03-Feb-2015 07:02 AM
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बिहार में मुख्यमंत्री जीतनराम मांझी ने लालू प्रसाद यादव और नीतिश कुमार की नाक में दम कर रखा है। कभी वे नक्सलवादियों को अपना भाई और बेटा कहते हुए उनके द्वारा वसूली जा रही रंगदारी

को उचित ठहराते हैं, तो कभी लालू यादव के धुर विरोधी और भाजपा के प्रति नरम दिल लालू के साले साधु यादव के घर दही और चिवड़ा खाने चले जाते हैं। भाजपा के प्रति उनकी नरम दिली जगजाहिर है। ऐसी स्थिति में बिहार के इस वर्ष होने वाले विधानसभा चुनाव से पूर्व मांझी के माझी को टटोलने की कोशिश में जितना लालू और नीतिश लगे हुए हैं, उतना ही पर्दे के पीछे से भाजपा भी जोर लगा रही है।
हाल ही में जब 10 जनवरी को जीतनराम मांझी ने नरेंद्र मोदी की तारीफ की तो भाजपा ने अपनी कोशिशें नए सिरे से प्रारंभ कर दीं। भाजपा केंद्र में किसी पद का लालच देकर मांझी को साध सकती है। यदि मांझी सधते हैं तो रामविलास पासवान के साथ-साथ पिछड़ोंं का एक और बड़ा नेता भाजपा के पाले में आ जाएगा। लेकिन इस कवायद से पासवान कितने खुश होंगे, कहा नहीं जा सकता। वैसे बिहार के सियासी गणित में पिछड़ों, अति पिछड़ों और अल्प संख्यकों का खासा महत्व है। लालू, नीतिश और कांग्रेस की तिकड़ी ने इस वर्ग पर अपनी पकड़ बहुत मजबूत बना ली है। ऐसे में चुनाव से पहले भाजपा कुछ और नेताओं को तोडऩे की कोशिश करेगी, ताकि जातिगत संतुलन में उसका पलड़ा भारी रहे। मांझी ने कुछ दिन पहले कहा था कि यह साफ नहीं है कि वह कब तक मुख्यमंत्री रहेंगे, वे 20-20 की तरह खेल रहे हैं। भाजपा इस खेल में अंतिम ओवरों में कुछ नया मोड़ लाने की कोशिश में है, क्योंकि मांझी को मोदी से दोस्ती से परहेज नहीं है। मांझी का मानना है कि मोदी गरीब के विकास की बात करते हैं। यह प्रशंसा नीतिश और लालू के कलेजे में किसी खंजर की तरह चुभ गई है, लेकिन दोनों लाचार हैं। मांझी को हटाने का मतलब होगा महादलितों के बीच जनाधार पूरी तरह खत्म करना।
उधर भाजपा अपने चुनावी समीकरणों को अब नया आकार दे रही है। पिछले विधानसभा चुनाव में वर्ष 2010 में भाजपा और जनता दल यूनाइटेड साथ मिलकर लड़े थे। 243 सदस्यीय विधानसभा में भाजपा को 51 और जनता दल यूनाइटेड को 115 सीटें मिली थीं। दोनों ने मिलकर बाकी सारी पार्टियों का लगभग सफाया ही कर डाला। बिहार में इससे पहले किसी भी गठबंधन को 206 सीटें नहीं मिलीं। खास बात यह है कि भाजपा को तब 16.49 प्रतिशत वोट मिले, जबकि उसकी तत्कालीन सहयोगी जनता दल यूनाईटेड 22.58 प्रतिशत वोट पाने में कामयाब रही। कांग्रेस का कहीं अता-पता नहीं था, वह महज 4 सीटें जीत पाई और 8.37 प्रतिशत वोट ही पा सकी। उधर आरजेडी के लालू यादव यद्दपि अपनी पार्टी को 18.84 प्रतिशत वोट दिलाने में कामयाब रहे, लेकिन सीटें 22 ही जीत पाए। रामविलास पासवान की एलजेपी ने बेहतरीन प्रदर्शन किया। सीटें तो 3 जीतीं लेकिन 6.74 प्रतिशत वोट लेने में कामयाब रही। लोकसभा चुनाव आते-आते यह गणित बदल चुका था। लोकसभा चुनाव में भाजपा को 29.66 प्रतिशत वोट मिला। उसके वोट में लगभग 13 प्रतिशत का इजाफा हुआ। कांग्रेस 8.56 प्रतिशत पर वैसी ही सिमटी रही। जनता दल यूनाइटेड का वोट 6 प्रतिशत घट गया और उसे केवल 16.4 प्रतिशत वोट मिला। लोक जनशक्ति पार्टी ने 6 लोकसभा सीटें जीतीं, वोट 6.5 प्रतिशत मिला। राष्ट्रीय जनता दल के वोट प्रतिशत में भी मामूली इजाफा हुआ और वह विधानसभा चुनाव के मुकाबले लगभग 2 प्रतिशत बढ़त के साथ 20.46 प्रतिशत मत पाने में कामयाब रहा। यदि वर्तमान स्थिति देखें तो कांग्रेस, जनता दल यूनाइटेड और राष्ट्रीय जनता दल की साझा ताकत 45.42 प्रतिशत मत लेने की काबिलीयत रखती है, जो कि भाजपा और लोक जनशक्ति पार्टी के 36.36 से लगभग 6 प्रतिशत अधिक है। यही अमित शाह की चिंता का विषय है। इसीलिए जीतनराम मांझी जैसे नेताओं को अपने खेमे में खींचने की कोशिश की जा रही है। मांझी की कार्यशैली से उनके कई मंत्री नाखुश हैं। मांझी का स्वभाव अक्खड़ है और भाजपा उन्हें हाथों-हाथ लेने के लिए तैयार है। वे पहले भी रामविलास पासवान को कह चुके हैं कि बचेंगे तो नेता बनेंगे, हटेंगे तो शहीद होंगे। दोनों स्थितियों में उन्हें फायदा ही है। सवाल यह भी है कि लालू, नीतिश और कांग्रेस का गठबंधन किसे मुख्यमंत्री प्रोजेक्ट करके लड़ेगा। यदि इस गठबंधन का मुखिया नीतिश को बनाया गया तो मांझी की बगावत तय है। क्योंकि नीतिश की सरकार में मांझी का कोई महत्व नहीं रहेगा। लेकिन केंद्र में मोदी सरकार अवश्य उन्हें हाथों-हाथ ले सकती है। बिहार से राज्य सभा की सीट भी खाली होने वाली है।
-आरएमपी सिंह