व्यापमं बनाम तिवारी गैंग बड़ा गुनाहगार कौन?
18-Mar-2015 10:16 AM 1234885

खता किसकी बड़ी है, सजा किसको मिलेगी
यह फैसला भी अब, मुंसिफ पर छोड़ दो
एक तरफ व्यापमं है और दूसरी तरफ पूर्व विधानसभा अध्यक्ष श्रीनिवास तिवारी द्वारा देश के कानून की धज्जियां उड़ाते हुए की गई मनमानी नियुक्तियां हैं। एक में सिस्टम को हाईजैक करने की कोशिश की गई, तो दूसरे में सिस्टम ही बदल डाला गया। एक में अपनों को उपकृत करने के लिए नियमों से खेला गया, तो दूसरे में भ्रष्टाचार के जरिये मासूम लोगों का हक मारा गया। दोनों मामलों में अनैतिकता की सारी सीमाएं पार करते हुए धोखा, जालसाजी और गंभीर अपराध किए गए लेकिन जो जिम्मेदार थे, उन्होंने आंखें मूंदे रखीं। आज श्रीनिवास तिवारी द्वारा की गई सैंकड़ों अवैध नियुक्तियों और व्यापमं में लंबे समय से जारी भ्रष्टाचार के चलते जितने दिग्विजय सिंह दोषी हैं, उतना ही दोष शिवराज पर भी आ रहा है। निजी जीवन में वे अवश्य ईमानदार हैं। उनके चरित्र और आचरण पर कोई संदेह नहीं है लेकिन जब काफिले की दौलत लुटती है तो रहनुमाओं पर पहले गाज गिरती है।
व्यापमं से लेकर श्रीनिवास तिवारी एंड कंपनी द्वारा किए गए घालमेल तक सारी कहानी इसी सच को बयां कर रही है कि सत्ता पाने के बाद किसी भी हद तक जाकर मनमानी की जा सकती है। स्वार्थ और दबाव कितना हो सकता है, इसका प्रत्यक्ष उदाहरण दिग्विजय सिंह द्वारा श्रीनिवास तिवारी के कार्यकाल में की गई अनियमितताओं से मुंह मोडऩा और उन कारगुजारियों को एक तरह से परोक्ष समर्थन देना है। दिग्विजय कभी मनगवां में श्रीनिवास तिवारी के जन्म दिवस पर गए थे, तो वहां उन्होंने मंच से ही कहा था कि भले ही मैं मध्यप्रदेश का मुख्यमंत्री हूँ लेकिन रीवा के मुख्यमंत्री तो श्रीनिवास ही हैं। दिग्विजय के द्वारा प्रदत्त इस असीम शक्ति का तिवारी ने भरपूर दुरुपयोग कर दिखाया। अपने नाते-रिश्तेदारों को बिना किसी योग्यता के सरकारी नौकरी दिलवा दी, पहचान वालों को उपकृत किया, विधानसभा अध्यक्ष के रूप में भी शक्तियों का दुरुपयोग करते हुए अयोग्य लोगों की महत्वपूर्ण पदों पर नियुक्ति की और जितना अधिक हो सकता था अपने पद का,  रसूख का भरपूर दुरुपयोग किया।
ऐसा नहीं है कि तिवारी की कारगुजारियों की किसी को जानकारी नहीं थी, जिस तरह व्यापमं से पहले सागर जिले में मुन्नाभाई पकड़ाए थे उसी तरह तिवारी द्वारा बार-बार की जा रही गलत नियुक्तियों का मामला भी एक नहीं अनेक बार सामने आया था। लेकिन दिग्विजय के साथ-साथ जिम्मेदार लोग आंख मूंदे रहे। ठीक उसी तरह जिस तरह व्यापमं में शिवराज की नाक के नीचे घोटाला होता रहा और शिवराज को भनक तक नहीं लगी।
दिग्विजय सिंह को तभी जाग जाना था, जब वर्ष 1999 में रामचरण पटेल ने जबलपुर हाईकोर्ट में तत्कालीन विधानसभा अध्यक्ष श्रीनिवास तिवारी के खिलाफ रिट पिटिशन नंबर 4230 दायर करके आरोप लगाया था कि श्रीनिवास तिवारी सरकार और अपने अधीनस्थों पर दबाव बनाकर गलत काम कर रहे हैं तथा परिवार के सदस्यों, रिश्तेदारों और निकट के लोगों को अवैध तरीके से लाभांवित करने की कोशिश कर रहे हंै। हाईकोर्ट ने यह रिट पिटिशन यह कहते हुए खारिज कर दी कि इन आरोपों को पीआईएल के तहत एक्जामिन नहीं किया जा सकता। तिवारी की कारगुजारियों पर यह पहली बड़ी आपत्ति दर्ज कराई गई थी। हालांकि सत्ता के गलियारों में तो वर्षों पहले से ही तिवारी के कारनामे दबी जुबान से बताए जा रहे थे। रामचरण पटेल ने हाईकोर्ट से याचिका खारिज होने के बाद अगले वर्ष सुप्रीम कोर्ट में स्पेशल लीव पिटिशन क्रमांक 319/2000 दायर की, जिसे सिविल अपील क्रमांक 1353/2001 निरूपित करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने व्यवस्था दी कि हाईकोर्ट प्रतिवादी को नोटिसिंग किए बिना और उनका उत्तर प्राप्त किए बिना याचिका को खारिज नहीं कर सकता। इस तरह अपील स्वीकार की गई और मामला प्रतिपे्रषित किया गया, लेकिन तब भी मध्यप्रदेश सरकार नहीं चेती।
बाद में जब तिवारी के खिलाफ अल्प आय वर्ग हाउसिंग सोसायटी में भ्रष्टाचार और कुपं्रबंधन का मामला उजागर हुआ, तो कोऑपरेटिव सोसायटी के संयुक्त पंजीयक शैलेन्द्र सिंह ने जांच-पड़ताल की। इससे पहले कोऑपरेटिव सोसायटी रीवा में पदस्थ सुयुंक्त पंजीयक एलएन खत्री पर जानलेवा हमला किया जा चुका था, क्योंकि उन्होंने श्रीनिवास तिवारी की अवैध कारगुजारियों को अंजाम देने से मना कर दिया था। शैलेन्द्र सिंह ने खत्री पर हुए हमले की भी जांच-पड़ताल की, उस वक्त हाईकोर्ट में दायर याचिका में यह साफ दिख रहा था कि सोसायटी के रिकार्ड में व्यापक पैमाने पर गड़बड़ी की गई है। ओवर राइटिंग, बाद में कुछ जोडऩा, अतिरिक्त पृष्ठ लगाने से लेकर तमाम तरह की गड़बडिय़ां करते हुए तिवारी ने सोसायटी बनाकर प्लाट जिस तरह आवंटित किए, वह एक बड़ा भूमि घोटाला था लेकिन सरकार तिवारी की कारगुजारियों की तरफ से आंख मूंदी रही, तत्कालीन मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह ने भी कोई एक्शन नहीं लिया।
तभी 2003 में जब सरकार बदली, तो हाईकोर्ट के आदेश पर नई सरकार ने नरोन्हा अकादमी के प्रबंध निदेशक डॉ. जे.एल. बोस को इस मामले की जांच का दायित्व सौंपा। बोस ने जांच-पड़ताल करके अपनी रिपोर्ट तत्कालीन मुख्य सचिव को भेज दी, जो मुख्यमंत्री के समक्ष रखी गई थी। लेकिन बाद में जब इस रिपोर्ट की फोटोकॉपी अथवा मूल कॉपी मांगी गई, तो पता चला कि डॉ. जे.एल. बोस की रिपोर्ट ही रिकार्ड से गायब है। इतनी गंभीर अनियमितता जानबूझकर हुई या लापरवाही के कारण, कहना मुश्किल है। लेकिन इससे यह तो अंदाजा लगाया जा सकता है कि भ्रष्टों के प्रति प्रशासन का क्या रवैया रहता है। तिवारी भाजपा के शासनकाल में भी बचे रहे। वर्ष 2006 में जब जस्टिस शचीन्द्र द्विवेदी ने जीएडी के प्रिसिंपल सेक्रेटरी को श्रीनिवास तिवारी के खिलाफ की गई जांच रिपोर्ट सौंपी, उस वक्त भी तत्कालीन सरकार सोयी रही। चोर-चोर मौसेरे भाई। राजनीतिज्ञ एक-दसरे की करतूतों को ढांकते हैं। व्यापमं मामले के उजागर होने के बाद भाजपा भी आशा लगाए बैठी थी, कि कांग्रेस वैसे ही क्रद्गष्द्बश्चह्म्शष्ड्डद्य बनी रहेगी। लेकिन कांग्रेस ने पहले डंपर और बाद में व्यापमं पर आक्रामक रवैया अख्तियार कर लिया। 2015 की फरवरी में जब व्यापमं को लेकर दिग्विजय सिंह खुद मैदान में आ गए और उधर विधानसभा में विपक्ष ने मुख्यमंत्री को बोलने नहीं दिया, तो शिवराज सिंह की सरकार तिलमिला गई और गड़े मुर्दे उखाड़ दिए गए।
90 वर्षीय तिवारी तथा मध्यप्रदेश की राजनीति में अपनी जड़ें तलाश रहे दिग्विजय सिंह और 17 अन्य लोगों के खिलाफ 9 वर्ष पुराने मामले में आईपीसी की धारा 420, 468, 471 और 120 बी के तहत एफआईआर दर्ज की गई। जब एफआईआर दर्ज होने में ही 9 साल लग जाएं, तो किसी महत्वपूर्ण दस्तावेज का गुमना या रिपोर्ट लापता हो जाना कौन सा बड़ा अपराध है। यही कारण है कि जिस तंत्र ने व्यापमं घोटाला करने के लिए सिस्टम एनालिस्ट से लेकर उच्च अधिकारियों तक सब जगह अपने गुर्गे बैठाए, वही तंत्र श्रीनिवास तिवारी की कारगुजारियों की अनदेखी करता रहा। सत्ता बदली थी चरित्र नहीं, चेहरे बदले थे कर्म तो वही थे। यदि उस वक्त दिग्विजय श्रीनिवास तिवारी को मनमानी करने की छूट नहीं देते, तो शायद व्यापमं भी बहुत पहले उजागर हो जाता। लेकिन जिस कांगे्रसी राज में सिगरेट की पर्ची पर लिखकर नियुक्तियां हो जाती हों, वहां तिवारी की तानाशाही तो एक बहुत छोटा सा उदाहरण था। व्यापमं में चालाकी और धूर्तता से सरकारी मशीनरी, कम्प्यूटर तकनीक का दुरुपयोग करते हुए सारी गड़बडिय़ों को वैधता प्रदान करने और बच निकलने के रास्ते तलाशे गए। व्यापमं इतनी बारीकी से किया गया कि पकडऩे वाले या पड़ताल करने वालों को पसीने छूट जाएं। लेकिन तिवारी ने तो जो कुछ किया, खुले आम किया। सीना तान कर किया।
उनकी तमाम कारगुजारियों मेें से कुछ पर नजर डालते हैं। 1993 मेें विधानसभा अध्यक्ष बनने के बाद श्रीनिवास तिवारी ने सत्यनारायण शर्मा को अपने निजी स्टॉफ में भर्ती कर लिया। वह केवल हायर सेकेण्ड्री था, लेकिन उसे एलडीसी बना दिया गया। एलडीसी के लिए हायर सेकेण्ड्री के साथ-साथ टाइपिंग पास होना भी जरूरी होता है, पर मूक होई वाचाल, पंगु चढ़हिं गिरिवर गहन- अपने कृपापात्र सत्यनारायण शर्मा को असत्य दस्तावेजों के आधार पर 2 वर्ष के लिए प्रोबेशन पर श्रीनिवास तिवारी द्वारा नियुक्त कर दिया गया। प्रोबेशन अवधि पूरी भी नहीं हो पाई थी कि तिवारी की कृपा से सत्यनारायण शर्मा बिना किसी योग्यता के उनके निजी स्टॉफ में सहायक गे्रड-1 नियुक्त कर दिए गए, जबकि इस पद के लिए न्यूनतम योग्यता कानून या समकक्ष विषय से स्नातक है। शर्मा पर तिवारी की कृपा यहीं नहीं रुकी, उसके बाद उन्हें कटनी नगर निगम में रेवेन्यु इंस्पेक्टर बनाकर भेज दिया गया। एक अन्य कमलकांत शर्मा भी इसी तरह तिवारी के निजी स्टॉफ में सहायक ग्रेड-1 पर नियुक्त होकर मात्र हायर सेकेण्ड्री की मार्कशीट के भरोसे कटनी नगर निगम के रेवेन्यु इंस्पेक्टर बन गए। इस मामले को हाईकोर्ट में चुनौती दी गई। विवाद गहराते देख तिवारी ने दोनों को वापस अपने स्टॉफ में बुला लिया और उनके लिए सहायक के दो नए पद भी सृजित किए गए। यह सब कैबिनेट की स्वीकृति से हुआ यानी तत्कालीन मुख्यमंत्री की भी सहमति थी। इसके बाद हायर सेकेण्ड्री सत्यनारायण शर्मा किस तरह विधानसभा के अंडर सेके्रटरी के पद तक पहुंचा, वह पूरी कहानी नियमों के मखौल उड़ाने जैसी है। सत्यनारायण शर्मा को 6 जुलाई 1995 में सेक्शन ऑफिसर बना दिया गया और 2 फरवरी 1996 को एक नियुक्ति पत्र द्वारा डिप्टी सेक्रेटरी बना दिया गया, 15 दिसंबर 1997 को मैट्रिक पास सत्यनारायण विधानसभा सचिवालय में अन्डर सेक्रेटरी बन गया जबकि दोनों कॉडर बिल्कुल अलग थे। न विज्ञापन निकला, न साक्षात्कार हुआ सीधे नियुक्ति कर दी गई। व्यापमं में तो विज्ञापन भी निकले, साक्षात्कार भी हुआ पर नियुक्तियां उन्हीं की हुईं जिन्होंने लाखों खर्च किए।
तिवारी यहीं नहीं रुके, उन्होंने 17 से अधिक नियुक्तियां विधानसभा में ऐसी कराईं (देखें बॉक्स) जिन्हें बाद में अन्य विभागों में प्रतिनियुक्ति पर भेज दिया गया या संविलियन कर लिया गया। बिना किसी योग्यता के, बिना किसी विज्ञापन के, बिना किसी साक्षात्कार के- सिर्फ इसलिए क्योंकि वे या तो तिवारी के रिश्तेदार थे या उनके खासमखास थे। रसूख इतना कि निजाम बदले 12 वर्ष होने आए हैं, लेकिन तिवारी के द्वारा नियुक्त गुर्गों को हाथ लगाने की हिम्मत किसी में नहीं है। कारण कि हमाम में सभी नंगे हैं। यदि तिवारी ने सीधे-सीधे कानून को अपनी जेब में रखा, तो व्यापमं एण्ड गैंग ने कानून को हवा तक नहीं लगने दी।
विधानसभा अध्यक्ष का निजी स्टॉफ विधानसभा सचिवालय से पूर्णत: अलग रहता है। इसके लिए तिवारी के समय मात्र 2 लाख सालाना बजट था लेकिन उन्होंने कई गुना ज्यादा खर्च किया। विधानसभा सचिवालय में कर्मचारी या तो डेपुटेशन या प्रमोशन द्वारा आते हैं। लेकिन तिवारी ने अपने रसूख का इस्तेमाल कर विधानसभा सचिवालय और निजी स्टॉफ दोनों जगह मनमानी नियुक्तियां करवाईं। सत्यनारायण शर्मा को तो एक्साइज ऑफिसर बनवा दिया। जबकि एक्साइज ऑफिसर की नियुक्ति राज्य लोक सेवा आयोग द्वारा ही संभव है। शर्मा की नियुक्ति को राज्य प्रशासनिक ट्रिब्यूनल में चुनौती दी गई और रद्द कर दिया गया। उसके बाद शर्मा ने जब विधानसभा सचिवालय में अण्डर सेके्रटरी के रूप में सेवा जारी रखने की इच्छा जताई, तो उनके कृपानिधान तिवारी ने उन्हें फिर से अण्डर सेके्रटरी के पद पर बहाल कर दिया। इसके लिए न तो एक्साइज विभाग से पूछा और न ही किसी से सलाह ली। 17 नवंबर 1999 को एक ही आदेश में वापस पद पर बहाली तथा 2 फरवरी 1996 से विधानसभा सचिवालय में स्थायी नियुक्ति प्रदान कर दी गई। मजे की बात तो यह है कि 2 फरवरी 1996 को शर्मा सचिवालय में पदस्थ ही नहीं था बल्कि विधानसभा अध्यक्ष के निजी स्टॉफ में था।
ऐसा नहीं था कि उस वक्त तिवारी की कारगुजारियों पर किसी की नजर नहीं थी। जीएडी तथा उस वक्त स्थानीय स्वशासन मंत्री ने इन नियुक्तियों पर सवाल उठाए थे, पर तत्कालीन मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह ने जिसे खुली छूट देकर रखी हो, उसे भला कौन रोक सकता है। सत्यनारायण शर्मा और कमलकांत शर्मा के मामले में तो तत्कालीन मुख्यमंत्री ने खुद आदेश दिए थे। इसका अर्थ यह हुआ कि इस पूरे घोटाले में दिग्विजय खुलकर शामिल थे? नियमों की धज्जियां उड़ाई जा रही थीं, कानून का मखौल बना दिया गया लेकिन दिग्विजय सिंह धृतराष्ट्र की तरह आंखें मूंदे रहे। ठीक वैसे ही जैसे व्यापमं में काली करतूतें परत दर परत खुलने के बावजूद एक्शन लेने में 5 साल की देरी कर दी। गनीमत है मुख्यमंत्री शिवराज सिंह ने खुद आगे बढ़कर व्यापमं में कारगुजारियों को बेनकाब करने और दोषियों को दंडित करने का साहस कर दिखाया। लेकिन श्रीनिवास तिवारी का भय कह लें या दबाव, दिग्विजय सिंह शांत बने रहे। 17 नियुक्तियों में गड़बड़ी तो घोटाले के महासागर की कुछ बूंद ही हैं। रीवा विश्वविद्यालय से लेकर महाकौशल और बघेलखंड की तमाम सहकारी संस्थानों, सरकारी विभागों, वल्लभ भवन में सैकड़ों की संख्या में नियुक्तियां की गईं।
तिवारी के गृह नगर के निकट तिवानी गांव में जनता हायर सेकेण्ड्री स्कूल का किस्सा भी भाई-भतीजावाद और भ्रष्टाचार के इतिहास में स्वर्णाक्षरों में लिखे जाने लायक है। इस स्कूल की स्थापना 1977 में की गई थी, जिसके संस्थापक अध्यक्ष श्रीनिवास तिवारी थे। 1995 में तिवारी ने इस स्कूल को जिसमें गिने-चुने बच्चे ही आते थे, सरकारी स्कूल बनवा दिया। उस समय 12 की संख्या में स्टॉफ को नियमित कर दिया गया। यह सारे तिवारी के रिश्तेदार ही थे, लेकिन इसके बाद जो हुआ वह किसी माफिया डॉन की फिल्मी पटकथा के समान है। सरकार ने स्कूल में कुछ अतिरिक्त पद स्वीकृत किये और श्रीनिवास तिवारी के कजिन के सुपुत्र गिरधारी लाल को उच्च श्रेणी शिक्षक बनवा दिया। गिरधारी लाल बार काउंसिल मप्र में रजिस्टर्ड थे, वे प्रेक्टिस भी कर रहे थे और वेतन भी ले रहे थे। श्रीनिवास तिवारी के सगे भाई जगदीश तिवारी की वधु अनुज तिवारी को लैक्चरर का पद स्वीकृत किया गया। इसी तरह चंद्रकला तिवारी जो कि श्रीनिवास तिवारी की रिश्तेदार थीं, स्कूल में नियुक्त कर दी गईं।
स्कूल में जिसे सरकारी बना दिया गया था, तिवारी परिवार के सदस्यों का नियुक्त होना इतना आसान था कि जैसे वे इसी स्कूल में नौकरी करने के लिए पैदा हुए हों। तिवारी के सुपुत्र सुंदरलाल तिवारी भी जनता हायर सेकेण्ड्री स्कूल में लैक्चरर बन गए। एक अन्य रिश्तेदार मालती तिवारी जो जबलपुर में ब्यूटी पार्लर चला रही थीं, वे भी लैक्चरर बन गईं। मित्रा शुक्ला, कृष्णा दास के अलावा भी कई नियुक्तियां की गईं। एक ही स्कूल में इतने रिश्तेदारों का रातों-रात सरकारी कर्मचारी बन जाना, किसी विश्व रिकार्ड से कम नहीं है।
वे जिसे चाहें उपकृत कर सकते थे। उनके अमृत दिवस (75वें जन्मदिवस) पर दिग्विजय सिंह ने तो उनकी तारीफों के पुल बांधे ही थे लेकिन किन्हीं रामसुमन पांडे ने श्रीनिवास तिवारी की तुलना राम से करते हुए उनकी प्रशंसा में एक आर्टिकल लिख दिया था। पांडे जबलपुर विश्वविद्यालय में अनियमितता के कारण निलंबित चल रहे थे। इस आलेख के बाद उनकी बहाली कर दी गई और बाद में उन्हें रीवा विश्वविद्यालय में रजिस्ट्रार बना दिया गया फिर तिवारी ने पांडे के मार्फत कई महाविद्यालय रीवा जिले में खुलवाए जिनमें नियमों के साथ खुलकर खेला गया। यह तो चंद उदाहरण हैं। जिन 17 मामलों मेंं एफआईआर की गई है वे भी बहुत थोड़े हैं। सैकड़ों नियुक्तियां बिना किसी पर्याप्त योग्यता और आवश्यक प्रक्रिया अपनाए की गई। दस साल लगातार यह खेेल चलता रहा। कहने को तो सरकारी नौकरियों पर प्रतिबंध लगा हुआ था लेकिन तिवारी कहीं भी किसी भी विभाग में पद सृजित करवा सकते थे और अपने खासमखास को नौकरी दिलवा सकते थे।
आज 90 वर्ष की उम्र में उनके खिलाफ एफआईआर हुई है। फैसला आने में दशकों लग जाएंगे। ठीक वैसे ही जैसे व्यापमं में अभी तक यह पता नहीं है कि इसे परदे के पीछे से कौन संचालित कर रहा था।  न तिवारी और न ही दिग्विजय कोई भी नहीं फंसने वाला।
तिवारी के भाजपा नेताओं से कितने मधुर संबंध हैं यह ऊपर फोटो में दिख रहा है। मध्यप्रदेश के गृहमंत्री बाबूलाल गौर उन्हें नमन कर रहे हैं। बड़ों का सम्मान करना चाहिए इसमें कुछ बुरा नहीं है लेकिन न्याय सर्वोपरि है।  तिवारी के बाद भी जो विधानसभा अध्यक्ष आए उनके कार्यकाल में अनियमितता नहीं हुई होंगी इसकी गारंटी कौन दे सकता है। फर्क इतना है कि अभी उनका कुछ पता नहीं चला है। पता चल भी गया तो किसी का क्या बिगडऩे वाला है।

विस में अवैध नियुक्तियां
कर्मचारी का नाम    विधानसभा में नियुक्ति     विभाग जहां प्रतिनियुक्ति
का पद    या संविलियन किया गया
सत्यनारायण शर्मा    निम्न श्रेणी लिपिक एवं विभिन्न पद    निम्न श्रेणी लिपिक से लेकर
सचिव पद तक विभिन्न पदोन्नति
पर अवैध नियुक्ति/प्रतिनियुक्ति
/संविलियन।
कमलकांत शर्मा    निम्न श्रेणी लिपिक एवं विभिन्न पद    निम्न श्रेणी लिपिक से लेकर अपर
सचिव पद तक विभिन्न पदोन्नत पर
अवैध नियुक्ति/प्रतिनियुक्ति/संविलियन।
डॉ. ए.के पयासी    अपर सचिव पद पद प्रतिनियुक्ति/    मुख्य नगर पालिका अधिकारी श्रेणी-3
संविलियन     से विभिन्न पदों पर नियुक्ति/प्रतिनियुक्ति
/संविलियन होते हुए प्रमुख सचिव पद तक।
देवेन्द्र तिवारी    उपयंत्री/सहायक यंत्री    वर्तमान में नगर निगम भोपाल में नगर यंत्री
के पद प्रतिनियुक्ति पर पदस्थ।
आभा चतुर्र्वेदी    उच्च श्रेणी लिपिक    सहायक शिक्षक पद पर संविलियन
(कु. आभा मिश्रा)        किया गया।
अमित कुमार अवस्थी    निम्न श्रेणी लिपिक    सहायक शिक्षक पद पर संविलियन
किया गया।
ब्रम्हचारी प्रसाद तिवारी    निम्न श्रेणी लिपिक     उप राजस्व निरीक्षक नगर पंचायत,
गोविंदगढ़ पर प्रतिनियुक्ति पर
राजेश प्रसाद द्विवेदी    उपयंत्री    नगर पंचायत मनगगवां, रीवा में
उपयंत्री के पद पर संविलियन।
अरुण कुमार तिवारी    उपयंत्री    वर्तमान में सिंचार विभाग में उपयंत्री
शुक्रमणि प्रसाद मिश्रा    निम्न श्रेणी लिपिक     सिंचाई विभाग में निम्न श्रेणी लिपिक
पद पर संविलियन।
शरद कुमार द्विवेदी    निम्न श्रेणी लिपिक    सहायक शिक्षक पद पर संविलियन
किया गया।
सुधीर कुमार तिवारी    निम्न श्रेणी लिपिक    सहायक शिक्षक पद पर संिवलियन
किया गया।
अनिल कुमार मिश्रा    सहायक मार्शल    सहायक शिक्षक पद पर संविलियन
किया गया।
कुलदीप पाण्डे    सहायक मार्शल    स्कूल शिक्षा विभाग में संविलियन
/नस्ती उपलब्ध नहीं।
यज्ञनारायण शर्मा    निम्न श्रेणी लिपिक    स्कूल शिक्षा विभाग में संविलियन
/नस्ती उपलब्ध नहीं।
रमेश तिवारी    उपयंत्री/सहायक यंत्री    अन्य विभाग में प्रतिनियुक्ति पर।
प्रदीप मिश्रा    अनुभाग अधिकारी    सेवाएं स्कूल शिक्षा विभाग को वास।
जिला शिक्षा अधिकारी बनाये गये।

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