04-Mar-2015 09:59 AM
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इस फिल्म की शुरुआत से पहले एक अफ्रीकी कहावत पर्दे पर चमकती है, कुल्हाड़ी भले ही भूल जाए, मगर पेड़ उसे याद रखता है।Ó बदलापुर ऐसी ही फिल्म है। श्रीराम राघवन भले ही कभी इसे भूल

जाएं, मगर देखने वाले याद रखेंगे। फिल्मकार की दर्शकों से अपील है कि शुरुआत मिसÓ न करें। बदले की कहानी का बीज यहां है। मगर आप शुरुआत न भी देखें तो समझ जाएंगे कि हीरो क्यों और किससे बदला लेना चाहता है। बदलापुर अपनी कहानी में अंत के सिवा कुछ नया पेश नहीं करती। अंत भी बेहद निष्क्रिय किस्म का। जिसमें आप खलनायक को मरते हुए तक नहीं देखते और एक सेक्स वर्कर हीरो को यह सीख देती है कि बदले की बात अब छोड़ दो। वह मर गया है। जिंदगी ने तुम्हें दूसरा मौका दिया है। सबको यह मौका नहीं मिलता। एकाएक आप पाते हैं कि हवा निकल जाने से गुब्बारा लुलÓ हो गया है! फिल्म के एक सीन में थ्रिलर उपन्यास पढ़ती पत्नी से हीरो कहता है, इससे बैटर (बेहतर) क्लाइमेक्स तो मैं दे सकता हूँ।Ó बदलापुर देख कर दर्शक के मन में भी यही खयाल आता है। कहानी राघव (वरुण धवन) की है, जिसकी पत्नी और बेटा एक बैंक डकैती की घटना में मारे गए। डकैत लायक (नवाजुद्दीन) और हरमन (विनय पाठक) फरार होने के लिए जिस कार में बैठते हैं उसमें राघव की पत्नी (यामी गौतम) पहले से है। धक्का-मुक्की में बेटा कार से गिरकर मर जाता है और चीखती-चिल्लाती माँ को लायक गोली मार देता है। पकड़े जाने पर लायक पुलिस से कहता है कि मैं सिर्फ ड्राइवर हूँ। जो पैसे लेकर भाग गया, गोली उसने मारी। अदालत उसे बीस साल कैद की सजा देती है। अब राघव को लायक की रिहाई के साथ उसके साथी के नाम-पते की तलाश है। वह बदला लेना चाहता है और मुंबई-पुणे के बीच बदलापुर नाम की जगह पर रहने लगता है!! श्रीराम की इस कहानी के तमाम सिरे खुले हुए हैं। जिन्हें कसा नहीं गया। लायक की सेक्स वर्कर प्रेमिका (हुमा), लायक की माँ, लायक के बारे में जानकारियां निकालने में लगी एक जासूस, लायक की रिहाई की कोशिशों में लगी सोशल वर्कर (दिव्या दत्ता), हरमन और उसकी पत्नी (राधिका आप्टे) जैसे किरदार आते-जाते रहते हैं। कोई भी कहानी में ढंग से हस्तक्षेप नहीं करता। मजेदार बात यह कि पूरी फिल्म में नवाजुद्दीन धीरे-धीरे इस तरह उभरते हैं कि सबका ध्यान उन पर ही टिक जाता है। बाकी सब दोयम हो जाते हैं। अंत में सिर्फ नवाज याद रहते हैं। वासेपुर से बदलापुर तक नवाज का सफर बेजोड़ ऐक्टर का है। वैसे यही बात उनके लिए आगे मुश्किल पैदा कर सकती है क्योंकि बॉलीवुड का कोई सितारा ऐसा सह-अभिनेता नहीं चाहता जो पर्दे पर उसे खाÓ जाए। बदलापुर देखने की एकमात्र वजह नवाज ही हो सकते हैं। श्रीराम राघवन की यह सबसे कमजोर फिल्म है। एजेंट विनोद से भी कमजोर। यहां दिखने वाले प्रेम, नफरत और दुख से आप जुड़ाव महसूस नहीं करते। फिल्म वह तनाव पैदा नहीं करती, जो 20 साल के इंतजार से हो सकता है। कहानी में 15 बरस की लंबी छलांग लगाता समय आश्वस्त नहीं करता। निर्देशक इतना कुछ बिखेर देते हैं कि उनसे समेटते नहीं बनता। फिल्म की रफ्तार बहुत धीमी है। यहां न थ्रिल है और न प्रेम की संभावनाएं। श्रीराम राघवन ने सेक्स को अरुचिकर ढंग से इस्तेमाल किया है। ऐक्टर वरुण धवन अपने इस प्रयोग में नाकाम हैं। वह किसी सीन में 40 बरस के नजर नहीं आते। न तनाव और न सनक उनके चेहरे पर उभरती है। फिलहाल उन्हें उम्र के अनुकूल रोमांटिक और कॉमेडी भूमिकाएं निभानी चाहिए। यामी, हुमा और राधिका तीनों का करिअर किसी यात्रा पर निकलने से पहले ही किनारे लगता नजर आ रहा है। इन नायिकाओं को अपनी भूमिकाओं के चयन पर गंभीर विचार करने की जरूरत है। बौद्धिक छविवाले फिल्मकारों के साथ काम करने के चक्कर में वे अपना नुकसान कर रही हैं। फिल्म के दो-एक गीत जरूर अच्छे हैं, मगर वे दर्शकों को कितना बांध सकते हैं? अगर कोई आपको बदलापुर दिखाने का प्रस्ताव दे तो उससे जरूर पूछ लीजिए कि क्या वह किसी जन्म का बदला लेना चाहता है!