18-Feb-2015 07:24 AM
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ध्यप्रदेश में नगरीय निकाय चुनाव के परिणाम अप्रत्याशित नहीं हैं। भाजपा का क्लीन स्वीप भी आश्चर्यचकित नहीं करता। प्रश्न यह है कि शिवराज ने इस चुनाव को इतनी गंभीरता से क्यों लिया। वह
कौन सी असुरक्षा थी जिसके चलते शिवराज ने स्थानीय निकाय चुनावों में भी विधानसभा चुनाव की तरह ही मेहनत की और जीतने के लिए दिन रात-एक कर दिया। दिल्ली के चुनावी परिणामों ने शिवराज जैसे कई बैचेन मुख्यमंत्रियों को राहत दी है, लेकिन उससे पहले नगरीय निकाय के परिणाम राहत भरे साबित हुए। क्योंकि इन परिणामों पर ही आगे की राजनीति निर्भर कर रही थी। शिवराज ने शहरों की स्थिति अपनी आंखों से देख ली थी। उन्हें पता था कि जनता में आक्रोश है। और इस आक्रोश के चलते यदि जनता भाजपा को पराजित कर देगी तो ऊपर खुरापात करने वाले सक्रिय हो जाएंगे। इसलिए यह चुनाव निसंदेह शिवराज की ही दम पर जीते गए। क्योंकि नगर निगमों में काम-काज केवल दिखावटी होता है। नगर निगम के कर्मचारी महापौर की चमचागिरी, अफसरों की लल्लो चप्पो और पत्रकारों का उल्लू सीधा करने में लगे रहते हैं। उन्हें जनता की परेशानी से कोई सरोकार नहीं होता। इसीलिए यह परिणाम इन नगरीय इकाइयों के कामकाज पर जनता की मुहर नहीं है। इससे पहले भी निकाय चुनाव में नगर पालिकाओं तक में शिवराज ने प्रचार किया था और परिणाम पक्ष में आए थे। लेकिन इस बार मुख्यमंत्री ने इंदौर, भोपाल, जबलपुर में ताबड़तोड़ रोड शो किए। उनकी धर्मपत्नी साधना सिंह भी प्रचार में जुटी रहीं। दिसंबर, जनवरी पूरे माह शिवराज ने प्रदेश की लगभग सभी विधानसभाओं मेें रैली, रोड शो और चुनावी सभा को सम्बोधित किया। भोपाल में तो चुनाव जनवरी के अंतिम दिन होने थे, लेकिन 1 माह से ही सीएम सभाएं कर रहे थे। पहले चरण में भी जब 10 नगर निगम के चुनाव हुए थे, शिवराज धुंआधार प्रचार में जुटे रहे। उनकी 150 से अधिक सभाएं या रैलियां हुईं। दूसरे चरण में भोपाल, इंदौर, जबलपुर, छिंदवाड़ा हर जगह सीएम की सभाएं कराई गईं। वोटरों को लुभाने के लिए शिवराज सिंह चौहान ने गली-मोहल्ला एक कर दिया। भोपाल में तो शिवराज की काट ढूंढने के लिए कांग्रेस ने फिल्मी अभिनेताओं को भी बुलाया लेकिन शिवराज के धुंआधार प्रचार के सामने कांग्रेस बहुत पीछे रही। भोपाल की तंग गलियों से लेकर नए शहर में हर जगह शिवराज ही प्रचार कर रहे थे। ऐसा लग रहा था मानो शिवराज अकेले यह चुनाव जीतना चाहते हों, उन्हें किसी और पर भरोसा नहीं है। इससे पहले मध्यप्रदेश में किसी भी मुख्यमंत्री ने पद पर रहते हुए इतना धुंआधार प्रचार नहीं किया। छिंदवाड़ा में तो उन्होंने रोड शो के दौरान रुककर नुक्कड़ सभाएं भी कीं। चारों नगर निगमों में जीत के साथ प्रदेश के 14 नगर निगम में भाजपा के महापौर हैं और भाजपा की ही परिषदें हैं, ऐसा पहली बार हुआ है। अभी उज्जैन नगर निगम के चुनाव बाकी हैं। वहां आम आदमी पार्टी ने चुनाव में उतरने की घोषणा की है। इसलिए भाजपा भी पूरा जोर लगा रही है, सीएम वहां भी चुनावी सभाएं लेंगे। नगरीय निकाय के परिणाम इस बात की पुष्टि कर रहे हैं कि भारतीय जनता पार्टी मध्यप्रदेश में अब अजेय बनती जा रही है। सारे नगर निगमों और अधिकांश नगर पालिकाओंं में भाजपा की भारी जीत इस बात का प्रमाण है कि प्रदेश में शहरी इलाके में कांग्रेस के लिए भाजपा को मात देना अब आसान नहीं है। कांग्रेस के दिग्गज भी शिवराज की लोकप्रियता के समक्ष परास्त ही समझे जा सकते हैं। सुरेश पचौरी, ज्योतिरादित्य सिंधिया, कमलनाथ और प्रदेशाध्यक्ष अरुण यादव की रणनीति बुरी तरह फ्लॉप रही है, कांग्रेस हर मोर्चे पर हारी।
राजधानी भोपाल में कैलाश मिश्रा को आलोक शर्मा के समकक्ष मजबूत प्रत्याशी माना जा रहा था। लेकिन कांगे्रस की प्रचार रणनीति पूरी तरह पिट गई। उसका अपना वोट बैंक भी बिखर गया। आलोक शर्मा ने हर जगह बढ़त बनाई और 4 लाख 42 हजार 412 मत हासिल करते हुए कैलाश मिश्रा को 3 लाख 56 हजार 80 मतों के साथ 86 हजार 332 मतों से पीछे कर दिया। विधानसभा चुनाव के मुकाबले यह जीत उतनी प्रभावशाली नहीं है। कांग्रेस के लिए संतोषजनक यह है कि आला नेताओं की बेरुखी के बावजूद वह भोपाल उत्तर और नरेला में बढ़त बनाने में कामयाब रही। जबकि बाकी अन्य चार विधानसभा क्षेत्रों में भाजपा ने अच्छी बढ़त बनाई। आलोक शर्मा अपने ही घर में नहीं जीत सके उत्तर विधानसभा में उन्हें 9 हजार 473 वोट कम मिले और पार्षद भी कुल 4 ही जीत पाए जबकि कांग्रेस के 7 पार्षद जीते। नरेला विधानसभा में भी आलोक शर्मा 10 हजार 180 वोट से पिछड़े लेकिन यहां 14 वार्ड में विश्वास सारंग ने भाजपा को जीत दिला दी। पर कांग्रेस को कुल 3 वार्ड से संतोष करना पड़ा। दक्षिण-पश्चिम विधानसभा में कड़ा मुकाबला रहा, यहां कांगे्रस को 6 और भाजपा को 5 वार्डों में जीत मिली, एक वार्ड से निर्दलीय उम्मीदवार जीत गया। दोनों महापौर प्रत्याशी के वार्डों में पराजय मिली। कैलाश मिश्रा के वार्ड से निर्दलीय प्रत्याशी मोहम्मद सऊद जीत गए, उधर आलोक शर्मा के वार्ड से कांग्रेस पार्षद वात्सायन जैन ने बाजी मारी। भाजपा 55 और कांग्रेस 26 पार्षदों को जिताने में कामयाब रही जबकि अन्य के खाते में 4 सीटें गईं। 1983-84 मेें बने भोपाल नगर निगम में तीसरी बार भाजपा जीती है। इंदौर, जबलपुर और छिंदवाड़ा में स्त्री शक्ति की विजय हुई, भाजपा की तीनों महिला प्रत्याशी जीतीं। इंदौर में मालती गौड़ ने रिकार्ड 2 लाख 46 हजार 596 वोट से जीत हासिल की। जबलपुर में स्वाति गोडबोले 45 हजार 941 वोट से जीतीं। छिंदवाड़ा में कांता सदारंग 9 हजार 578 वोट से जीतीं। छिंदवाड़ा में पहली बार नगर निगम चुनाव हुए। 5 नगर परिषदों में से छापीहेड़ा, बड़ौनी और पटेरा में भाजपा को जीत मिली जबकि वनखेड़ी और शमशाबाद में कांग्रेस जीती। हरदा मेें वर्तमान नगर पालिका अध्यक्ष संगीता बंसल को जनता ने वापस बुला लिया लेकिन छनेरा में अध्यक्ष कमलकांत भारद्वाज को जनता अभी भी पसंद करती है और वे बने रहेंगे।
परिषदें भी भाजपा की
अनुमान लगाया गया था कि परिषदों मेें कांगे्रस भारी रहेगी लेकिन नगर निगम परिषद में भी चारों शहरों में भाजपा ने बाजी मारी। इंदौर के 85 वार्डों में से भाजपा ने 65 वार्ड जीते जबकि कांग्रेस को 15 वार्ड पर ही जीत मिली, 5 अन्य के खाते में गए। 2009 में भी यहां भाजपा की ही परिषद थी, लेकिन उस वक्त भाजपा को 86 सीटें मिली थीं। कांगे्रस के पास 19 सीटें थीं और 4 निर्दलीय जीते। भोपाल में भी यही हाल रहा, यहां 85 वार्ड में से 55 में भाजपा जीतने में कामयाब रही। 26 पर कांग्रेस जीती और 4 अन्य के खाते में गए। 2009 में भोपाल की नगर निगम परिषद में कांगे्रस का बहुमत था, जब कांग्रेस के पास 42 और भाजपा के पास 28 वार्ड थे। उस समय परिसीमन से पूर्व भोपाल नगर निगम में 70 वार्ड ही थे। जबलपुर में भाजपा ने 79 वार्ड में से 41 वार्ड पर जीत हासिल की, 28 में कांग्रेस जीती और 10 में अन्य। 2009 के मुकाबले यहां भी भाजपा बढ़ी। तब भाजपा को 36 वार्ड में जीत मिली थी, कांग्रेस 29 में जीती थी और 3 पर अन्य को जीत मिली थी। पहली बार नगर निगम बने छिंदवाड़ा में भी भाजपा की ही परिषद बनी है, यहां 48 वार्डों में से 28 पर भाजपा जीती है। कांगे्रस को 19 पर जीत मिली और 1 सीट पर अन्य को जीत मिली। 2009 में जब छिंदवाड़ा नगर पालिका थी उस समय भी भाजपा का ही बोलबाला था, तब भाजपा 32, कांग्रेस 7 और अन्य 9 सीटों पर जीते थे। इससे साफ है कि बड़े नगरों में भाजपा का संगठन कांग्रेस से कई ज्यादा मजबूत और लोकप्रिय है।
क्या हैं चुनौतियां
भाजपा गांव, शहर से लेकर दिल्ली तक अपनी सरकार चाहती थी। जनता ने उसे सरकार सौंप दी। मध्यप्रदेश के शहर निहायत गन्दे और अस्त-व्यस्त हैं। यहां के नेता शहरों को पेरिस बनाने की डींगे तो हांकते हैं, लेकिन शहर कचरे के ढेर ही बने रहते हैं। सभी शहरों में सड़क, पानी और बिजली की समस्या में से बिजली पर थोड़ा-बहुत समाधान निकला है, लेकिन शहरों की भीतरी सड़कें सकरी होने के साथ-साथ जीर्ण-शीर्ण भी हैं। लगातार बढ़ते वाहनों के कारण चक्काजाम आम हो चुका है। बहुत सी कॉलोनियां पानी के अभाव में तरसती हैं। शहर नाम के रह गए हैं। वे समस्याओं के अंबार बनते जा रहे हैं। अब भाजपा के पास कोई बहाना नहीं है।
भोपाल से विकास दुबे