18-Feb-2015 07:30 AM
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हार में 20 फरवरी को भाजपा क्या विश्वासमत के विरोध में मतदान करेगी? यह अहम सवाल इसलिए खड़ा हो गया है क्योंकि दिल्ली में करारी हार के बाद भाजपा बिहार में नीतिश कुमार को

सहानुभूति का लाभ नहीं लेने देगी। लेकिन सवाल यह है कि जीतनराम मांझी को मझधार में छोड़ भाजपा अपनी विश्वसनीयता कब तक कायम रख पाएगी? मांझी जैसे नेता जो अपने मातृ संगठन को दिन-रात कोसने और पुराने साथियों को हाशिए पर धकेलने में माहिर हैं, वे कब तक भाजपा की इस उपेक्षा को बर्दाश्त करेंगे? इसीलिए बिहार के मैदान में भी अच्छी-खासी पकड़ बनाने के बाद अब अक्टूबर में विधानसभा चुनाव में भाजपा परास्त होने की तैयारी कर रही है। भाजपा ने मांझी के साथ पींगें बढ़ाकर जो ऐतिहासिक गलती की है, उसका खामियाजा आगामी चुनाव में भुगतना पड़ेगा। यदि भाजपा जनता दल यूनाइटेड के भीतर चल रहे सियासी खेल को तटस्थ होकर देखती, तो शायद उसे ज्यादा लाभ होता। लेकिन उस खेल में टांग अड़ाकर भाजपा ने नादानी की। जिस तरह सुशील मोदी ने बिहार के मुख्यमंत्री को गले लगाते हुए उन्हें शह दी, उस पूरी कवायद ने लोकसभा चुनाव के समय बने माहौल को बदलकर रख दिया है। अब भाजपा को इस सियासी खेल में अपने गलत दांव का पता चला है, इसलिए यशवंत सिन्हा ने साफ कहा कि भाजपा विश्वात मत के दौरान मांझी का समर्थन नहीं करेगी। मांझी को अपनी नैया खुद ही पार लगानी होगी।
भाजपा के साथ एक दु:खद प्रसंग यह भी जुड़ गया कि मांझी ने प्रधानमंत्री के साथ अलग से मुलाकात की और प्रधानमंत्री ने उन्हें कुछ ज्यादा ही तरजीह दे दी। भाजपा ने शायद मांझी की ताकत को ज्यादा आंक लिया, इसीलिए राज्यपाल ने भी उन्हें कुछ वैधानिक मजबूरियों का हवाला देते हुए ज्यादा समय दे दिया कि वे इस बीच तोड़-फोड़ कर लें। लेकिन भाजपा यह भूल रही है कि इस दौरान नीतिश और लालू ने अपना किला बहुत मजबूत कर लिया है और मांझी की हार को लगभग सुनिश्चित बनाते हुए उनके साथ जाने को तत्पर विधायकों और मंत्रियों को भी कड़ा संदेश दिया है। जिस तरह राष्ट्रपति भवन में विधायकों की परेड के बाद नीतिश ने भाजपा पर तोड़-फोड़ और खरीद-फरोख्त का आरोप लगाया, उसके बाद भाजपा बैकफुट पर आ गई। यदि भाजपा जीतनराम मांझी को सदन में समर्थन देगी तो इस आरोप की पुष्टि हो जाएगी। इसलिए भाजपा शायद ही यह जोखिम उठाए। जहां तक मांझी का प्रश्न है, भाजपा उन्हें सहयोग करती तो वे थोड़ी-बहुत उठापटक कर सकते थे, 20-30 विधायकों को मंत्री पद का लालच देकर तोड़ भी सकते थे, जैसा उन्होंने प्रस्ताव दिया भी था। लेकिन भाजपा को यह समझ में आ गया कि मांझी को समर्थन देकर सरकार बनवाने से पिछले 10 साल की सत्ता विरोधी लहर का फायदा नहीं मिल पाएगा, इसलिए भाजपा ने ऐन वक्त पर रणनीति बदली। अब भाजपा के लिए यही बेहतर है कि वह मांझी से दूरी बनाए रखते हुए नीतिश को निर्विघ्र शासन करने दे, इससे आने वाले समय में भाजपा को हुए नुकसान की कुछ भरपाई हो सकेगी। इसलिए अब यह संभावना प्रबल हो गई है कि नीतिश ही शीघ्र गद्दीनशीं होंगे।
लालू यादव और नीतिश कुमार को जीतनराम मांझी के नेतृत्व में चुनाव में जाना जोखिमपूर्ण और अनिश्चित लग रहा था। जीतनराम मांझी इस परिवर्तन से अनभिज्ञ रहने का अभिनय अवश्य कर रहे थे किन्तु उन्हें भी संकेत मिल चुका था कि पार्टी में परिवर्तन के लिए सुगबुगाहट और प्रयास प्रारंभ हो चुके हैं। इसीलिए मांझी ने एक तरफ तो महादलित एजेंडे को आगे बढ़ाया और दूसरी तरफ भाजपा से निकटता बढ़ाने की हर संभव कोशिश की। यह कोशिश पिछले 4 माह सेे चल रही थी। जब लालू यादव ने स्थिति भांपी तो उन्होंने भी नीतिश कुमार को हरी झंडी दे दी। उधर शरद यादव जो कि रबर स्टैम्प की तरह नीतिश कुमार के हर निर्णय को मानने के लिए बाध्य थे, नीतिश को पुन: मुख्यमंत्री बनाए जाने के लिए सक्रिय हो चुके थे। लेकिन महादलित समुदाय का सवाल बहुत बड़ा था। नीतिश जानते हैं कि पासवान और मांझी भाजपा के साथ मिलते हैं तो महादलित समुदाय का बड़ा वोट बैंक टूटेगा। इसीलिए मांझी ने भी अपना राजनीतिक भविष्य तय कर लिया था। उन्हें बस इस खबर का इंतजार था कि पार्टी आगामी समय में उनके साथ क्या सलूक करती है। हालांकि मांझी हालात से समझौता करने को तैयार थे। वह पहले ही कह चुके थे कि यदि 23 फरवरी की बैठक में नीतिश की पुन: ताजपोशी पर सहमति बनती है तो उन्हें कोई आपत्ति नहीं है। लेकिन नीतिश ने मांझी को पहले ही रुखसत करवा दिया। विधायक दल ने नीतिश को नया नेता चुन लिया। उधर मांझी ने नीतिश समर्थक मंत्रियों बर्खास्त किया, जब हालात नहीं संभले तो राज्यपाल से विधानसभा भंग करने की सिफारिश भी कर दी। लेकिन दिल्ली इसके लिए तैयार नहीं थी, दिल्ली से संदेश आया कि अभी चुनाव कराना ठीक नहीं है।
मुख्यमंत्री पद भला कौन त्यागना चाहेगा? इसीलिए मांझी के चेहरे पर तल्खी साफ दिखाई देती है। लेकिन उनका दर्द यह है कि जिस पार्टी में उन्होंने लंबा समय गुजारा वहीं उनका साथ देने को कोई बड़ा नेता तैयार नहीं है। पार्टी के भीतर बगावती माहौल है। भाजपा का तो कहना है कि 50 विधायक जनता दल यूनाइटेड से बगावत को तैयार हैं। लेकिन 25 तो अवश्य ही जनता दल यूनाइटेड से किनारा कर सकते हैंं। ये वे लोग हैं, जो लालू से हाथ मिलाए जाने के बाद से ही नीतिश कुमार से खफा चल रहे थे।
बिहार में अक्टूबर माह में चुनाव हैं, 8 माह का समय बचा है और इस दौरान कांग्रेस, जनता दल यूनाइटेड तथा राष्ट्रीय जनता दल को मिलकर संगठित रूप से अपनी ताकत और बढ़ाना है। लेकिन जनता दल यूनाइटेड में फूट पड़ती है तो फिर इसका असर गठबंधन पर भी देखने को मिलेगा। हो सकता है लोकसभा परिणाम सामने रखकर लालू यादव बिहार के मुख्यमंत्री का पद जनता दल यूनाइटेड से मांग लें। यदि ऐसा हुआ तो फिर बिहार में चुनाव से पहले भी कई तरह की राजनीतिक नाटकबाजी देखने को मिलेगी। जहां तक कांग्रेस का प्रश्न है, उसकी हालत बिहार में उस अनाथ बच्चे के समान है जो गांव के बुजुर्गों की अंगुली पकड़कर मेला देखने जाता है। इसलिए कांगे्रस की राय का कोई महत्व नहीं है। जातिवादी समीकरण तो लालू और नीतिश ही तय करेंगे, पर जीतनराम मांझी के खफा होने से महादलित भाजपा की तरफ शिफ्ट हो सकते हैं।
यह परिवर्तन रामविलास पासवान के भाजपा से जुड़े होने के कारण लोकसभा चुनाव के समय देखा जा चुका है। मांझी को सीएम बनाने से महादलित तबका फिर से नीतिश और लालू को समर्थन देने लगा था। यह तो तय है कि मांझी के हटने के बाद भाजपा महादलितों के साथ किए गए अन्याय को मुद्दा अवश्य बनाएगी, इसलिए मांझी जनता दल यूनाइटेड की गले की हड्डी तो बन ही चुके हैं। बिहार में दलित और महादलित की आबादी 23 प्रतिशत है, लगभग 70 विधानसभा क्षेत्रों पर उनकी पकड़ अच्छी है। यही सबसे बड़ा सरदर्द है। 243 सीटों वाली विधानसभा में दलित और महादलितों का साथ बहुमत की गारंटी है, इसलिए भाजपा भी सतर्क है। पर नीतिश की ताजपोशी में देरी करके भाजपा ने नीतिश को सहानुभूति का लाभ उठाने का पूरा मौका दे दिया। यदि भाजपा इस खेल में नहीं कूदती तो नीतिश की छवि एक ऐसे नेता की बन जाती, जो अवसरवादी होने के साथ-साथ महादलित विरोधी भी है। भाजपा इस मुद्दे को चुनाव में भुना सकती थी, पर अब लालू, कांगे्रस और नीतिश के संयुक्त वोट बैंक के समक्ष भाजपा को अपनी ताकत सिद्ध करने के लिए जी तोड़ मेहनत करनी पड़ेगी। दूसरा नुकसान यह है कि यदि आम आदमी पार्टी ने बिहार में चुनाव लड़ा, तो वह शहरी क्षेत्रों में सत्ताविरोधी मत का विभाजन कर सकती है।
हालांकि आम आदमी पार्टी के आने से मुस्लिम वोट भी बंटेगा, लेकिन घाटा भाजपा ही उठाएगी। देखना है अक्टूूबर के बाद राज्य में क्या हालात बनते हैं। वैसे भी भाजपा के पास बिहार में कोई बड़ा चेहरा नहीं है। सुशील मोदी पर आला कमान का भरोसा नहीं है और बाकी नेता बिहार की राजनीति में ज्यादा सक्रिय नहीं हैं। इस बीच शिवसेना ने भी बिहार में भाजपा की नादानी पर चुटकी ली है। शिवसेना के मुखपत्र सामना में लिखा है कि बिहार में नीतिश कुमार के खिलाफ भाजपा मांझी को खेल रही है। यह खेल विश्वातमत के साथ ही समाप्त हो जाएगा, लेकिन मांझी को समर्थन देना आफत को आमंत्रण देने के समान है। क्योंकि मांझी वह व्यक्ति हैं जिन्होंने खुद स्वीकारा है कि वे विकास प्रोजेक्ट के बदले में कमीशन प्राप्त किया करते हैं। ऐसे व्यक्ति को राजनीतिक लाभ के लिए समर्थन देना अपराध है।
पटना से आर.एम.पी. सिंह