यकारिणी में ज्यादा निशाना साधा गया। वित्तमंत्री अरुण जेटली, वाणिज्य राज्य मंत्री निर्मला सीतारमन ने कांग्रेस के भू-अधिग्रहण विरोधी अभियान का जबाव देते हुए कहा है कि यह गलत अभियान है और पूरी तरह आधारहीन है। भूमि अधिग्रहण कानून का उपयोग सिंचाई, सुरक्षा, विकास और देश के हितों से संबंधित अन्य परियोजनाओं के लिए जमीन मुहैया कराने में किया जाएगा। भाजपा इस विधेयक के सामाजिक प्रभावों का अध्ययन कर रही है। यही उसकी सबसे बड़ी चिंता भी है क्योंकि इस विधेयक की आड़ मेें भाजपा पर किसानों की अवहेलना करने का आरोप भी लग रहा है। इसके लिए भाजपा ने कई धुरंधर नेताओं को आगे किया है और अपने सभी नए और पुराने कार्यकर्ताओं से इस अवधारणा के खिलाफ गांव-गांव जाकर लडऩे की बात की है। अरुण जेटली का कहना है कि किसानों के हित में जो बदलाव किए गए हैं उसके बारे में जानकारी देने के लिए राष्ट्रीय कार्यक्रम बनाया जा रहा है। सरकार एक ऐसा विकास मॉडल बनाने की कोशिश कर रही है, जिससे देश की अर्थ व्यवस्था को उछाल मिलेगा जिसका लाभ गरीबों को नौकरियों और राज्य द्वारा चलाए जाने वाले गरीबी उन्मूलन कार्यक्रमों के रूप में मिलेगा। भूमि अधिग्रहण विधेयक पर कांग्रेस के विरोध का खौफ इस कदर था कि भाजपा अध्यक्ष अमित शाह ने भी अपने उद्घाटन भाषण में कांग्रेस पर हमला बोला। शाह ने कहा कि कांग्र्रेस के पास उठाने के लिए कोई मुद्दा बचा नहीं है। नरेंद्र मोदी ने भी कांग्रेस और विपक्ष पर निशाना साधा, वे भी भूमि अधिग्रहण विधेयक की पुरजोर पैरवी करते नजर आए।
कुल मिलाकर भाजपा की राष्ट्रीय कार्यकारिणी में कोई खास मुद्दा नहीं था। प्रधानमंत्री मोदी ने कहा कि 10 करोड़ सदस्य भाजपा के असली मालिक हैं। लेकिन भाजपा के इस सदस्यता अभियान का मखौल उड़ाया जा रहा है। यह सवाल पूछा जा रहा है कि यह सदस्य क्या करेंगे? 10 करोड़ सदस्य बनने के बाद भी मोदी सरकार की लोकप्रियता घट क्यों रही है? 17 करोड़ मत दाताओं में से 10 करोड़ भाजपा के साथ जुड़ गए लेकिन फिर भी भाजपा दिल्ली चुनाव में बुरी तरह पराजित क्यों हो गई? मोदी ने 45 मिनट तक भाषण दिया, जिसमें 10 करोड़ की संख्या पर विशेष बल दिया लेकिन संख्या से ज्यादा महत्व चुनाव जीतने और चुनाव जीतने के बाद अपनी योजनाएं लागू करने का है, इस विषय पर कोई कुछ नहीं बोला। जून 2013 में जब गोवा में आयोजित राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक में लालकृष्ण आडवाणी ने भाग नहीं लिया था, उस समय नरेंद्र मोदी ने अपने भाषण में सधी हुई बातें कही थीं। 35 वर्ष में पहली बार राष्ट्रीय कार्यकारिणी में आडवाणी मौन रहे और मोदी के भाषण में वह तेज नहीं था। पिछले दिनों सांप्रदायिकता से जुड़े बहुत से मुद्दे मोदी सरकार को परेशान करते रहे हैं। उम्मीद थी कि इस बैठक में उग्र संगठनों को नसीहत देने के लिए पहल की जाएगी लेकिन मोदी और शाह दोनों इस मुद्दे से बचे रहे। कश्मीर को लेकर भी पार्टी का एक तबका पिछले दिनों हुए घटनाक्रम से चिंतित है। मुफ्ती मोहम्मद सईद के साथ तालमेल को लेकर भाजपा में एक राय नहीं है। कश्मीरी पंडितों का विषय भी महत्वपूर्ण बनता जा रहा है। नरेंद्र मोदी की विदेश यात्राएं और चीन के सीमा पर बढ़ते कदमों को लेकर भी कुछ विचार-विमर्श जरूरी है। भाजपा सरकार ने अब तक जो काम किया है उसे जनता तक पहुंचाने और जनता का मिजाज जानने की कोशिश भी होनी चाहिए। बिहार, यूपी के चुनाव में यह बहुत महत्वपूर्ण साबित होगा।