मप्र में लग्जरी सड़कों के नाम पर टोल वसूली
04-Feb-2015 06:26 AM 1235081

प्रदेश की सड़कें पिछले दिग्गिवजय सिंह के कार्यकाल से बद से बदतर हालत में है। कांग्रेस के चुनाव हारने का एक बड़ा कारण सड़क रहा है। कांगे्रसियों के सामने भाजपा के विधायक सड़कों के बारे में विधानसभा में दर्जनों बार बर्हिगमन और सैकड़ों की संख्या में प्रश्न लगा चुके थे। सबसे ज्यादा सवाल तो भोपाल से सागर की सड़क पर उठते थे।

भाजपा की सरकार आने के बाद सड़कों की हालत ठीक तो हुई है परंतु सरकारी पैसे से नहीं बल्कि मुसाफिरों के पैसों से। देखा जाए तो मध्यप्रदेश के अधिकांश सड़कें टोल वसूली पर चल रही हैं। भाजपा सरकार में उमा भारती के मुख्यमंत्रित्रत्व काल में मध्यप्रदेश राज्य सड़क परिवहन का गठन हुआ। इसके पीछे सरकार का उद्देश्वर फाइव स्टार सड़कें बनाने का था। अंतरर्राष्ट्रीय, राष्ट्रीय नामस के मुताबिक प्रदेश की सड़कें बननी थी पर सड़क बनाने वाले ठेकेदारों  और इंजीनियरों की मिलीभगत से सड़कों की हालत दयनीय है। कहा यह जाता है कि हर विभाग का मुखिया जो चाहता है वह हो जाता है।  ऐसा ही एमपीआरडीसी के मुखियाओं ने किया है। इस निगम की कमान इंदौर में कलेक्ट्री करने वाले दोनों आएएस अफसरों के हाथ में ही रही है। इंजीनियर तो एक मोहरा है। टोल की कई रोडों पर हर दो किलोमीटर पर डायवर्जन है और कई जगह तो पुलिया का निर्माण अभी बाकी है। भोपाल से देवास की सड़क को ही देखें तो सैकड़ों जगह पर पेंचवर्क हुआ पड़ा। आलम यह है कि अच्छा-खासा टोल वसूलने वाली इंदौर-खंडवा-बुरहानपुर, उज्जैन-झालावाड़, होशंगाबाद-हरदा, जबलपुर-नरसिंहपुर, राजगढ़-जोबट, धार-झाबुआ, इंदौर-उज्जैन, रायसेन-राहतगढ़, सागर-दमोह जैसी तमाम रोडें जगह-जगह से टूटी हुई हैं।  क्योंकि जिस रोड पर स्मूथ चालन की बात की जा रही है। वहां सर्र्फेस वेरिएशन ही हर 50-100 मीटर के बीच 3000 मिलीमीटर के करीब आ रहा है। यह हम नहीं कह रहे बल्कि न्यूजीलैंड निर्मित क्रशद्वस्रड्डह्य क्चह्वद्वश्च ढ्ढठ्ठह्लद्गद्दह्म्ड्डह्लशह्म् का आंकलन है जिसे मध्यप्रदेश की रोडों की गुणवत्ता मापने के लिए इम्पोर्ट किया गया है।

मध्यप्रदेश विधानसभा में सड़कों को लेकर सवाल दर सवाल उठाए जाते रहे, लेकिन गोल-मोल जवाब दे दिया गया। दबंग अधिकारियों ने बोल दिया कि सड़कों पर होने वाली 93 प्रतिशत दुर्घटनाएं चालकों की गलती से होती हैं। केवल 7 प्रतिशत मामलों में सड़कों का दोष है। मंत्रालय की पांचवीं मंजिल पर बैठे  अधिकारी दबंग हैं और पुलिस पंगा लेना नहीं चाहती। इसलिए दुर्घटना के आंकड़ों से मनमानी छेड़छाड़ जारी है और उधर लगातार घटिया होती जा रही सड़कों पर वाहन चलाना मानों मौत का आमंत्रण देना है।

स्थानीय विधायक और जनप्रतिनिधि चिल्ला-चिल्लाकर बेहाल हो चुके हंै कि लाइट लगाई जाए, सड़कों पर मार्किंग हो, सड़कों की सही मरम्मत हो, चिन्ह और संकेतक लगाए जाएं, पैट्रोलिंग की उचित व्यवस्था हो, मेंटेनेंस सही स्टैंडर्ड का हो लेकिन उनकी सुनने वाला कौन है। ठेकेदारों को तो कंसेशनायर एग्रीमेंट की ही परवाह नहीं है। सीधी सड़कें बनाने में टाइम नहीं लगता लेकिन पुल-पुलिया बनाने मेें टाइम लगता है। इसी कारण विभाग कहता है कि व्हीकल डैमेज फैक्टर चार से घटकर 1.5 ही रह गया है। लेकिन सच तो यह है कि लाइट व्हीकल हों या हेवी व्हीकल, मध्यप्रदेश मेें इन लग्जरी सड़कों पर चलने वाले वाहनों की हालत दयनीय है। क्योंकि जो बाते एग्रीमेंट में होती है उनका शब्दशय पालन हो ही नहीं पाता। कन्सेशनायर एग्रीमेंट के क्लॉज 17.2 में स्पष्ट बताया गया है कि ऑपरेशन और मेंटेनेंस के लिए क्या शर्तें हैं, लेकिन प्रीमियम देकर सरकार की नजरों में शहंशाह बने ठेकेदार प्रीमियम की राशि का उपयोग तो मेंटेनेंस में करवा लेते हैं पर मेंटेनेंस के नाम पर सड़कों में केवल खानापूर्ति होती है। कन्सेशन एग्रीमेंट में साफ कहा गया है कि कन्सेशन पीरियेड के दौरान प्रोजेक्ट रोड का निर्माण आपरेशन और मेंटेनेंस कंसेशनायर ही करेगा और उसके बाद इसे एमपीआरडीसी को ट्रांर्सफर किया जाएगा। यहां तक कि निर्माण के दौरान भी ठेकेदारों को मौजूदा सड़कों की मरम्मत और रखरखाव का पूरा दायित्व निभाना चाहिए। कुछ प्राकृतिक आपदाओं को छोड़कर सामान्य हालात में सड़कें चमचमाती और परिवहन की दृष्टि से सर्वसुविधा सम्पन्न होनी चाहिए। पर्याप्त सुरक्षा व्यवस्था रहनी चाहिए। यही नहीं एग्रीमेंट मेंं कहा गया है कि अगले वर्ष के ऑपरेशन और मेंटेनेंस प्लान को छह माह पूर्व ही विभाग को बता देना चाहिए। कायदे मेें सामान्य हालातों में हाइवे पर पैट्रोलिंग, रेस्क्यू मेडिकल और एड सेवा फायर ब्रिगेड, टोअवे ट्रक्स और के्रन्स आदि सदैव उपस्थित रहना चाहिए। यही नहीं पिकअप बस स्टाप मेंटेनेंस केम्प, रेस्ट एरिया, ट्रकों की पार्किंग की जगह पानी की व्यवस्था, पब्लिक टॉयलेट और सेनेटरी सुविधाएं तथा कचरे के उचित निपटान की सुविधाएं भी होनी चाहिए। लेेकिन यह सब कहा है। दुर्घटना होने की स्थिति में कई बार समय पर सहायता नहीं मिल पाती। इसी कारण प्रति दुर्घटना मृत्यु का आंकड़ा मध्यप्रदेश में अन्य प्रदेशों की अपेक्षा अधिक है। पब्लिक टॉयलेट तो दूर की बात सैकड़ों किलोमीटर की सड़कें बन चुकी हैं, लेकिन महिलाओं के लिए पर्याप्त बाथरूम नहीं हैं और तो और पैट्रोल पम्पों पर अब महिलाएं बाथरूम जाने से सोचने लगी हैं।

14 हजार से अधिक किलोमीटर की सड़कें आरओबी मॉडल मेें बन चुकी हैं लेकिन उनमें सुविधाएं न के बराबर हैं। सरकार हाइवे किनारे शराब की दुकानें रोकने में नाकाम रही है। लेकिन गलत डिजाइन वाली सड़कों को हरी झंडी दिखा दी जाती है।  जिसके कारण दुर्घटनाएं बढ़ रही हैं। भोपाल के आसपास ही 2014 में 236 लोगों की जानें चली गईं सड़कों के नाम पर वाहवाही लूटने वाला निगम और उसके अफसर आखिरकर कब तक इन फाइव स्टार सड़कों पर अपनी मौतों को निमंत्रण देते रहेंगे। निगम और उसके टोल वसूलने वाले ठेकेदारों ने अगर मेहनत की होती तो मौतों का यह आंकड़ा कभी नहीं आता। निगम ने किसी ठेकेदार की रोड को गलत साबित नहीं किया। अमूमन हर विधानसभा सत्र में तीन जिलों को जोडऩे वाली लेबड़, रतलाम से नयागांव तक फोरलेन के बारे में प्रश्न लगता है। यह प्रश्न लगाने वाले भाजपा-कांग्रेस के ही विधायक होते हैं। इस रोड पर सैकड़ों सड़क एक्सीडेेंट में मौतें हो चुकी हैं। धार, नीमच और मंदसौर के पुलिस अधीक्षकों द्वारा लीपापोती के नाम पर दुर्घटना के कारण को छुपा लिया जाता है। हाल ही में पूर्व  नेता प्रति पक्ष विक्रम वर्मा की विधायक पत्नी श्रीमती नीना वर्मा द्वारा सवाल उठाने पर विभाग ने अपने जवाब को गलत ढंग से सदन में प्रस्तुत किया परंतु सत्ता पक्ष की विधायिका होने के कारण मंत्री से कोई डिबेट नहीं किया। विधायकों को भी  क्या पड़ी है इन मौतों का सौदा करने वाले सड़क ठेकेदारों से। 2013-14 में सड़क दुर्घटनाओं के संबंध में विधानसभा में एक प्रश्न के उत्तर में बताया गया था कि 12-13 में इस सड़क पर 167 दुर्घटनाएं हुईं, जिनमें 42 लोग मारे गए और 171 घायल हुए जबकि उसके अगले वर्ष 232 दुर्घटनाएं हुईं, जिनमें 47 मौतें हुईं और 310 घायल हुए। दो वर्ष के भीतर एक सड़क पर 89 मौतें और 481 घायल होना कहीं न कहीं तकनीकी खराबी की वजह से भी है, हालांकि विभाग इन्हें मानता ही नहीं है। न ही किसी के खिलाफ कोई कार्रवाई की गई। इक्का-दुक्का पर कार्रवाई हुई तो वे भी लिटिगेशन में चले गए।

विभाग के अधिकारियों से बात करें तो वे पीपीपी, बीओटी मॉडलों का गुणगान करने लगते हैं। कहते हैं कि प्रदेश सरकार की औकात ही नहीं थी इतना खर्च करने की। अब निजी क्षेत्र खर्च भी कर रहा है, कमा भी रहा है और प्रीमियम भी दे रहा है, छोटे-बड़ों को मिलाकर कुल 155 लोगों का कार्पोरेशन आखिर इतने बड़े प्रदेश की सड़कों का जाल कैसे बिछा पाएगा। लेकिन निगम ने एक काम अच्छा कर लिया कि अपनी खुद की बिल्डिंग किसी फाइव स्टार से कमतर नहीं बनाई। सड़कों के मामले में महाकौशल की नरसिंहपुर-जबलपुर, मालवा की राजगढ़ बाग, सागर-दमोह, धार-झाबुआ इंदौर-उज्जैन, रायसेन-राहतगढ़ राजगढ़-बाग की रोड पर। जगह-जगह खामी नजर आती है।

इन सड़कों की खस्ता हालत देखने के बाद यह सवाल पैदा होता है कि जिन सड़कों का निर्माण सही मानकों के अनुरूप नहीं हुआ, उन पर टोल टैक्स देना कहां तक उचित है?  सड़क बनती नहीं है कि टोल नाका पहले उग आता है। टोल नाके से गुजरने वाले वाहनों को अच्छा-खासा पैसा देना पड़ता है। लेकिन पैसा देने के बाद भी एमपीआरडीसी द्वारा बनाई गई ज्यादातर सड़कों वर्ष-दर-वर्ष दुर्घटना का आंकड़ा बढ़ता जा रहा है। क्योंकि बीओटी (ओएमटी) मॉडल में ठेकेदारों और अधिकारियों के आर्थिक सशक्तिकरण का पूरा इंतजाम है। ऑपरेशन मेंटेनेंस एण्ड ट्रान्सफर (ओएमटी) के तहत निजी और सरकारी पार्टनरशिप में जो सड़कें बनी हैं, वे तो (पीएलजीएसवाय) प्रधानमंत्री ग्रामीण सड़क  योजना के तहत एमपीआरआरडीए द्वारा बनाई गई 67 हजार 700 किलोमीटर सड़कों से भी घटिया हैं। एमपीआरडीसी ने जो 14 हजार 665 किलोमीटर के करीब नेशनल हाईवे, स्टेट हाईवे, मुख्य जिला मार्ग, ग्रामीण मार्ग इत्यादि बनवाए हैं, उनकी हालत दयनीय है। ज्यादातर सड़कों पर गड्ढे, पेंचवर्क, अनावश्यक ढलान और स्मूथनेस की कमी है। सड़क दुर्घटना का आंकड़ा भी लगातार बढ़ा है। सड़क की गुणवत्ता मापने के लिए क्रशद्वस्रड्डह्य क्चह्वद्वश्च ढ्ढठ्ठह्लद्गद्दह्म्ड्डह्लशह्म् नामक नाजुक सी मशीन एक बोलेरो में न्यूजीलैंड से मंगाकर फिट की गई है। इसमें जो सैंसर लगे हुए हैं वे सड़क की बारीकियों को देखकर उसका डाटा कम्प्यूटर में ट्रांसफर करते हैं और कम्प्यूटर उन्हें एनालाइज करता है। डाटा कनेक्शन लिमिटेड न्यूजीलैंड द्वारा बनाई गई। यह मशीन एक मॉड्यूलर प्रणाली पर काम करती है। आवश्यकतानुसार इसमें मॉड्यूल्स लगाए अथवा हटाए जा सकते हैं। इस मशीन को किसी भी चार-पहिया वाहन में आसानी से फिट किया जा सकता है। इसमें मुख्यत: रफनेस सर्वे, ट्रांसवर्स प्रोफाइल/रटिंग सर्वे, सर्फेस टैक्सचर डाटा संग्रहण, वीडियो लॉगिंग सर्वे, रोड जियोमेट्री सर्वे, ऑटोमेटेड क्रेक डिटेक्शन और थ्री-डी पैवमेंट मॉडलिंग, परिचालन समय और कंजेश्चन सर्वे, डिजिटल फोटोग्राफी आदि की तमाम सुविधाएं हैं। सड़क की बारीकियों को और रफनेस को नापने का  यह एक अच्छा मैकेनिकल इंस्ट्यूमेंट हैं, लेकिन सड़क निर्माण में मटेरियल कैसा उपयोग किया गया है, इसका परीक्षण तो लैब में ही हो सकता है। सवाल यह है कि एमपीआरडीसी द्वारा निर्मित रोड में से कितनी लंबी रोडों पर यह बंप इंटीग्रेटर चला है? फिर सड़कोंं में होने वाले पेंचवर्क और मरम्मत का रिकार्ड रखने के लिए अलग से डाटा संभालना पड़ता है। इस मशीन के निर्माताओं का कहना है कि इसकी मिनिमम ऑपरेटिंग स्पीड 10 किमी प्रति घंटा है और यह कठिन से कठिन परिस्थितियों में भी डाटा एकत्र करने में सक्षम है। 97.5 किलो भारी यह मशीन वह सब कुछ नहीं देख सकती जो सड़क पर चलने वालों को दिख रहा है, जिसके चलते आए दिन सड़क दुर्घटनाओं की संख्या बढ़ती ही जा रही है। सबसे खास बात तो यह है कि क्रशद्वस्रड्डह्य क्चह्वद्वश्च ढ्ढठ्ठह्लद्गद्दह्म्ड्डह्लशह्म् में छोटी-मोटी खराबी आने पर कंपनी को न्यूजीलैंड ईमेल करना पड़ता है। इसका कोई ऑफिस भारत में नहीं है, ऐसा जवाबदार अधिकारी नरेंद्र कुमार ने बताया है। खामियां पता चलने पर वह सुधरीं या नहीं, किस तरह से सुधारी गईं, इसकी मॉनिटरिंग कौन करता है? दुर्घटनाएं रोकने अथवा कम करने के लिए एक्सीडेंट रिस्पॉन्स सिस्टम और ट्रैफिक मैनेजमेंट सिस्टम 12.5 करोड़ रुपए की लागत से खोला गया है। लेकिन सड़क दुर्घटनाएं वैसी ही हैं।

एमपीआरडीसी से सरकार को सड़कों का जाल बनाने की उम्मीद थी परंतु निगम सिर्फ दो अफसरों की बपौती बनकर रह गया। अगर इस प्रदेश में ठेकेदारों ने चांदी काटी है तो सड़कों के नाम पर। वर्तमान सरकार को ये नहीं पता कि जिस सरकार से उसने सत्ता हासिल की है वह सड़कों के नाम पर ही अपनी सत्ता खो चुकी थी।

वेरिएशन तो आएगा

एक किलोमीटर में 3000 मिलीमीटर से ज्यादा वेरिएशन नहीं होना चाहिए, लेकिन सच तो यह है कि 50-100 के भीतर ही  3000 मिलीमीटर वेरिएशन आ जाता है। अब इस मापदंड को घटाकर 2000 तक लाया गया है, लेकिन प्रश्न वहीं है कि नए पैमाने पर भी सड़कें कितनी खरी उतरेंगी। क्योंकि यदि एक भी गड्ढा या पेंचवर्क वगैरह कुछ है तो 2000 से ऊपर वेरिएशन आना तय है।

ओएमटी प्रोजेक्ट - एक साल में करोड़ों का प्रीमियम

सड़क का नाम   स्टेट हाईवे लंबाई (किमी) पंूजी (करोड़) ठेकेदार/कंपनी प्रीमियम (प्रति वर्ष)

बड़वाह-धामनौद 38 60 18.49 अगरोहइंफ्रा 2.07 करोड़

बदनावर-थांदला 18 78.8 8.68 ईगलइंफ्रा 0.35 करोड़

बुदनी-रेहटी-नसरुल्लागंज- 22 87.40 5.50 माधवइंफ्राकॉन 2.52 करोड़

खातेगांव

226.2 32.67 4.94

ध्यान देने की बात यह है कि इस प्रीमियम का उपयोग सड़कों के रखरखाव और रिपेयर पर किया जाता है। ऐसा एमपीआरडीसी की वेबसाईट पर पॉवर प्वाइंट प्रजेंटेशन में बतया गया है, इसका अर्थ यह हुआ कि ठेकेदार जो प्रीमियम देते हैं, वह मेंटेनेंस और रिपेयर के नाम पर घूम-फिर कर उन्हीं की जेबों में चला जाता है।

प्रदेश की सड़क दुर्घटनाएं

मध्यप्रदेश में 2008 में 75 हजार 527, 2009 में 71 हजार 996, 2010 में 71 हजार 289, 2011 में 68 हजार 438 सड़क दुर्घटनाएं दर्ज की गईं। वर्ष 2004 में सड़क दुर्घटना आकस्मिक मृत्यु का नौंवा सबसे बड़ा कारण था, 2030 तक यह पांचवा सबसे बड़ा कारण हो जाएगा। 2011 में भारत मेें 1 लाख 42 हजार 485 लोगों ने सड़क दुर्घटना में जान गंवाई, जबकि 1 लाख 21 हजार 618 घातक रूप से घायल हुए थे। इनमें से स्टेट हाईवे में 39 हजार 33 लोगों की मृत्यु हुई। मध्यप्रदेश में सारे देश के 10.7 प्रतिशत रोड एक्सीडेंट होते हैं। इनमें भी ज्यादातर स्टेट हाईवे पर होते हैं।

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