02-Mar-2013 07:47 AM
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अनादि, अनंत, देवाधिदेव, महादेव शिव परंब्रह्म हैं। सहस्र नामों से जाने जाने वाले त्रयम्बकम् शिव साकार, निराकार, कार और लिंगाकार रूप में देवताओं, दानवों तथा मानवों द्वारा पूजित हैं। महादेव रहस्यों के भंडार हैं। बड़े-बड़े ऋषि-महर्षि, ज्ञानी, साधक, भक्त और यहाँ तक कि भगवान भी उनके संम्पूर्ण रहस्य नहीं जान पाए। आशुतोष भगवान अपने व्यक्त रूप में त्रिलोकी के तीन देवताओं में ब्रह्मा एवं विष्णु के साथ रुद्र रूप में विराजमान हैं। ये त्रिदेव, हिन्दु धर्म के आधार और सर्वोच्च शिखर हैं। पर वास्तव में महादेव त्रिदेवों के भी रचयिता हैं। महादेव का चरित्र इतना व्यापक है कि कइ बार उनके व्याख्यान में विरोधाभाष तक हो जाता है। एक ओर शिव संहारक कहे जाते हैं तो दूसरी ओर वे परंब्रह्म हैं जिस लिंगाकार रूप में वे सबसे ज्यादा पूज्य हैं। जहां वे संसार के मूल हैं वहीं वे अकर्ता हैं। जहां उनका चित्रण श्याम वर्ण में होता है वहीं वे कर्पूर की तरह गोरे, कर्पूर गौरम्, माने जाते हैं। जिन भगवान रूद्र के क्रोध एवं तीसरे नेत्र के खुलने के भय से संसार अक्रांत होता है और जो अनाचार करने पर अपने कागभुषुंडी जैसे भक्तों तथा ब्रह्मा जैसे त्रिदेवों को भी दण्डित करने से नहीं चुकते, वहीं आशुतोष भगवान अपने सरलता के कारण भोलेनाथ हैं तथा थोडी भक्ति से ही किसी से भी प्रसन्न हो जाते हैं। एक ओर रूद्र मृत्यु के देवता माने जाते हैं तो महामृत्यंजय भी उनके अलावा कोई दुसरा नहीं, पर उस विरोधाभाष में भी एका स्पष्ट दृष्टिगोचर होता है।
शिव परंब्रह्म हैं
शिव अनादि हैं, अनन्त हैं, विश्वविधाता हैं। सारे संसार में एक मात्र शिव ही हैं जो जन्म, मृत्यु एवं काल के बंधनों से अलिप्त स्वयं महाकाल हैं। शिव सृष्टि के मूल कारण हैं, फिर भी स्वयं अकर्ता हैं, तटस्थ हैं। सृष्टि से पहले कुछ नहीं था न धरती न अम्बर, न अग्नि न वायु, न सूर्य न ही प्रकाश, न जीव न ही देव। था तो केवल सर्वव्यापी अंधकार और महादेव शिव। तब शिव ने सृष्टि की परिकल्पना की। सृष्टि की दो आवश्यकताएँ थीं संचालन हेतु शक्ति एवं व्यवस्थापक ।
शिव ने स्वयं से अपनी शक्ति को पृथक किया तथा शिव एवं शक्ति ने व्यवस्था हेतु एक कर्ता पुरूष का सृजन किया जो विष्णु कहलाय। भगवान विष्णु के नाभि से ब्रह्मा की उतपत्ति हुई। विष्णु भगवान ने ब्रह्मदेव को निर्माण कार्य सौंप कर स्वयं सुपालन का कार्य वहन किया। फिर स्वयं शिव जी के अंशावतार रूद्र ने सृष्टि के विलय के कार्य का वहन किया। इस प्रकार सृजन, सुपालन तथा विलय के चक्र के संपादन हेतु त्रिदेवों की उतपत्ति हुई। इसके उपरांत शिवजी ने संसार की आयु निर्धारित की जिसे एक कल्प कहा गया। कल्प समय का सबसे बड़ा माप है। एक कल्प के उपरातं महादेव शिव संपूर्ण सृष्टि का विलय कर देते हैं तथा पुन: नवनिर्माण आरंभ करते हैं जिसकी शुरुआत त्रिदेवों के गठन से होती है। इस प्रकार शिव को छोड शेष सभी काल के बंधन में बंधे होते हैं। इन परमात्मा शिव का अपना कोई स्वरूप नहीं है, तथा हर स्वरूप इन्हीं का स्वरूप है। शिवलिंग इन्हीं निराकार परमात्मा का परीचायक है तथा परम शब्द इन्हीं की वाणी।
अर्धनरनारीश्वर
सृष्टि के निर्माण के हेतु शिव ने अपनी शक्ति को स्वयं से पृथक किया। शिव स्वयं पुरूष लिंग के द्योतक हैं तथा उनकी शक्ति स्त्री लिंग की द्योतक। पुरुष (शिव) एवं स्त्री (शक्ति) का एका होने के कारण शिव नर भी हैं और नारी भी, अत: वे अर्धनरनारीश्वर हैं।
जब ब्रह्मा ने सृजन का कार्य आरंभ किया तब उन्होंने पाया कि उनकी रचनाएं अपने जीवनोपरांत नष्ट हो जाएंगी तथा हर बार उन्हें नए सिरे से सृजन करना होगा। गहन विचार के उपरांत भी वो किसी भी निर्णय पर नहीं पहुँच पाय। तब अपने समस्या के सामाधान के हेतु वो शिव की शरण में पहुँचे। उन्होंने शिव को प्रसन्न करने हेतु कठोर तप किया। ब्रह्मा की कठोर तप से शिव प्रसन्न हुए। ब्रह्मा के समस्या के सामाधान हेतु शिव अर्धनारीश्वर स्वरूप में प्रगट हुए। अर्ध भाग में वे शिव थे तथा अर्ध में शिवा। अपने इस स्वरूप से शिव ने ब्रह्मा को प्रजन्नशिल प्राणी के सृजन की प्रेरणा प्रदान की। साथ ही साथ उन्होंने पुरूष एवं स्त्री के सामान महत्व का भी उपदेश दिया। इसके बाद अर्धनारीश्वर भगवान अंतर्धयान हो गए। शक्ति शिव की अविभाज्य अंग हैं। शिव नर के द्योतक हैं तो शक्ति नारी की। वे एक दुसरे के पूरक हैं। शिव के बिना शक्ति का अथवा शक्ति के बिना शिव का कोई अस्तित्व ही नहीं है। शिव अकर्ता हैं। वो संकल्प मात्र करते हैं; शक्ति संकल्प सिद्धी करती हैं। तो फिर क्या हैं शिव और शक्ति?
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