असम में भाजपा की जीत के मायने
04-Mar-2015 08:03 AM 1235096

ल्ली में भाजपा की पराजय और आम आदमी की जीत को मीडिया ने शायद इसलिए ज्यादा वजन दिया क्योंकि दिल्ली में मीडिया का गढ़ है और देश के दूर-दराज के क्षेत्रों में जाकर समाचार तलाशना तकलीफ का काम है। असम में 74 नगरपालिकाओं/नगर पंचायतों के लिये चुनाव उन्हीं दिनों हुये थे जब दिल्ली में चुनाव हो रहे थे। कांग्रेस इनमें से कुल मिला कर 17 पर बहुमत प्राप्त कर सकी । भारतीय जनता पार्टी ने 39 नगर पालिकाओं में विजय प्राप्त की । असम गण परिषद केवल दो में ही जीत हासिल कर सकी। अभी तक कांग्रेस के पास इन 74 नगरपालिकाओं में से 71 पर क़ब्ज़ा था । जिन नगरपालिकाओं/ नगर पंचायतों के लिये चुनाव हुये, उनमें कुल मिला कर 746 बार्ड या सीटें हैं । भारतीय जनता पार्टी ने इनमें से आधी से भी ज़्यादा सीटें जीतीं। कांग्रेस केवल 230 सीटें जीत सकीं। ए.आई.यू.डी.एफ  आठ सीटें जीत पाईं। सी पी एम को केवल एक सीट मिली । भाजपा ने प्रदेश के मुख्यमंत्री तरुण गोगोई के नगर जोरहाट की नगरपालिका पर भी कब्जा जमा लिया। प्रदेश में इसी साल विधान सभा के चुनाव होने वाले हैं।
असम के ग्रामीण और नगरीय इलाकों में भाजपा की भारी जीत उन लोगों को तकलीफ में डाल सकती है जो दिल्ली में सफाए के बाद भाजपा के विजयरथ को रुका हुआ समझने लगे थे। हाल ही में अरुणाचल प्रदेश में प्रधानमंत्री के दौरे और उससे पहले असम के स्थानीय निकायों में  भाजपा की भारी जीत बहुत कुछ कह रही है। भाजपा असम ही नहीं बल्कि समूचे पूर्वोत्तर में दिन-रात मेहनत कर रही है। राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ ने भी पूर्वोत्तर में अपनी गतिविधियों को विस्तार दिया है। यदि भाजपा असम, बंगाल, अरुणाचल प्रदेश जैसे राज्यों में मुख्य विपक्षी अथवा सत्ताधारी पार्टी बनती है तो इसके दूरगामी परिणाम होंगे। विश्लेषकों का मानना है कि इन क्षेत्रों में कम्यूनिस्टों का प्रभाव घटने से भारत राजनीतिक रूप से ज्यादा मजबूत होकर उभरेगा।
पूर्वोत्तर भारत में असम के बाद जिस प्रदेश में भाजपा महत्वपूर्ण राजनैतिक दल की हैसियत में आ गई है, वह अरुणाचल प्रदेश है। साठ सदस्यीय विधान सभा में  कांग्रेस के 47 और भाजपा के 11 सदस्य हैं। दो सदस्य निर्दलीय हैं। कांग्रेस के खिलाफ प्रदेश की अनेक जनजातियों में असंतोष बढ़ रहा है । पिछले दिनों प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री जारबोम के देहान्त के बाद  विधान सभा की लिरोम्बा सीट के लिये उपचुनाव हुआ। यह ठीक है कि कांग्रेस ने यह सीट जीत ली और भारतीय जनता पार्टी का प्रत्याशी बाई गादी हार गया। लेकिन दोनों पार्टियों को प्राप्त मतों का अन्तर केवल 119 था । राजनैतिक हलकों में व्यवहारिक तौर पर इसे मुख्यमंत्री की हार ही माना जा रहा है। ज़ाहिर है असम और अरुणाचल प्रदेश में भाजपा  कांग्रेस को पछाडऩे की स्थिति में आ रही है । ये दोनों ऐसे राज्य हैं , जिनमें आज से कुछ साल पहले जनसंघ/भाजपा बेगानी मानी जाती थी । पश्चिमी बंगाल में लम्बे अरसे तक सी.पी.एम और सोनिया कांग्रेस मुख्य राजनैतिक दलों के रुप में स्थापित रहीं। इसके बाद मुख्य मुक़ाबला सी.पी.एम और ममता बनर्जी के तृणमूल कांग्रेस में होने लगा। लेकिन पिछले कुछ समय से पश्चिमी बंगाल का परिदृष्य बदला है। अब वहाँ मुख्य मुक़ाबला तृणमूल कांग्रेस और भारतीय जनता पार्टी में होने लगा है। ऊपर जिन उपचुनावों का जि़क्र किया गया है , उनके परिणाम इसी दिशा की ओर संकेत करते हैं। बनगांव लोकसभा चुनाव में जीत चाहे तृणमूल कांग्रेस की हुई लेकिन कांग्रेस चौथे नम्बर पर खिसक गई और उसे केवल 29 हज़ार वोटें मिलीं। दूसरे नम्बर पर सी पी एम रही, सी पी एम और भाजपा को प्राप्त वोटों का अन्तर केवल दस हजार के आसपास रहा। इसी तरह किशनगंज विधानसभा के लिये कांग्रेस को केवल पाँच हज़ार के आसपास वोट मिले। भाजपा दूसरे नम्बर पर रही और सी पी एम तीसरे स्थान पर रही। 2014 के लोकसभा चुनावों में पश्चिमी बंगाल में भाजपा को 17 प्रतिशत से भी ज़्यादा वोट मिले थे और वह प्राप्त मतों के लिहाज से तृणमूल कांग्रेस और सी पी एम के बाद तीसरे नम्बर पर आ गई थी।  कांग्रेस का स्थान चौथे नम्बर पर था। उसके बाद से राज्य में चार उपचुनाव हुये, जिनमें से एक  भाजपा ने जीत ही लिया और प्राप्त मतों के हिसाब से पार्टी राज्य में मुख्य विपक्षी दल की भूमिका में आ रही है ।
-इंद्र कुमार बिन्नानी

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