19-Mar-2013 07:06 AM
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डर पैदा कैसे होता है - आने वाले कल का डर, रोजी-रोटी छूट जाने का डर, रोगग्रस्त हो जाने का डर, दर्द का डर। डर में बीते हुए और आने वाले समय के विषय में विचारों कि एक प्रतिक्रिया समाई रहती है। अतीत का कुल जमा जोड़ मैं भविष्य में क्या होगाÓ इससे डरा रहता है। तो डर आता कैसे है? डर का हमेशा किसी ना किसी चीज से संबंध होता है- वरना डर होता ही नहीं। इसलिए हम आने वाले कल से, जो हो गया है उससे, या जो होने वाला है उससे डरे रहते हैं। इस डर को लाया कौन? क्या डर को लाने वाला -विचार- ही नहीं है?
विचार है डर का मूल
तो विचार है डर का जन्मदाता। मैं अपनी नौकरी-कामधंधा छूट जाने के बारे में या इसकी आशंका के बारे में सोचता हूं और यह सोचना, यह विचार डर को जन्म देता है। इस प्रकार विचार खुद को समय में फैला देता है, क्योंकि विचार समय ही है। मैं कभी किसी समय जिस रोग से ग्रस्त रहा.. मैं उस विषय में सोचता हूं, क्योंकि उस समय का दर्द.. बीमारी का अहसास मुझे अच्छा नहीं लगता इसलिए मैं डर जाता हूं कि मुझे फिर वही बीमारी ना हो जाये। दर्द का एक अनुभव मुझे हो चुका है, उसके विषय में विचारना और उसे ना पसंद करना डर पैदा कर देता है। डर का सुख-विलासिता से करीबी रिश्ता है, निकट का संबंध है। हममें से अधिकांश लोग सुख-विलास से प्रेरित रहते हैं, संचालित रहते हैं। किसी पशु की भांति एैन्द्रिक सुख हमारे लिए सर्वोच्च महत्व रखते हैं। यह सुख विचार का ही एक हिस्सा होता है। जिस चीज से सुख मिला हो उसके बारे में सोचने से सुख मिलता है.. सुख बढ़ जाता है, है ना? क्या आपने इस सब पर ध्यान दिया है? आपको किसी ऐसा सुख का कोई अनुभव हुआ हो- किसी सुंदर सूर्यास्त का या यौन संबंध का... और आप उसके बारे में सोचते हैं। उसके बारे में सोचना, उस सुख को बढ़ा देता है, जैसे आपके द्वारा अनुभूत किसी पीड़ा के बारे में सोचना,, डर पैदा कर देता है.. डरा देता है। अतएव विचार ही मन में पैदा होने वाले सुख का या डर का जनक है, है न? विचार ही सुख की मांग करने और उसकी निरंतरता चाहने के लिए जिम्मेदार है, वह भय को जन्म देने के लिए, डर का कारण बनने के लिए जिम्मेदार है। यह बात एकदम साफ है, प्रयोग करके देखा जा सकता है।
तब मैं खुद से पूछता हूं... जबकि मैं यह सब जानता हूं... तब क्या ऐसा संभव है कि सुख या दु:खदर्द के बारे में मैं सोचूं ही ना? क्या यह संभव है कि जब विचारणा की जरूरत हो तब ही सोचा जाए, अन्यथा बिल्कुल नहीं? महोदय, जब आप किसी दफ्तर में काम करते हैं, आजीविका में लगे होते हैं, तब विचार जरूरी होता है वरना आप कुछ कर नहीं सकेंगे। जब आप बोलते हैं, लिखते हैं, बात करते हैं, कार्यालय जाते हैं तब विचार जरूरी होता है। वहां विचार को ऐन सही ढंग से, निर्वैयक्तिक रूप से काम करना होता है। वहां उसे किसी रूझान या आदत के हिसाब से नहीं चलना होता। वहां विचार सार्थक है। परंतु क्या किसी भी अन्य किया के क्षेत्र में विचार आवश्यक है?
कृपया इसे समझें। हमारे लिए विचार अत्यंत महत्वपूर्ण है। हमारे पास यही तो एकमात्र उपकरण है। यह विचार उस स्मृति की प्रतिक्रिया है जो अनुभव, ज्ञान और परंपराओं द्वारा संचित कर ली गयी है। स्मृति होती है समय का परिणाम, पशुता से मिली विरासत। इसी पृष्ठभूमि से हम प्रतिक्रिया करते हैं। यह प्रतिक्रिया विचारगत होती है। विचार कुछ निश्चित स्तरों पर तो जरूरी होता है परंतु जब यह बीते हुए और आने वाले समय में, अतीत और भविष्य में स्वयं को मानसिक तौर पर फैलाने लगता है तब यह डर पैदा करता है और सुख भी परंतु इस प्रक्रिया में मन मंद हो जाता है और इसी वजह से अपरिहार्यत: अकर्मण्यता आ जाती है। डर खयाल की पैदाइश है। तो क्या विचार मनोवैज्ञानिक रूप से, आत्मरक्षात्मक रूप से या भविष्य के विषय में सोचना बंद कर सकता है?
चीजों, व्यक्तियों और विचारों पर निर्भरता भय को जन्म देती है। निर्भरता उपजती है अज्ञान से, खुद को ना जानने के कारण, अंदरूनी गरीबी के कारण, खुद के बारे में ही कोई अता-पता ना होने से। डर, दिल दिमाग की अनिश्चितता का कारक बनता है और यह अनिश्चितता संप्रेषण और समझ-बूझ में बाधक बनती है। स्व के प्रति सजगता द्वारा हम खोजना शुरू करते हैं और इससे डर की वजह को समझ पाते हैं - केवल सतही डरों को ही नहीं बल्कि गहरे कारणजात और सदियों से इक_े डरों को भी। डर अंदर से भी पैदा होता है और बाहर से भी आता है। यह अतीत से जुड़ा होता है। अत: अतीत से विचार भावना को मुक्त करने के लिए अतीत को समझा जाना आवश्यक है और वह भी वर्तमान के माध्यम से। अतीत सदैव वर्तमान को जन्म देने को आतुर रहता है जो मुझेÓ, मेरेÓ और मैंÓ की तद्रूप स्मृति बन जाता है। यह सारे भय का मूल है।
कृष्णमूर्ति