स्वाइन फ्लू : नाकाम सरकार
18-Feb-2015 01:00 PM 1234949

हफ्ते पहले की ही बात है, जब मध्यप्रदेश के स्वास्थ्य विभाग के प्रमुख सचिव ने स्वाइन फ्लू पर जागरूकता हेतु अखबार में छपने वाले विज्ञापन को

सजावटी बनाते हुए सुधार कर दिया था। बाद में पता चला कि सुधारने के चक्कर में डोज ही गलत डाल दिया। जो सरकार काम करने से ज्यादा सजावटी विज्ञापनों में विश्वास रखती हो, वह स्वाइन फ्लू जैसी गंभीर बीमारी पर कितनी लापरवाह हो सकती है, इसका जीता-जागता उदाहरण है- मध्यप्रदेश। जहां स्वाइन फ्लू से मरने वालों का आंकड़ा 69 पहुंच चुका है, जिनमें सर्वाधिक मौतें भोपाल और इंदौर में हुई हैं। हर दिन 5-7 मरीज पहुंच रहे हैं। सैंकड़ों की संख्या में संदिग्ध मरीज हैं और उनमें से कई पॉजिटिव भी हैं। जो संदिग्ध हैं, वे तो थोड़ी उम्मीद लगा सकते हैं लेकिन जो पॉजिटिव हैं उनके हाथ-पैर फूल रहे हैं, क्योंकि स्वाइन फ्लू है या नहीं यह पता लगाने के लिए प्रदेश में केवल जबलपुर में लैब हैं, जहां से रिपोर्ट आने में पूरे 48 घंटे लगते हैं। इसका अर्थ यह हुआ कि 48 घंटे तक मरीज को लक्षण देखकर अनुमान से दवाएं दी जाती हैं। ये 48 घंटे ही जानलेवा साबित हो रहे हैं।
सरकार कहती है कि घबराने की जरूरत नहीं है, मौतोंं का आंकड़ा अन्य प्रदेशों के मुकाबले कम है। लेकिन जिस घर में मौत होती है उस घर के लोगों से पूछिए। हर एक मौत कई-कई घरों को मातम में धकेल चुकी है। उन 69 लोगों के परिजनोंं का दर्द सरकार शायद ही समझ पाएगी जिन्होंने अपने प्राण से प्यारे रिश्तेदारों को असमय खो दिया है। गर्भवती महिला से लेकर नौजवान, अधेड़, बच्चे सभी तो स्वाइन फ्लू की चपेट में आ गए हैं। लेकिन सरकार न तो चौकस है और न ही संवेदनशील। प्रमुख सचिव और मंत्री का आपस में बहुत अच्छा सामंजस्य नहीं है। ऐसा दर्जनोंबार देखा गया है। स्थिति इतनी बिगड़ गई है कि खुद मुख्यमंत्री आगे आकर जायजा ले रहे हैं।
हाल ही में मुख्य सचिव की अध्यक्षता में एक बैठक में विभागों की तैयारियों का जायजा लिया गया था, लेकिन उस महत्वपूर्ण बैठक में भी विभागीय प्रमुख सचिव प्रवीण कृष्ण नदारद थे। दरअसल उच्च स्तरीय निर्देशों और आदेशों की अवहेलना तो प्रारंभ से ही होती रही है। 2009 में जब स्वाइन फ्लू की बीमारी फैली थी, उस वक्त केंद्र सरकार ने स्वाइन फ्लू, चिकन गुनिया, डेेंगू सहित तमाम बॉयोलॉजिकल डिजास्टर पर एक गाइड लाइन जारी की थी, जिसमें स्वास्थ्य विभाग को समय से पूर्व ही सारे इंतजामात करने का निर्देश दिया गया था। लेकिन मध्यप्रदेश का स्वास्थ्य विभाग सोता रहा। यूनिसेफ जैसी लापरवाह एजेंसियों से प्रायोजित फंड खर्च कर माधुरी दीक्षित और आमिर खान जैसे अभिनेताओं को बुलाकर ब्रांडिंग की जाती रही, उधर मलेरिया जैसी मामूली बीमारी ही जानलेवा बन गई।
यह कहानी वर्ष दर वर्ष दोहराई जा रही है। स्वास्थ्य व्यवस्था मध्यप्रदेश में लड़खड़ा चुकी है। स्वाइन फ्लू के मामले में भी पहले तो सरकार ने रेडियो से लेकर अखबारों में हर जगह यह दावा किया कि स्वाइन फ्लू का उपाय केवल सरकारी अस्पतालों में है। जब यह बीमारी आपदा में तब्दील हो गई तो सरकार की नींद खुली और उसने प्राइवेट अस्पतालों को भी इलाज का निर्देश दिया। सवाल यह है कि जब पहले से ही ज्ञात था कि ठंड के दिनों में स्वाइन फ्लू फैलता है, तो पर्याप्त इंतजामात क्यों नहीं किए गए?
लैब की संख्या बढ़ाई जानी थी, जिला अस्पतालों में विशेषज्ञ तैनात किए जाने थे, पर्याप्त वैक्सीन और टेमीफ्लू के डोज पहले से मंगाकर रखे जाने थे। किंतु इंतजाम कुछ नहीं किया। विज्ञापन भी गलत छापा गया। जब विज्ञापन पर स्पष्टीकरण मांगा गया, तो कहा गया कि डॉक्टर विज्ञापन देखकर इलाज नहीं करते। तो फिर विज्ञापन किसके लिए था? उस पर पत्रकारों और मीडिया के प्रति क्रोध समझ से परे है। ऐसी भयावह स्थिति क्यों बनी कि नरोत्तम मिश्रा और प्रबीर कृष्ण को पत्रकारों के जवाबों से बचना पड़ा।
डेंगू, चिकनगुनिया, मलेरिया जैसी बीमारियों के फैलाव के समय भी यही लापरवाही देखने में आती है। साफ-सफाई में तो मध्यप्रदेश पिछड़ा हुआ है ही। बीमारियों के रोकथाम के उपाय यहां पर शून्य ही हैं। लेकिन बीमारी फैलने के बाद उपचार और भी दुर्लभ है। मध्यप्रदेश में ही डेंगू से सर्वाधिक मौतें हुई थीं। इससे पहले चिकन गुनिया ने भी कहर बरपाया था। लेकिन बीमारियों का हल्ला कुछ देर के लिए मीडिया में मचता है, बाद में सब शांत हो जाता है। यह सरकार को भी पता है। इसलिए केवल बातें भर की जा रही हैं। 
गहलोत कटारिया को भी स्वाइन फ्लू
सारे देश में स्वाइन फ्लू जबरदस्त तरीके से फैल रहा है। राजस्थान में तो पूर्व मुख्यमंत्री अशोक गहलोत और भाजपा नेता गुलाब कटारिया को भी स्वाइन फ्लू ने जकड़ लिया था, किंतु सही समय पर इलाज मिलने के कारण वे खतरे से बाहर हैं। पर देश के आम आदमी का ऐसा भाग्य कहां। फरवरी माह तक 5,157 लोगों में स्वाइन फ्लू के वायरस की पुष्टि हुई है। जिनमें से 407 की मौतें 10 फरवरी तक हो चुकी थी। सरकार का वही पुराना रवैया है कि जैसा ही तापमान बढ़ेगा बीमारी अपने आप खत्म हो जाएगी, लेकिन तब तक कितने लोगों की जान जा चुकी होगी कहा नहीं जा सकता। राजस्थान, महाराष्ट्र, गुजरात, मध्यप्रदेश और तेलंगाना में यह बीमारी बहुत फैल गयी है। कर्नाटक और दिल्ली में भी बड़ी तादाद में संक्रमित मिले है। सरकार की नींद हमेशा की तरह देर से खुली है। फरवरी माह में एक टेंडर जारी करके सरकार ने 10 हजार डायग्नोस्टिक किट मगाई हैं। इसके अलावा ह्रह्यद्गद्यह्लड्डद्वद्ब1द्बह्म् दवा के अतिरिक्त 60 हजार  डोज और हृ-९५ मास्क 10 हजार की संख्या में मगाए गए हैं। सवाल यह है कि यह तैयारियां पहले क्यों नहीं की गईं। इस बीमारी की दवा खुले बाजार में बमुश्किल मिलती है। बहुत से प्रदेशों में तो मेडिकल स्टोर के पास यह दवा बेचने का लायसेंस ही नहीं है। मुबई के 7 हजार में से केवल 100 को यह दवा बेचने का लायसेंस मिला है। अधिकांश अस्पतालों को यह दवा रखने का अधिकार नहीं है। उधर दवा बनाने वाली कंपनियां दवा का उत्पादन तो भरपूर कर रही हैं लेकिन सप्लाई व्यवस्था ठीक नहीं है। दूसरा कारण यह है कि अधिकांश मरीज इस दवा को एहतिहात के तौर पर लेना चाहते हैं। स्वाइन फ्लू का टीका भी उपलब्ध है पर वह महंगा है। फिलहाल तो दिनों-दिन स्वाइन फ्लू पॉजिटिव बढ़ रहे हैं। राजस्थान में 1248 मरीजों में स्वाइन फ्लू की पुष्टि हो चुकी है। जिनमें से 109 की मृत्यु हो गई। गुजरात में भी 1075 मरीज पाए गए जिनमें से 108 की मृत्यु हो गई। तेलंगाना में भी यह तेजी से फैल रहा है यहां मौतें तो 42 हुई हंै, लेकिन 942 पॉजिटिव पाए गए हैं। सारे देश में इस बीमारी का पता लगाने वाले लैब बहुत कम हैं। औसत 48 घंटे में रिपोर्ट आती है। जब तक देर हो चुकी होती है। स्वाइन फ्लू फैलने के 41 दिन के भीतर इस वर्ष इसने महामारी का रूप धारण कर लिया। यह बीमारी प्रारंभिक अवस्था में पता लग जाए तो 100 प्रतिशत ठीक हो सकती है, लेकिन जापान जैसे देशों में स्वाइन फ्लू 10 मिनट के भीतर पता लग जाता है। पर भारत में 48 घंटे लगते हैं यह देरी जानलेवा है।

 

ढाई घंटे में आया जवाब
स्वाइन फ्लू से मौतों पर हाईकोर्ट ने सख्ती दिखाई है। इंदौर में लैब की मांग को लेकर दायर याचिका की सुनवाई के दौरान स्वास्थ्य विभाग के अफसर खाली हाथ पहुंचे। कोर्ट ने जवाब मांगा तो मौखिक कह दिया कि- यह प्राकृतिक आपदा है... तापमान बढ़ेगा तो खत्म हो जाएगी। लैब बनाना केंद्र सरकार का काम है। इस पर हाईकोर्ट ने शासन और निगम के वकीलों को डांटते हुए कहा- दोपहर ढाई बजे तक शपथ पत्र पर जवाब चाहिए। कोर्ट का रुख देखते ही दोनों का जवाब पेश हो गया।

प्रोफेसर ने तीन जगह से लिए भत्ते
रीवा के चिकित्सा महाविद्यालय के प्रोफेसर एवं वर्तमान मेंं कार्यवाहक अधिष्ठाता डॉ. एसएस कुशवाह ने एक ही समय में तीन जगह से भत्ते लिए और बाद में जब घोटाला पकड़ में आ गया, तो एक जगह का पैसा भी लौटा दिया। मजे की बात तो यह है कि विभाग ने भी खानापूर्ति करते हुए इस मामले में क्लीनचिट दे दी।
कुशवाह ने प्राध्यापक एवं पीएसएम विभाग के पद पर रहते हुए जून 2009 में आंगनबाड़ी प्रशिक्षण के कार्यक्रम शेड्यूल के अनुसार 5 दिनों का मानदेय 500 रुपए प्रतिदिन के हिसाब से प्राप्त किया तथा इन्हीं 5 दिनों में लोक सेवा आयोग उत्तरप्रदेश, इलाहाबाद में आयोजित साक्षात्कार हेतु 22 से 24 जून 2009 तक का पारिश्रमिक भी लिया और इसके बाद एमजीएम इंदौर में एमडी की परीक्षा लेने हेतु 27-28 जून 2009 को भी पारिश्रमिक लिया। इसका अर्थ यह हुआ कि जिन दिनों में वे इलाहाबाद और इंदौर में बतौर विशेषज्ञ साक्षात्कार लेने गए थे, उन्हीं दिनों में आंगनवाड़ी प्रशिक्षणकर्ता के रूप में मानदेय भी उन्हें प्रदान किया जा रहा था। इस प्रकरण का जब भांडाफोड़ हुआ तो डॉ. एसएस कुशवाह ने आंगनवाड़ी से प्राप्त मानदेय की 2500 रुपए की राशि वापस जमा करा दी। इस प्रकार स्वयं ही उन पर आरोप की पुष्टि हो गई। हालांकि विभाग उनके खिलाफ आरोप की पुष्टि बावजूद कोई कदम उठाने में असफल रहा है। कुशवाह के खिलाफ एक नहीं कई मामलों में विभागीय इंक्वायरी हुई है, उन पर स्टोर का उपयोग निजी गोडाउन के रूप में कराने का आरोप भी लगाया गया था। शासकीय रााशि स्वयं के खाते में जमा कराने का भी आरोप कुशवाह पर लगा था। इसके अलावा भी अन्य आरोप उनके खिलाफ लगे, लेकिन विभागीय जांच-पड़ताल में दोहरा लाभ लेने की बात की पुष्टि हुई है। सवाल यह है कि व्याख्याता पद पर रहते हुए भी कुशवाह ने ऐसी गलती क्यों की और विभाग ने उनकी गलती को नजरअंदाज क्यों किया?

 

FIRST NAME LAST NAME MOBILE with Country Code EMAIL
SUBJECT/QUESTION/MESSAGE
© 2025 - All Rights Reserved - Akshnews | Hosted by SysNano Infotech | Version Yellow Loop 24.12.01 | Structured Data Test | ^