03-Apr-2015 06:03 AM
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जो ब्रह्मांड में है , वही पिंड में भी है। पिंड अर्थात् हमारा पंचभौतिक शरीर। कबीरदास ने इसे अपने अंदर अनुभव किया , इसीलिए कहा है: इस घट अंदर बाग बगीचे , इसमें सिरजनहारा , इस घट अंदर सात समुंदर , इसमें नौलख तारा। इस घट अंदर पारस मोती , इसमें परखनहारा , इस घट अंदर अनहद गरजे , इसमें छुटत फुवारा।। कहत कबीर सुनो भाई साधो इसमें साईं हमारा।। यह पढऩे-सुनने में आश्चर्य सा लगता है। कोई साधक अपनी साधना की अंतिम अवस्था में पहुंचने के बाद ही इसका अनुभव कर पाता है और उसे नजारा देखने को मिलता है। जीव का या यूं कहें हमारा आकर्षण सौंदर्य के प्रति हमेशा रहता है। क्यों ? हम क्यों सुंदर चीजें और सुंदर रूप देखना पसंद करते हैं , उसे क्यों पाना चाहते हैं ? क्योंकि हमारे अंदर भी अद्भुत सौंदर्य का खजाना बसा है और उस सौंदर्य को न निहार पाने के कारण हम एक तरह की अतृप्ति , एक प्यास , एक खालीपन महसूस करते हैं और उसकी तलाश में बाहर के सौंदर्य की ओर आकर्षित होते हैं। कबीर कहते हैं च् घट की वस्तु नजर नहीं आवे , बाहर फिरत गंवारा रे। च् यह विडंबना ही है कि नजदीक का सौंदर्य हमारी अनुभूति में नहीं आ रहा , इसलिए उसे बाहर तलाश कर रहे हैं। और इसलिए जीवन सुखमय होने के बजाय घोर अंधकार में भटक गया है। कबीर दास कहते हैं: साधो हरि बिन जग अंधियारा , या घट भीतर सोना चांदी , या ही में लगा बजारा। या घट भीतर हीरा मोती , या ही में परखन हारा। या घट भीतर काशी , मथुरा या ही में गढ़ गिरनारा। या घट भीतर राम विराजे या ही में ठाकुर द्वारा।। या घट भीतर तीन लोक है या ही में सिरजनहारा। कहें कबीर सुनो भाई संतो , या में गुरु हमारा। जितने भी संत महात्मा अवतरित हुए , उन सभी ने अलग-अलग ढंग से अपने अनुभव में यही बातें कहीं और जीवन के इस रहस्यमय सौंदर्य को प्राप्त करने की प्रेरणा दी। जब मनुष्य मृत्यु को प्राप्त होता है तो उसका चेहरा ढक दिया जाता है , चाहे वह कितना ही सुंदर हो , ऐसा क्यों ? वह मृत काया हमें सुंदर क्यों नहीं लगता ? सोने जैसी सुंदर देह को निष्प्राण हो जाने पर जला देते हैं या फिर जमीन में गाड़ देते हैं। क्योंकि वह असुंदर लगने लगती है। इसका अर्थ यह है कि जीवन का असली सौंदर्य वह जीवन , वह च् प्राण शक्ति च् ही है , जिससे जीवन संचरित होता है। संत जी महाराज कहते हैं- च् उसी जीवन की सुंदरता तुम्हारे अंदर है। उसका आकर्षण ऐसा है , जैसे पतंगे का होता है। असली आकर्षण इस श्वास के साथ , इस जीवन के साथ है जो मेरे अंदर है। लेकिन इसे पहचानना होगा। जीवन के इस सौंदर्य से परिचित हो कर च् जीवन का उत्सव च् मनाया जाना चाहिए। इसके लिए कहीं जाने की जरूरत नहीं है , बल्कि अपने अंदर झांकना है और तृप्त हो जाना है। जीवन के इस सौंदर्य में एक सुमधुर संगी (अनहद नाद) भी है , साथ ही एक थिरकन है , स्पंदन है , नृत्य है और इस नृत्य के साथ अपनी लय जोड़कर नृत्य का आनंद उठा सकते हैं , झूम सकते हैं। चूंकि जीवन शाश्वत है , रसमय है , संगीतमय है , विलक्षण नृत्य से परिपूर्ण है , इसलिए भीतर तो जीवन का उत्सव स्वयं हो ही रहा है। इसका आयोजन हमें नहीं करना है , सिर्फ जा कर उस उत्सव के साथ जुड़ जाना है। जीवन सरल , सहज और मधुर है। वह दुखी होने के लिए नहीं , बल्कि आनंद पाने के लिए है। आनंद में रहना ही जीवन की सर्वोच्च साधना है। संसार के पदार्थों में अलिप्त रहकर सदा अपने अंत:करण में उपलब्ध जीवन के सौंदर्य का आनंद लेना ही जीवन का मकसद है। अत: अंत:करण में प्रवेश करने का अभ्यास हो और जीवन की मधुरता , सुंदरता और सरलता को आत्मसात करना चाहिए। बसंत-ऋतु की मनभावन , सदाबहार हरियाली से भी बढ़कर है जीवन का सौंदर्य और इसका आनंद जीवन को तृप्त करता है। ठंडक प्रदान करता है। इसलिए अपने अंदर झांको और स्वर्ग के उपवन में रमण करो , टहलो तथा जीवन के मधुरस का पान कर कृत्य-कृत्य हो जाओ।