18-Mar-2015 11:10 AM
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मोदी सरकार ने बीमा में 49 प्रतिशत विदेशी निवेश स्वीकृत किए जाने संबंधी विधेयक पारित हो जाने के बाद राहत की सांस ली है लेकिन भूमि अधिग्रहण विधेयक पर टकराव

बना हुआ है। लोकसभा में पारित हो जाने के बाद भी सरकार राज्यसभा में इस विधेयक के पारित होने को लेकर आश्वस्त नहीं है। संयुक्त सत्र बुलाया जा सकता है। यदि ऐसा हुआ तो सरकार की किरकिरी होगी और विपक्ष को एक और मुद्दा बैठे बिठाए मिल जाएगा। बिहार में अक्टूबर माह में चुनाव होने है। कृषि प्रधान बिहार राज्य में ये विधेयक चुनावी मुद्दा बन सकता है। यदि सरकार ने इसे संख्या बल के आधार पर संयुक्त सत्र में पारित कराया तो आने वाले समय में भी कई विधेयकों पर समस्या जाएगी। जब तक राज्यसभा में बहुमत न हो सरकार को फंूक-फूंक कर कदम रखने होंगे। राष्ट्रपति के अभिभाषण पर धन्यवाद प्रस्ताव गिरने से सरकार की बहुत बदनामी हुई है। 9 अध्यादेश जारी कर चुकी सरकार अब अध्यादेश लाने का विचार नहीं कर रही क्योंकि राष्ट्रपति ने अध्यादेश पर सरकार को चेतावनी दी है।
कांग्रेस पहले ही कह चुकी है कि वह भूमि अधिग्रहण विधेयक के मौजूदा स्वरूप से सहमत नहीं है। उधर नीतिश कुमार ने घोषणा कर दी है कि वे बिहार में इस कानून को लागू नहीं होने देंगे। सरकार की एकमात्र उपलब्धि यह है कि इस विधेयक पर एनडीए के घटक दल एकजुट थे। जबकि विपक्ष का कहना था कि सरकार ने प्रस्ताव में केवल कार्पोरेट घरानों के हितों को ध्यान में रखा। मोदी सरकार पहले तो इस विधेयक में संशोधन नहीं करना चाहती थी, लेकिन बाद में संशोधन करने का फैसला इसलिए लिया, क्योंकि उसने विभिन्न तथ्यों के आधार पर यह मान लिया कि अगर भूमि-अधिग्रहण संबंधी प्रावधानों में बदलाव नहीं किया गया तो औद्योगिक निवेश घटकर आधा रह जाएगा। भूमि अधिग्रहण कानून 2013 में भूमि-स्वामियों की अनुमति लेने संबंधी ऐसे प्रावधान थे, जिससे व्यावसायिक हित प्रभावित हो सकते थे। नीतिगत पंगुपन को दूर करने के वादे पर जीतकर सत्ता में आई मोदी सरकार उन तमाम निर्णयों को उलट देने पर आमादा थी, जिनके बारे में उसे लगता था कि वे भारत की घटती विकास दर के लिए जिम्मेदार हैं। कॉर्पोरेट समूहों में व्याप्त मायूसी के लिए मुख्यत: भूमि-अधिग्रहण कानून और पर्यावरणगत मंजूरी संबंधी सख्त नियमों को जिम्मेदार माना गया था। साथ ही सरकार विदेशी निवेशकों को भी यह संदेश देना चाहती थी कि वे भारत में आकर मजे से व्यापार कर सकते हैं और उन्हें इसमें किसी शासकीय बाधा का सामना नहीं करना पड़ेगा। भूमि अधिग्रहण कानून के चलते भूमि प्राप्त करना टेढ़ी खीर साबित हो रहा था और सरकार व्यवसायियों को गारंटी देना चाहती थी कि अब उन्हें ऐसी कोई दिक्कत नहीं पेश आएगी।
सरकार के महत्वाकांक्षी मेक इन इंडियाÓ प्रोजेक्ट के लिए भी सरल-सुलभ भूमि अधिग्रहण बहुत जरूरी है। यहां पर सरकार का विशेष जोर रक्षा उत्पादों पर है, जिनका आज भारत बड़े पैमाने पर आयात करने को मजबूर है। रक्षा उपकरण बनाने के लिए बड़ी मात्रा में भूमि की आवश्यकता होती है। संसद के शीतकालीन सत्र में जब सरकार अपने भूमि अधिग्रहण विधेयक को पारित करवा पाने में नाकाम रही थी, तो वह इस संबंध में अध्यादेश ले आई थी। वास्तव में वह ऐसा करके निवेशकों को यह संदेश देना चाहती थी कि वह अपने वादों को पूरा करने के लिए कटिबद्ध है और वह विपक्षी दलों के दबाव में नहीं आने वाली। भाजपा की एक दुविधा यह भी है कि वर्ष 2013 में जब भूमि अधिग्रहण कानून पास किया गया था, तब भाजपा उसकी विधायी प्रक्रिया में सम्मिलित थी। वह विधेयक राय-मशविरे की एक लंबी प्रक्रिया के बाद कानून की शक्ल ले सका था। अब भाजपा के लिए इतनी जल्दी उस कानून की काट करना मुश्किल साबित हो रहा है। आज संसद में भाजपा को जिस तरह की परेशानी का सामना करना पड़ रहा है, उसका कारण महज इतना ही नहीं है कि राज्यसभा में उसके पास पर्याप्त सीटें नहीं हैं, कारण यह भी है कि उसे जमीनी स्तर पर इस विधेयक को लेकर कड़े विरोध का सामना करना पड़ रहा है। अण्णा हजारे, एकता परिषद आदि इस विधेयक के विरोध में प्रदर्शन कर चुके हैं। अकाली दल और शिवसेना जैसे भाजपा के सहयोगियों को भी इस पर कड़ी आपत्ति है। दिल्ली विधानसभा चुनावों में भाजपा को जैसी करारी शिकस्त मिली, उससे भी कुछ हद तक उसके होश ठिकाने आए हैं। चुनावों के दौरान आम आदमी पार्टी ने भूमि अधिग्रहण कानून को दिल्ली के देहाती इलाकों में एक चुनावी मुद्दा बनाया था और भाजपा की हार में इसने भी अपना योगदान दिया था।
-अक्स ब्यूरो