06-Apr-2015 02:38 PM
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पाकिस्तान ने 23 मार्च को पाक दिवस मनाया। दिल्ली में पाकिस्तानी उच्चायोग ने डिनर रखा और उसमें कश्मीरी अलगाववादी नेताओं को भी बुलाया। भारत सरकार का प्रतिनिधित्व विदेश राज्यमंत्री

वी.के. सिंह ने किया। इस पूरे घटनाक्रम में भारत की कूटनीति कहीं न कहीं सवालों के घेरे में घिरती नजर आई। जब पाकिस्तान ने अलगाववादियों को बुलाने से परहेज नहीं किया तो भारत सरकार को अपना प्रतिनिधि भेजने की क्या विवशता थी? जनरल वी.के. सिंह बेमन से गए, लौटने के बाद उन्होंने ट्वीट किया और कहा कि ये उनका कर्तव्य था जिसे वे करने के लिए बाध्य थे। जाहिर है वे नाराज थे, वैसे भी सिंह कोई राजनीतिक तो हैं नहीं। उनके अंदर एक सैनिक है, जो यह बर्दाश्त नहीं कर सकता कि उसके देश की अखंडता को चुनौती देने वाले की मेहमाननवाजी स्वीकार की जाए। भारत यदि इस कार्यक्रम में अपना प्रतिनिधि नहीं भेजता तो कोई पहाड़ नहीं टूट जाता। भारत ने शुरु से ही यह शर्त रखी है कि वह केवल पाकिस्तान से बात करेगा और पाकिस्तान से बात भी तभी हो सकेगी, जब सीमा पार से आतंकवाद रुकेगा। लेकिन न तो आतंकवाद रुका है और न ही पाकिस्तान ने भारत की भावनाओं का सम्मान किया। शिमला समझौते में भी कहा गया है कि बातचीत में तीसरा पक्ष नहीं होगा।
शिमला समझौता पाकिस्तान के एक निर्वाचित राष्ट्राध्यक्ष ने किया था, यदि पाकिस्तान अपने ही पूर्व राष्ट्राध्यक्ष द्वारा किए गए समझौते का उल्लंघन करने को तत्पर है, तो पाकिस्तान दिवस में भारत सरकार का प्रतिनिधि भेजना न तो बुद्धिमानी है और न ही औचित्यपूर्ण। पाकिस्तान सीमा पार से आतंकवादी भेज रहा है, भारत की जमीन पर कश्मीरी अलगाववादियों को एक नहीं कई बार न्यौतने का दुस्साहस कर चुका है, खुलेआम उन्हेंं शह दे रहा है। पाकिस्तान में मुंबई हमले के आरोपी हमलावर लखवी को जमानत मिल चुकी है और अंतर्राष्ट्रीय मंचों पर पाकिस्तान कश्मीर पर मध्यस्थता की भीख मांग रहा है। इसे देखकर तो लगता है कि भारत की विदेश नीति फिर से दयनीय हालात में है, बल्कि उससे भी बदतर है जैसी मनमोहन सिंह के समय थी। तब कश्मीर मुद्दे पर बहुत कुछ ढंका हुआ था लेकिन अब तो सब बेनकाब हो चुका है। कश्मीर का मुख्यमंत्री अलगाववादी आतंकवादी को रिहा करने का दुस्साहस करता है और केंद्र सरकार शांत बनी रहती है। नरेंद्र मोदी जब सत्तासीन हुए थे तो लगा था कि एक निडर प्रधानमंत्री देश की सत्ता पर बैठा है, लेकिन पाकिस्तान और कश्मीर को लेकर पिछले दिनों जो घटनाएं घटी हैं उससे मोदी की कमजोरी उभरकर सामने आ गई है। मोदी कश्मीर पर जब तक साहस नहीं दिखाएंगे उन्हें कुछ हासिल नहीं होगा। महज दो राज्य सभा सीटों के लिए जम्मू कश्मीर में मुफ्ती मोहम्मद सईद से समझौता करना भाजपा को ऐतिहासिक नुकसान पहुंचा सकता है। इससे तो बेहतर था कि भाजपा विपक्ष में बैठती क्योंकि मुफ्ती मोहम्मद सईद ने सत्ता ही नहीं सत्ता का रिमोट भी अपने हाथ में रखा है। उनके मुख्यमंत्री बनने के बाद पाकिस्तान ने जिस तरह का स्टेंड लिया है वह खतरनाक है।
सवाल पाकिस्तान दिवस का नहीं है, सवाल यह भी है कि पाकिस्तानी उच्चायुक्त सामान्य शिष्टाचार भी भूल रहे हैं। पहले पाकिस्तान इस बात का ख्याल रखता था कि भारत में जो भी कार्यक्रम आयोजित हों उनमें कोई अप्रिय स्थिति न बने, भारत भी पाकिस्तान में अपने उच्चायुक्त को किसी भी प्रकार के विवाद में पडऩे से रोकता रहा है। लेकिन अब यह खुला खेल हो चुका है। अलगाववादियों को शह देना पाकिस्तानी रणनीति का हिस्सा है। वह चाहता है कि भारत इस पर कठोर प्रतिक्रिया दे और बातचीत टूट जाए ताकि पाकिस्तान विश्व समुदाय से यह कह सके कि हम बातचीत के लिए तैयार हैं लेकिन भारत राजी नहीं है। इसीलिए यह बेहतर होता कि सिंह इस कार्यक्रम में जाने से मना कर देते। पहले भी कई मौकोंं पर बहुत से मंत्रियों ने पाकिस्तान उच्चायोग के कार्यक्रम में जाने से इनकार कर दिया था।
यदि वी.के. सिंह मना करते तो संभव है कि उन पर कोई दबाव भी नहीं बनाता। पर पाकिस्तान को एक स्पष्ट संदेश अवश्य मिल जाता, लेकिन इस कार्यक्रम में जाकर वी.के. सिंह को मीरवाईज, उमर फारूख, सैय्यद अली शाह गिलानी, यासीन मलिक जैसे कश्मीरी अलगाववादियों के बीच खड़ा होना पड़ा। यह निश्चित ही अपमानित होने के समान था। वी.के. सिंह का गुस्सा जायज है लेकिन सरकार की निष्क्रियता माफ नहीं की जा सकती।
- राजेश बोरकर