18-Feb-2015 07:37 AM
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पिछले लोकसभा चुनाव की ही बात है जब अरविंद केजरीवाल को नरेंद्र मोदी ने ्र्य-४९ की संज्ञा देकर सार्वजनिक मंच से केजरीवाल की खिल्ली उड़ाई थी। तब मोदी को यह ज्ञात नहीं था कि उनके

सत्तासीन होने के 9 माह बाद ही ्र्य-49 का एडवांस वर्जन ्र्य-६७ पैदा हो जाएगा, जो ज्यादा मारक और घातक होगा। सचमुच अपने नए अवतार में बहुत मारक और घातक सिद्ध हुए केजरीवारÓ.... एक युद्ध की तरह ही उन्होंने दिल्ली की चुनावी लड़ाई लड़ी और उस व्यक्ति को परास्त कर दिया जो उनका नाम लेना भी अपनी तौहीन समझता था। आज नरेंद्र मोदी को कबीर का यह दोहा याद आ रहा होगा-
तिनका कबहुँ न निंदिये, जो पाँयन तर होय।
कबहुँ उड़ आँखिन परे, पीर घनेरी होय।।
आज केजरीवाल नामक वह तिनका नरेंद्र मोदी की आंखों में चुभ भी रहा है और उनके अहंकार को बहुत हद तक बहाने में भी कामयाब रहा है। तभी शर्मनाक पराजय के बाद नरेंद्र मोदी ने फोन करके अरविंद केजरीवाल को बधाई दी और चाय पर बुलाया। 1984 में जब इंदिरा लहर में राजीव गांधी ने 400 से ज्यादा लोकसभा सीट जीतकर अपने विरोधियों को लगभग नेस्तेनाबूद कर दिया था, उस समय कुछ माह बाद हुए हरियाणा विधानसभा चुनाव में परास्त होने के बाद तत्कालीन मुख्यमंत्री को उन्होंने बधाई दी थी या नहीं, इसका कोई रिकार्ड उपलब्ध नहीं है पर यह अवश्य रिकार्ड में है कि उस पराजय के बाद कभी भी कांग्रेस केंद्र की सत्ता में बहुमत नहीं ला पाई और सिमटते-सिमटते 44 पर आकर टिक गई। जिस तरह दिल्ली के नतीजों में 63 सीटों पर कांग्रेस की जमानत जब्त हो गई और बची हुई 7 सीटों में से 5 पर वह तीसरे या चौथे स्थान पर सिमट गई, उससे साफ है कि कांग्रेस का अंत निकट आ चुका है।
मोदी का अहंकार ले डूबा
केंद्र में मोदी और भाजपा में अमित शाह किसी तानाशाह की तरह सत्ता चला रहे हैं। नौकरशाही तो उनसे त्रस्त है ही, सरकारी कर्मचारी भी नाराज हैं। लेकिन मोदी ने सबसे ज्यादा दहशत में डाल रखा था अपने साथी मंत्रियों, राज्यों के मुख्यमंत्रियों और पार्टी में ऊंचा कद रखने वाले नेेताओं को। सबसे पहले उन्होंने आडवाणी और मुरली मनोहर जोशी जैसे नेताओं को ठिकाने लगाया, उसके बाद जीत के अहंकार में वे यह मानने लगे कि कुत्ते की दुम पर भी मोदी का फोटो लगाकर चुनाव जीता जा सकता है। मोदी और शाह किरण बेदी को लाकर मध्यप्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्रियों को शायद यह संदेश देना चाह रहे होंगे कि देखो, हम किसी को भी मुख्यमंत्री बना सकता हैं। तुम्हारी कोई औकात नहीं है। इसीलिए दिल्ली में भारी जीत की तैयारी की गई ताकि जीतने के बाद मध्यप्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्रियों को ठिकाने लगाया जा सके, लेकिन अरविंद केजरीवाल ने मोदी की हालत घर की न घाट की कहीं की नहीं छोड़ी। अब पार्टी के भीतर मोदीनुमा फैसलों का जमकर विरोध होगा। उधर राज्यों के मुख्यमंत्रियों की दहशत भी कम होगी। आंतरिक राजनीति में शाह-मोदी इस शिकस्त के बाद तब तक अवश्य दबे रहेंगे, जब तक कि कोई बड़ी जीत हाथ न लगे। दिल्ली में किरण बेदी को प्रोजेक्ट कर पार्टी के भीतर महाभारत भी छेड़ दिया गया है। कौरव-पांडव की इस लड़ाई के केंद्र में किरण बेदी थीं। जो अब पराजय हो चुकी हैं। कहते हैं राजनीति कभी माफ नहीं करती। बिहार, उत्तरप्रदेश, पंजाब, पश्चिम बंगाल के चुनाव में इसका असर अवश्य देखा जाएगा। बिहार में जो जोड़-तोड़ अमित शाह और नरेंद्र मोदी के इशारे पर चल रही है, वह भी देर-सवेर रंग लाएगी ही।
चायवाला क्यों बना सूटवाला?
लोकसभा चुनाव की जीत नरेंद्र मोदी ने एक चायवाला बन कर हासिल की थी, लेकिन अब मोदी का चेहरा बदल गया है। दिल्लीवालों को लगा कि वे आम आदमी नहीं हैं, पार्टी में दबी भी जुबान से उन्हें तानाशाह कहा जाने लगा। जिस तरह अल्पावधि में ही उन्होंने अमित शाह को खड़ा किया, उससे भीतर ही भीतर कसमसाहट तो थी ही। मीडिया भी मोदी से नाराज था क्योंकि उनके खिलाफ लिखने वालों की खैर-खबर ली जाने लगी थी। लेकिन सबसे ज्यादा दुखी हुई जनता। दिल्ली चुनाव से पहले ओबामा को बुलाना भी मोदी को महंगा पड़ा। ओबामा के लिए 15 हजार सीसीटीवी कैमरे और एक सैकड़ा से अधिक टीवी लगाए गए जो उनके जाने के तुरंत बाद ही हटा लिए गए। जनता ने सोचा कि देश की राजधानी दिल्ली में विदेशी वीवीआईपी के लिए कैमरे लग सकते हंै लेकिन देश के नागरिकों की सुरक्षा की कोई गारंटी नहीं है। दिल्ली की जनता ने मोदी को जवाब दिया। केजरीवाल ने सकारात्मक चुनाव अभियान चलाया। किरण बेदी के खिलाफ एक-दो पोस्टरों को छोड़ दिया जाए, तो भाजपा की तरह नकारात्मक अभियान से केजरीवाल से दूर रहे। जीतने के बाद भी टीवी चैनलों को दिए गए अपने इंटरव्यू में केजरीवाल ने न तो मोदी का जिक्र किया और न ही अभियान का। दिल्ली की जनता के सामने जिस दिन से किरण बेदी का चेहरा आया, वह भाजपा से दूर होती चली गई और केजरीवाल का चेहरा उसे ज्यादा पसंद आने लगा।
भाजपा चिंतित
जिस पार्टी ने अपने 24 मंत्री, 120 सांसद, 50 नेता, खुद प्रधानमंत्री और अध्यक्ष को मैदान में उतारने के बावजूद पिछले चुनाव के मुकाबले 91 प्रतिशत सीटें खो दी हों, उसके दयनीय भविष्य का अंदाज इस पराजय से लग रहा है। आम आदमी पार्टी भले ही दिल्ली में ताकतवर हो लेकिन उसने दिखा दिया है कि वह लोकतंत्र का मखौल बनाने वाले परंपरागत दलों को उखाड़ फेंकने की ताकत रखती है। लोकसभा चुनाव में 60 सीटों पर बढ़त बनाने के बाद 57 सीटों पर उस बढ़त को खोने और 5 सीटों पर तीसरे नंबर पर सिमटने वाली भाजपा की चिंता अन्य पार्टियों की अपेक्षा ज्यादा है। बाकी सब क्षेत्रीय दल हैं और अपने-अपने क्षेत्रों में जात-धर्म-क्षेत्रीयता-भाषा आदि की राजनीति कर पनपते रहे हैं। लेकिन भाजपा जो राष्ट्रीय चरित्र वाली पार्टी है, उसे आम आदमी पार्टी की इस विजय को मामूली नहीं समझना चाहिए। यह राष्ट्रीय फलक पर एक नई पार्टी का नवांकुर तो है ही, बड़ी चुनौती भी है। राजनीति से मोहभंग और राजनीतिज्ञों से नफरत करने वाला देश का एक बड़ा तबका कल को आम आदमी पार्टी के साथ जुड़ जाए तो आश्चर्य नहीं होना चाहिए। वे लोग जो भ्रष्टाचार से त्रस्त हैं, जो वीआईपी संस्कृति से त्रस्त हैं, जो राजनीतिक दलों के छोटे-बड़े नेेताओं, उनके रिश्तेदारों, पुत्रों-पुत्रियों के अहंकार से पीडि़त हैं वे आम आदमी पार्टी में संबल तलाशने की कोशिश करें तो कोई आश्चर्य नहीं होना चाहिए। इत्तेफाक से ऐसे लोगों की तादात भी बहुत बड़ी है। दिल्ली की जनता ने भ्रष्टाचारियों को करारा जवाब दिया है और लोकतंत्र का मखौल बनाने वालों को सख्त चेतावनी दी है। दिल्ली करवट ले चुकी है और देश की राजनीति करवट लेने को बेताब है। जनता जागती है तो अच्छे-अच्छे धराशाई हो जाते हैं, दिल्ली की जनता ने अजय माकन को तीसरे स्थान पर धकेला तो किरण बेदी को सबसे सुरक्षित सीट से भी पराजित कर दिया।
देखा जाए तो भाजपा की पराजय की शुरुआत तो उसी दिन हो गई थी जब किरण बेदी को अमित शाह और नरेंद्र मोदी ने एक तरह से दिल्ली के कार्यकर्ताओं के ऊपर लाकर मुख्यमंत्री प्रत्याशी के रूप में थोप दिया था। भाजपा के टिकट से वंचित प्रदेशाध्यक्ष सतीश उपाध्याय जिन्हें लिस्ट में नाम होने के बावजूद चुनाव लडऩे लायक नहीं समझा गया से लेकर भोजपुरी अभिनेता मनोज तिवारी और शत्रुघन सिन्हा तक शीर्ष नेतृत्व की जिस महान गलती को भांप चुके थे, उसे पहचानने में स्वयं शीर्ष नेतृत्व अहंकार और गलतफहमियों के चलते नाकाम रहा। किरण बेदी का भाजपा में आगमन और अचानक मुख्यमंत्री के रूप में उनकी प्रस्तुति 3-3 दशक से समर्पण भाव से भाजपा की सेवा कर रहे दिल्ली के नेताओं, कार्यकर्ताओं और समर्थकों के लिए एक बड़ा सदमा था। सबकी जुबान पर यही सवाल था कि दिल्ली में भाजपा के पास क्या कोई नेता नहीं था, जो किरण बेदी को लाना पड़ा? जब बिना मुख्यमंत्री प्रत्याशी घोषित किए भाजपा की स्थिति मजबूत दिख रही थी, तो फिर किरण बेदी को लाना क्यों जरूरी था?
दरअसल इस सवाल का जवाब भी एक ऐतिहासिक नादानी की तरफ ही इशारा करता है। लोकसभा चुनाव जीतने के बाद अक्टूबर-नवंबर तक भी भारतीय जनता पार्टी दिल्ली में नंबर-1 पार्टी थी और उसे 40-50 सीटें मिलने की संभावना व्यक्त की जा रही थी। उत्तराखंड के उपचुनावी परिणामों ने कांग्रेस को भी राहत दी थी, इसलिए उसका मनोबल भी थोड़ा-बहुत सुधरा था। उधर हरियाणा, महाराष्ट्र के चुनावी परिणामों ने भाजपा को उत्साहित कर रखा था। लेकिन उसके बावजूद दिल्ली में चुनावों को परे धकेलना भाजपा को भारी पड़ गया। इस बीच सुप्रीम कोर्ट ने भी दिल्ली में राजनीतिक अनिश्चितता पर केंद्र को खरीखोटी सुनाई। दिसंबर माह में भाजपा के आंतरिक सर्वे में मुख्यमंत्री के रूप में केजरीवाल सबकी पसंद थे लेकिन पार्टी के रूप में भाजपा पहली पसंद थी, यहीं से पांसा पलटना शुरू हुआ। इसके बाद भाजपा की चिंता बढ़ी और उसने दिल्ली में चुनाव को हरी झंडी दिखा दी, लेकिन तब तक देर हो चुकी थी। जनवरी के पहले सप्ताह में हुए सर्वेक्षणों में भाजपा और आम आदमी पार्टी बराबरी पर आ चुकी थी, तभी अमित शाह ने किरण बेदी को मुख्यमंत्री प्रोजेक्ट कर मास्टर स्ट्रोक खेलना चाहा लेकिन यह भाजपा के रणनीतिकारों का निहायत गलत और नासमझी भरा फैसला साबित हुआ। चुनाव की कमान भी अरुण जेटली को दी गई, जो स्वयं पंजाब में पराजित होकर आए थे और जिन्हें पार्षद का चुनाव जीतने का भी अनुभव नहीं था। इसके बाद लगातार भाजपा ने ब्लंडर किए। सबसे पहले तो दिल्ली के स्थानीय कार्यकर्ताओं को चुनाव इतर गतिविधियों में लगा दिया गया। वे बेचारे कार्यकर्ता देश भर से आए दिग्गज नेताओं के प्रबंध में ही लगे रहे। उन्हें सभाओं, रैलियों, रोड-शो इत्यादि से फुर्सत ही नहीं मिली कि वे जनता के बीच जाकर सीधा संवाद स्थापित करते। इस बीच जब टिकट वितरण में टिकटों की बिक्री की बात सामने आई, तो कार्यकर्ताओं का हौसला और मनोबल टूट गया। वे घर बैठ गए। उन्हें पता ही नहीं कि क्या करना था। किसकी क्या जिम्मेदारी है यह अखबारों से पता चल रहा था। भाजपा के गाड़ी में घूमने वाले अहंकारी नेताओं ने आम कार्यकर्ता की सुध लेना भी उचित नहीं समझा, इसका परिणाम यह निकला कि अब भाजपा के 3 विधायक 1 बाइक पर बैठकर विधानसभा जा सकते हैं। कार्यकर्ताओं की उपेक्षा ने भाजपा को सचमुच इको-फ्रेंडली पार्टी बना दिया है।
लेकिन गलतियां यहीं नहीं रुकीं, भाजपा ने किरण बेदी को लाकर उन नेताओं की आकांक्षाओं पर तुषारापात कर दिया जो विधानसभा चुनाव के परिणाम के बाद अपने लिए कुछ अच्छा होने की कामना कर रहे थे। जब तक मुख्यमंत्री पद का प्रत्याशी घोषित नहीं किया गया था, दिल्ली के बहुत से दिग्गज नेताओं को यह आस बंधी हुई थी कि शायद उनको मौका मिले लेकिन किरण बेदी के आते ही उनकी आस टूट गई। हालत इतनी बिगड़ गई कि मुंबई से आए कई स्टार पुत्रों और फिल्म स्टारों को बहाने बनाकर पांच सितारा होटलों में कुछ घण्टे रोककर वापस भेज दिया गया। क्योंकि उनका रोड-शो या सभा कराने के लिए कार्यकर्ताओं में उत्साह ही नहीं था। बहुत से दिग्गज नेता बिना सभा किए ही दिल्ली से वापस लौट गए, उन्हें माहौल पता चल चुका था।
अमित शाह ने पार्टी के प्रभावशाली और वयोवृद्ध नेताओं की भरपूर उपेक्षा की। दिल्ली के प्रबुद्ध वर्ग पर लालकृष्ण आडवाणी और ब्राह्मण समाज पर मुरली मनोहर जोशी का अच्छा-खासा प्रभाव है, लेकिन इन दोनों नेताओं की एक भी सभा नहीं हुई। ठाकुरों, पिछड़ी जातियों तथा यूपीवासियों में राजनाथ सिंह का अच्छा प्रभाव है, उन्हें उपेक्षित किया गया। नितिन गडकरी दिल्ली के लाखों मराठियों को लुभा सकते थे, पर वे भी शांत बैठे रहे। केवल गुजराती समुदाय भाजपा की तरफ आकर्षित हुआ मोदी के कारण। वेंकैया नायडू भी मीडिया में मोदी का बचाव करते रहे, लेकिन दक्षिण भारतीय बहुल इलाकों में उनकी कोई सभा नहीं हुई। चुनावी रणनीति भी घटिया थी। केजरीवाल पर किए गए हर एक निजी हमले का जवाब जनता ने वोट से दिया। क्रिकेट में कहा जाता है कि जहां बेट्समैन मजबूत है वहां बॉल नहीं डालनी चाहिए। केजरीवाल के विरुद्ध प्रोपेगंडा करना किसी मजबूत बेट्समैन को उसके पसंदीदा एंगल पर बॉल फेंकने के समान ही है, भाजपा ने यही गलती की।
दो करोड़ का चंदा गलत तरीके से लेने का आरोप लगाया तो केजरीवाल ने सुप्रीम कोर्ट से भाजपा, कांग्रेस और आप तीनों के चंदे की जांच कराने की मांग कर डाली- भाजपा की बोलती बंद हो गई। एक तरफ तो भाजपा ने डेरा सच्चा सौदा के राम-रहीम का समर्थन शिरोधार्य किया और दूसरी तरफ जब केजरीवाल को इमाम बुखारी ने समर्थन दे दिया तो भाजपा ने हंगामा मचा दिया, लेकिन केजरीवाल ने इमाम का समर्थन खारिज कर यहां भी भाजपा को पटखनी दे दी। प्रोपेगंडा में केजरीवाल को हराना भाजपा के वश की बात नहीं है। भाजपा को यह जानना चाहिए कि जो व्यक्ति 49 दिन के शासन में नरेंद्र मोदी को मीडिया से बेदखल करने की ताकत रखता है, वह किसी भी प्रोपेगंडा का जवाब देने में भी उतना ही सक्षम है। भाजपा केजरीवाल का गोत्र तलाशती रह गई, उन्हें भगौड़ा, चोर से लेकर तमाम उपाधियों से विभूषित किया, उनके परिवार को भी निशाना बनाया गया। दिल्ली की जनता देख रही थी कि किस तरह एक निरीह से लीडर के पीछे भाजपा की पूरी ताकत पड़ी हुई थी। धन बल से लेकर बाहुबल, धमकियों और अफवाहों सबका प्रयोग केजरीवाल के खिलाफ किया गया, लेकिन जाको राखे साईंया, मार सके ना कोय। दिल्ली की जनता ही केजरीवाल की रखवाली करने लगी। जनता ने भांप लिया कि उनके नेता के खिलाफ दुष्प्रचार हो रहा है। इसलिए उसने मोदी लहर के बरक्स एक सुनामी पैदा कर दी। मोदी को दिल्ली के उन 32.3 प्रतिशत मतदाताओं का आभार मानना चाहिए, जो इस सुनामी से अविचलित हुए बगैर भाजपा के पक्ष में रहे। इसीलिए 2013 के चुनाव के मुकाबले भाजपा के मत प्रतिशत में मामूली 1 प्रतिशत की गिरावट देखने को मिली लेकिन कांगे्रस का वोट बैंक 14 प्रतिशत तक गिर गया। हालांकि लोकसभा चुनाव के मुकाबले भाजपा का वोट भी 14 प्रतिशत के करीब गिरा है जबकि लोकसभा चुनाव के समय आम आदमी पार्टी को 33 प्रतिशत वोट मिले थे जो अब बढ़कर 54 प्रतिशत हो गए हैं। 21 प्रतिशत का इजाफा किसी सुनामी के समान ही है। इतना इजाफा तो भाजपा ने किसी भी राज्य में लोकसभा चुनाव के बाद नहीं किया, बल्कि कुछ राज्यों में लोकसभा चुनाव के मुकाबले भाजपा का मत 9 प्रतिशत तक गिरा है।
भाजपा इस पराजय पर आत्म-मंथन कर रही है। आत्म-मंथन का सार तभी निकल सकता है जब खुले दिल से खुद को मथा जाए। क्या भाजपा हिन्दूवादी नेताओं और अपने सांसदों के घटिया बयानों पर आत्म-मंथन करेगी? क्या भाजपा हिन्दुत्व, घर वापसी और लव जिहाद के नाम पर किए जा रहे प्रोपेगंडा पर आत्म-मंथन करेगी? क्या भाजपा हिन्दुओं को फैमली प्लानिंग त्यागने के लिए उकसाने वाले नेताओं पर लगाम कसेगी? क्या अहंकारी वीआईपी संस्कृति पर मंथन किया जाएगा? कार्यकर्ताओं से कटने और बाहरी नेताओं को शिरोधार्य करने की प्रवृत्ति को लगाम लगेगा? दलबदलुओं को ज्यादा तवज्जों नहीं दी जाएगी? अपने समर्पित कार्यकर्ताओं और नेताओं को दुखी न करते हुए उन्हें उचित सम्मान प्रदान किया जाएगा? ऐसा बहुत कुछ है जो इस पराजय के बाद किया जाना चाहिए। अन्यथा देश की संसद में 44-45 सीटें किसी को भी मिल सकती हैं, भाजपा अच्छी तरह जानती है।
पार्टी को तोड़ विरोधियों को जोड़ रहे मोदी
विश्लेषक कहते रहे है कि मोदी डिवाइसिव फोर्स है। पर सत्य यह भी है कि वह एक ऐसी ताकत है जिसने भारतीय राजनीति के हर रंग -लाल हरा, नीला को एकजुट किया है। क्या ममता क्या जनता दल सभी मोदी के विरोध में लामबंद हो रहे हैं। विडंबना यह है कि ऐसा करते हुए किसी को भी अपनी विचारधारा की चिंता नहीं है। यानी सब आप ब्रांड राजनीति के ब्रांड एम्बेसडर बनने को आतुर हैं। एक ऐसी पार्टी जिसमें दक्षिण पंथी सोच के कुमार विश्वास हैं तो वाम विचारधारा के कट्टर पैरोकार प्रशांत भूषण भी हैं। यह देखना महत्वपूर्ण और रोचक होगा तब हर मुद्दे पर जनता के हित में फैसला लेना कितना मुश्किल होगा। जनता का नेता वैसा हो जैसा बापू का सपना था। सीधा-सरल समाज को समर्पित शायद यही छवि एक समय में लालू यादव की लोकप्रियता का कारण भी रही थी, लेकिन फिर समाज को वोट बैंंक बनते देर न लगी और सादगी टीवी, कैमरों के लिए बची रह गई। अरविंद केजरीवाल और आप एक सुखद भविष्य का आइना है या मरीचिका है यह आगामी वर्ष में पता चलेगा। दिल्ली में आप पार्टी की वालिंटियर्स की बड़ी सेना थी जो आरएसएस के काडर का मुकाबला करने का मद्दा रखती थी। परंतु देश के अन्य भागों में न तो आप के पास काडर होगा और न ही उतने बड़े नेता। हर जगह केजरीवाल से काम चलेगा। आप के पास समय का अभाव है। क्योंकि युवा मतदाता 24 घंटे में बदलाव चाहता है। इन मतदाताओं की राजनीति में रुचि और आस्था बचाएं रखना कोई आसान काम नहीं होगा। नकारात्मक राजनीति और व्यक्तिगत टिप्पणियां इस नई राजनीति की मांग नहीं है। चाय वाला स्वीकार्य है, प्रधानमंत्री के रूप में पर लाखों का अपने नाम का सूट पहनने वाला नूता आभावों से जूझ रही जनता की उम्मीद नहीं है। दिल्ली के इस प्रयोग के बाद आप के साथ क्या सभी राजनीतिक दल एकजुट होकर यूपी, बिहार, पश्चिम बंगाल और पंजाब के चुनावी दंगलों में बीजेपी को बाहर रखने की कोशिश करेंगे..। आसार तो नजर आ रहे हैं पर ये कितना सफल होंगे यह कहना मुश्किल है। केजरीवाल सरकार की राह इतनी आसान नहीं होगी पर निश्चित रूप से यह भारतीय राजनीति की दिशा और दशा बदलने का बड़ा पड़ाव हो सकती है।
क्या भविष्य है कांग्रेस का?
कुल जमा 8 लाख 67 हजार 27 अर्थात 9.7 प्रतिशत वोट, शून्य सीटें, 63 प्रत्याशियों की जमानत जब्त, बचे 7 में से 5 स्थानों पर तीसरा या चौथा नंबर, हर वर्ग के बीच रसातल में पहुंचती लोकप्रियता, क्षेत्रीय पार्टियों से भी कम जनसमर्थन- यह कांग्रेस के दिल्ली चुनाव का सारांश है। इस पराजय के बाद कांग्रेस के कुछ उत्साही वीर पोस्टर लगाकर नारे लगा रहे थे- प्रियंका लाओ, कांगे्रस बचाओ। अनुवांशिक मतिभ्रम से पीडि़त 139 साल पुरानी कांगे्रस के पास विकल्प भी तो सीमित ही हैं, कोई करिश्माई नेता नहीं है, सब चुक गए बेकार पड़े चेहरे हैं, राहुल गांधी में न आकर्षण है न लगन- दिल्ली चुनाव में वे प्रचार से ज्यादा आटोग्राफ देने में व्यस्त थे। वैसे भी उन्हें सुनता कौन है? कहने को वही 2-3 बातें हैं। विरासत के बलिदानों का बखान भी कब तक किया जाएगा? इसीलिए दिल्ली चुनाव में कांग्र्रेस तो कहीं थी ही नहीं। न ही उसने कोई कोशिश की, न उसके वे समर्पित कार्यकर्ता दिल्ली के घरों-घर जाकर लोगों को मनाते देखे गए, न ही दिल्ली के स्लम में मजबूत पकड़ रखने वाले उसके निचले कॉडर ने घर से निकलने की जहमत उठाई। शीला सरकार का 15 वर्ष का शासन इतना भी बुरा नहीं था कि उस पर इस कदर शर्मसार हुआ जाए। फिर शर्म आ भी रही थी तो माफी मांगने में क्या बुराई थी? केजरीवाल ने वही तो किया, अपनी गलतियों के लिए दिल्ली की जनता से सहृदय माफी मांगी और दिल्ली की जनता ने माफ भी किया। केजरीवाल की माफी ने दिल्ली का दिल जीत लिया लेकिन कांग्रेस के शशि थरूर तो इस बात पर दुख प्रकट करते देखे गए कि अफजल गुरु को फांसी गलत दी गई। कांग्रेसियों के मानसिक दिवालिएपन का इससे उत्कृष्ट उदाहरण और क्या हो सकता था? कभी अयोध्या में विवादित ढांचा विध्वंस के लिए कांगे्रस ने क्षमा-याचना की थी आज विपक्ष में 44 सीटों के साथ वह शोभायमान हो रही है। अब थरूर की यह स्वीकारोक्ति कितना नुकसान पहुंचाएगी, कहा नहीं जा सकता। सुप्रीम कोर्ट ने भी एक तल्ख टिप्पणी की है कि भारत फिलहाल धर्मनिरपेक्ष है, कब तक धर्मनिरपेक्ष रहेगा कहा नहीं जा सकता। उग्र हिन्दुत्व पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की चुप्पी और अफजल गुरु की फांसी पर थरूर का पछतावा इस बात का संकेत है कि अभी भी ध्रुवीकरण की राजनीति को ही ये दोनों दल अपना संबल मान रहे हैं, इसके विपरीत आम आदमी पार्टी ने हर वर्ग के बीच, हर समुदाय के बीच, क्षेत्रीयता-जातीयता, भाषायी संकीर्णता आदि को चुनौती देते हुए अपनी अलग पहचान बनाई है, तो क्या देश की राजनीति बदल रही है? तत्काल तो नहीं लेकिन अगले डेढ़ दशक में अवश्य बदलेगी और इस बदलाव के साथ जिस भी राजनीतिक दल ने कदम ताल करने से इंकार किया, उसकी हालत वैसी ही होगी जैसी दिल्ली चुनाव में कांगे्रस और भाजपा की हुई है।