20-Apr-2015 05:45 AM
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मध्यप्रदेश हाउसिंग बोर्ड में मकानों की कीमत बढ़ाने का दंडनीय अपराध इंजीनियरों और अफसरों ने मिलकर किया लेकिन दंड मिला हितग्राहियों को-जिन्होंने 16 प्रतिशत से लेकर 22 प्रतिशत तक ब्याज भुगता और प्रोजेक्ट में देरी के कारण आज तक ब्याज भुगतते हुए बोर्ड के चक्कर काट रहे हैं। हाउसिंग बोर्ड में मकान बुक कराने वाले ज्यादातर सरकारी और प्राइवेट नौकरी वाले हितग्राही होते हैं। जिनकी आमदनी का स्रोत वेतन, जीपीएफ और लोन आदि है। हाउसिंग बोर्ड का प्रोजेक्ट लोन लेकर बुक कराया जाता है। जो लोन बैंक से लिया है उस पर तो ब्याज चढ़ता ही है, हाउसिंग बोर्ड भी किस्त समय पर न देने की स्थिति में 14 प्रतिशत ब्याज वसूलता है। लेकिन हितग्राही की कमर उस वक्त टूटती है, जब ऊंची ब्याज दरों पर लोन चुका रहे हितग्राही को यह फरमान सुनाया जाता है कि कलेक्टर गाइडलाइन के कारण जमीनों के दाम बढऩे से प्रोजेक्ट की कीमत दोगुनी हो चुकी है। लेकिन वह हाउसिंग बोर्ड से टकरा नहीं सकता। क्योंकि हाउसिंग बोर्ड सरकारी भू-माफिया है, जो हाईकोर्ट की डबल बैंच के आदेश की भी धज्जियां उड़ाने की कुव्वत रखता है। अब जाकर बड़ा अहसान जताते हुए हाउसिंग बोर्ड ने हितग्र्राहियों को यह राहत दी है कि वे जिस तारीख में प्रॉपर्टी बुक करेंगे उसी तारीख में जो कीमत है, उसका पैसा हितग्राही से लिया जाएगा। ऐसा निर्णय उन्होंने अपनी बोर्ड बैठक में लिया है। परन्तु वह पुराने प्रोजेक्ट के बारे में बोर्ड ने कोई निर्णय नहीं लिया है। उन्हें तो 2011 के बाद से रिवाइज कलेक्टर गाइड लाइन के मुताबिक ही पजेशन के समय भुगतान करना होगा। सवाल यह खड़ा है कि भोपाल की बहुप्रतिष्ठित तुलसी टावर, किलनदेव, महादेव अपार्टमेंट की बुकिंग तो तत्कालीन आयुक्त के जन्मदिन पर कर ली। पर इन योजनाओं के लिए जो आवश्यक अनुमतियां थीं वह बोर्ड के पास थी ही नहीं। 500, 700 रुपए के कलर फुल ब्रोशर छपवाकर हितग्राहियों को बेवकूफ बनाने का काम बोर्ड के तत्कालीन आयुक्त और इंजीनियरों ने किया है। उन्होंने यह तीनों प्रोजेक्ट कंपलीट होने की तिथि तो 30 महीने में दी थी परन्तु आज इनकी बुकिंग हुए लगभग 5 वर्ष हो चुके हैं परन्तु अभी तक फ्लैट कब मिलेंगे इसके बारे में जवाबदार अधिकारी बताने को तैयार नहीं हैं। और तो और फ्लैट बनने में देरी होने से बोर्ड ने अपनी किश्तों में एक नहीं बल्कि 4-4 बार रिवाइज किया है। ऐसे में बोर्ड का बट्टा बिठालने वाले अधिकारियों के ऊपर 420 का मामला दर्ज होना चाहिए। और साथ ही हितग्राहियों को उनके द्वारा जितना भी पैसा जमा किया हुआ है उस पर 14 प्रतिशत की दर से ब्याज का भुगतान करना चाहिए। रिवेरा टाउन के मामले में तो हाउसिंग बोर्ड को मुंह की खानी पड़ी। इसका खामियाजा उसे सुप्रीम कोर्ट तक भुगतना है और अब सुप्रीम कोर्ट का निर्णय आर्डर के लिए रिजर्व रखा हुआ है। जिस दिन भी यह आदेश प्रसारित होता है उसके बाद बोर्ड अपने अन्य हितग्राहियों के साथ क्या करेगा?
भरोसा तो हितग्राहियों, सरकारी संस्था होने के कारण हाउसिंग बोर्ड पर किया था। परन्तु बोर्ड ने हितग्राहियों के साथ जो 420 की है उसकी भरपाई कैसे होगी। हाउसिंग बोर्ड के मंत्री, अध्यक्ष और अधिकारियों ने आम जनता के मकान बुकिंग के नाम पर पैसे लेकर खूब मौज मस्ती की है। उदाहरण के तौर पर अध्यक्ष को एक चार पहिया गाड़ी की पात्रता है परन्तु अध्यक्ष ऐश करने के लिए चमचमाती गाड़ी बोर्ड से खरीदवाते हैं। और अपने रहन-सहन और ठाठबाठ में कोई कमी नहीं रहने देते हैं। ऐसे ही वहां के अधिकारी हैं। आधा दर्जन से ज्यादा अधिकारियों के ऊपर गंभीर शिकायतों के मामले दर्ज हैं। वहीं पच्चीसों शिकायतें बोर्ड की किसी न किसी जांच एजेंसी के पास लंबित हैं। जिस वक्त इन प्रोजेक्ट की मार्केटिंग की जा रही थी, तब की कीमतों में और आज की कीमतों में जमीन-आसमान का फर्क है। कायदे से तो हर बैठक और हर फैसले के विषय में हाउसिंग बोर्ड को अपने हितग्राहियों को अवगत कराना चाहिए लेकिन बोर्ड के आला अफसर हितग्राहियों को कुछ समझते ही नहीं हैं। मानो हितग्राहियों ने हाउसिंग बोर्ड से मकान लेकर कोई बड़ा अपराध कर डाला हो। बोर्ड का यह रवैया ही असली फसाद की जड़ है।
प्लाट या मकान की मूल्य निर्धारण सूची देखें तो यह साफ हो जाता है कि हाउसिंग बोर्ड की योजनाओं में प्लाट खरीदने वालों को कई और ऐसे भुगतान करने पड़ते हैं जिसके लिए वे सीधे तौर पर जिम्मेदार नहीं हैं। उदाहरण के लिए योजनाओं में जो प्लाट या मकान अनबिके रह जाते हैं उनमें लगने वाले संपत्तिकर, ब्याज के भुगतान की वसूली तो दूसरे उपभोक्ताओं में समान रूप से वितरित कर ही दी जाती है। बड़ा हास्यास्पद तथ्य यह है कि योजनाओं के दौरान होने वाले कानूनी विवाद में हुए खर्च की भरपाई भी उस उपभोक्ता से ही की जाती है जिसका उस कानूनी विवाद से कोई कोई लेना-देना नहीं है। हाउसिंग बोर्ड जमीन अधिग्रहण से लेकर उसको विकसित करने के दौरान सुपरवीजन चार्ज की वसूली तो करता ही है कंटनजेंसी के नाम पर भी एक अच्छी खासी राशि का डाका उपभोक्ताओं की जेब पर डाला जाता है। लागत मूल्य का 30 से 40 प्रतिशत तक जहां पहले ही वसूल लिया जाता है। वहीं बोर्ड की योजना के विज्ञापन में लगने वाले भारी-भरकम खर्चे की वसूली भी उपभोक्ताओं से ही की जाती है। सवाल यह है कि हाउसिंग बोर्ड सभी तरह की अनुमतियां लेने के बाद ही प्रोजेक्ट की घोषणा क्यों नहीं करता? पहले से ही घोषणा करके पंजीयन राशि और किश्तें दबाकर क्यों बैठ जाता है? ऐसे कई मामले हैं जब भवन अनुज्ञा और एनजीटी की हरी झंडी मिले बगैर हाउसिंग बोर्ड ने पैसे ले लिए। फरवरी 2009 में छिंदवाड़ा के इंटीरियल में स्थित चंदनगांव में डुप्लेक्स का विज्ञापन समाचार पत्रों में प्रकाशित करवाया था जिसमें सीनियर एचआईजी का मूल्य 15 लाख 40 हजार रुपए रखा गया जो 25 मई 2009 को बढ़कर 15 लाख 67 हजार रुपए हो गया, बाद में जब प्रोजेक्ट पूरा होने को था तब अक्टॅूबर 2011 में सभी ग्राहकों को 29 लाख 85 हजार रुपए जमा करने को कहा गया। अब लगने लगा है कि देर सबेर मकान तो मिलेगा पर उसकी कीमत बुकिंग की कीमत से कितने प्रतिशत अधिक होगी इसका आकलन तो पजेशन के समय ही पता चलेगा। और पजेशन के बारे में अभी जवाबदारों के पास कोई जवाब नहीं है।