18-Mar-2015 09:41 AM
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नुमानजी की वंदना करने के बाद तुलसीदासजी ने भगवान राम और सीता की वंदना की और स्पष्ट किया कि तत्वत: सीता और राम एक ही हैं और फिर नव दोहे में राम नाम

की वंदना की। मैं स्पष्ट करूं, मेरा राम संकीर्ण नहीं है। रामनाम की महिमाÓ कहता हूं, तब कोई यह न माने कि मैं कोई एक धारा की बात कह रहा हूं। मेरा तुलसी तो कहता है हरि अनंत हरिकथा अनंताÓ-
आदि अंत कोउ जासु न पावा।
मति अनुमानि निगम अस गावा।।
राम यानी उससे कोई व्यापक नहीं। ऐसे व्यापक तत्व के अर्थ में मैं लेता हूं। उसको आप कृष्ण कह सकते हो, शिव कह सकते हो, दुर्गा कह सकते हो। व्यासपीठ का अर्थ होता है, जो विशाल हो। तुलसीदास ने इस भ्रम को तोडऩे के लिए ग्रंथ का नाम रामचरितमानस रखा है, किंतु उत्तरकांडÓ पहुंचते-पहुंचते यह कह दिया कि हरि चरित मानस तुम गावा। रामचरितमानस की बजाय हरिचरित मानसÓ कह दिया। यानी इस संकीर्णता और भेदों की दीवारों को तोडऩे की बात है। इसलिए यहां राम की भी महिमा है, परंतु अन्य नाम को निम्न बनाने की चेष्टा नहीं है। हमारे जैसे कलियुग के जीवों को नामÓ की महिमा है। सतयुग में ध्यान धरो यानी हरि को प्राप्त करो। यह कलियुग है। यह ध्यान का मौसम नहीं है। ध्यान के लिए कलियुग में विविध पद्धतियां आईं, फिर त्रेतायुग में यज्ञ होते थे। कलियुग में हम इतने यज्ञ नहीं कर सकते। गांधीजी ने सुंदर कहा है कि कलियुग में आपको यज्ञ करना हो, तो श्रमयज्ञ करो। विनोबाजी ने भूदान यज्ञ उठाया। पर्यावरण बचाओ, व्यसन कम करना, चेकडेम बनाना, ये भी यज्ञ हैं। फिर द्वापर युग आया। द्वापर युग में लोग घंटों तक पूजन-अर्चन करते रहते थे। अभी हमारे पास इतना समय नहीं है। इसलिए तुलसी ने एक बात कही कि कलियुग में आप केवल नाम लो, तो ध्यान भी हो जाएगा, यज्ञ भी हो जाएगा और हरि की पूजा भी हो जाएगी। कलियुग नामÓ का मौसम है, इसलिए तुलसीदासजी ने रामनाम की महिमा गाई। उनकी कुछ पंक्तियों का पावन पारायण कर लें-
बिधि हरि हरमय बेद प्रान सो।
अगुन अनूपम गुन निधान सो।।
तो, प्रभु के नाम की महिमा कलियुग में है। रामनाम ओमकार रूप है, प्रणव रूप है। तुलसी के मतानुसार, राममंत्र का उच्चरण करने से राम तत्व सूर्य बनकर मेरे और आपके मोह का नाश करे। चांद बनकर मुझे और आपको शीतलता और विश्रंति दे। और रामनाम अग्नि बनकर हमारे पापों को जलाकर भस्म करे। भगवान शंकर स्वयं इस रामनाम महामंत्र को समझकर निरंतर उनका जाप करते हैं। आदिकवि वाल्मीकि ने उलटा जपा। रामनाम सीधा जपे वह सिद्ध होता है, उलटा जपे वह शुद्ध होता है।
मंत्र का एक अर्थ हमारे यहां विचार भी होता है। मंत्र यानी विचार और विचारों की लेन-देन होती हो, उसे फिर मंत्रणा कहा गया। परिवार में एक मंत्र हो, एक विचार हो, तो रामराज्य आ जाता है। तुलसीदासजी ने तो यह लिखा है कि त्रेतायुग में भगवान राम खुद आए और उन्होंने जो भी लीला की, वह कलियुग में उनका नाम करता है। उनका नाम आज अपने में चैतन्य भरता है। जीवन को निरहंकारी बनाता है। कलियुग में उनका नाम अनेक का निर्वाह करता है। कलियुग में उनका नाम समाज-समाज को, धर्म-धर्म को, कौम-कौम को जोड़ता है। क्या यह एक सेतुबंध नहीं है? मैं रामायण को एक ही वाक्य में कहूं, तो रामकथा यानी सेतुबंध की कथा। जोड़े उसका नाम धर्म और तोड़े उसका नाम अधर्म। चैतन्य महाप्रभुजी ने भी नाम की महिमा गाई है। तुलसीदासजी नाम जपने की विधि ज्यादा सरल कर दी है।
आप दूसरों का आदर करते-करते, छोटे से छोटे आदमी को प्रेम करते हुए हरि का नाम लो तो तकरार ही मिट जाएगी। रामकथा सेतुबंध है और हम सब एक ही परम तीर्थ में बैठे हों, ऐसा लगता है। समूह में पुकारा हुआ परम तत्व का नाम दिव्य वातावरण का सृजन करता है। इसलिए ही सत्यम्, शिवम्, सुंदरम् है। तो, तुलसीदासजी ने रामचरितमानस में नाम की महिमा बहुत गाई है। स्वयं राम में जो ताकत नहीं है, उनके नाम की महिमा उससे भी ज्यादा अधिक है। और उसके बाद तुलसीदासजी रामकथा की समग्र परंपरा दिखाते हैं।
(गुजरात के सोमनाथ में हु़ई कथा
देहोत्सर्ग के अंश)
-श्री बैजनाथजी महाराज