18-Feb-2015 07:12 AM
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ठारी के नरपिशाच सुरेंद्र कोली को उत्तरप्रदेश सरकार की लापरवाही के चलते फांसी की सजा से बचने का मौका मिल ही गया। कोली की दया याचिका में इतनी देर हो गई कि अंतत: हाईकोर्ट ने उसकी

फांसी को उम्रकैद में तब्दील कर दिया।
इलाहाबाद हाईकोर्ट का कहना है कि संविधान के अनुच्छेद 161 के तहत मृत्युदंड प्राप्त व्यक्ति की दया याचिका पर उचित कदम उठाने के लिए राज्य सरकार के पास न तो प्रक्रिया है और न ही प्रणाली है। किसी के भी जीने के अधिकार से इस तरह खिलवाड़ नहीं किया जा सकता। कोर्ट ने जो कमियां गिनाई हैं उनसे पता चल रहा है कि उत्तरप्रदेश सरकार खतरनाक मुजरिमों को उनके अंजाम तक पहुंचाने में भी लापरवाही बरतती है।
दया याचिका पर कार्यवाही 3 अपै्रल 2005 को पारित सरकारी आदेश के तहत की जाती है, जिसमें राज्यपाल को सजा माफी का अधिकार है। लेकिन राज्यपाल का आदेश केवल उन्हीं अभियुक्तों पर लागू होता है जो फांसी पाने के करीब हैं। इस मामले में प्रमुख सचिव गृह ने न्यायालय को लिखित में बताया था कि उन्हें ना तो दया याचिका पर अनुशंसा करने का अधिकार है और ना ही यह उनके अधिकार क्षेत्र में आता है, लेकिन इसके बाद भी गृह सचिव ने कोर्ट में कोली की फांसी यथावत रखने की अनुशंसा की। इस अनुशंसा पर राज्य के कानून विभाग ने आगे कदम बढ़ाया जो कि अवैध था। नियमानुसार कानून विभाग को ही इस मामले से निपटना था।
अदालत ने पहले जारी डेथ वारंट को भी असंवैधानिक करार दिया तथा कहा कि कैदी को तन्हाई में रखना सुप्रीम कोर्ट के फैसलों एवं संवैधानिक अधिकारों के विपरीत था। राज्य सरकार की ओर से कहा गया कि कोली द्वारा सुप्रीम कोर्ट में दाखिल पुनर्विचार अर्जी की वजह से दया याचिका के निस्तारण में देरी हुई। कोर्ट ने इस स्पष्टीकरण को पर्याप्त नहीं मानते हुए कड़ी टिप्पणी की कि राज्य सरकार ने अदालत को गुमराह करने की कोशिश की। कोर्ट ने कहा कि अर्जी के आधार पर देरी का तर्क भ्रामक है क्योंकि अर्जी का दया याचिका से कोई संबंध नहीं था। प्रदेश के गृह विभाग ने पहले यह कहा कि उसे इस मामले में क्षेत्राधिकार नहीं है पर इसके बाद प्रमुख सचिव, गृह ने याचिका निरस्त करने के लिए राज्यपाल को संस्तुति भी कर दी जबकि यह काम कानून मंत्रालय का था।
पीपुल्स यूनियन फार डेमोके्रटिक राइट्स और सुरेन्द्र कोली की याचिकाओं को मंजूर करते हुए कोर्ट ने कहा कि राज्य सरकार ने केंद्र सरकार को प्रकरण भेजने में 26 माह की देरी की और जिसका उचित स्पष्टीकरण भी वह नहीं दे सकी। महाधिवक्ता विजय बहादुर सिंह का कहना था कि सरकार ने यथाशीघ्र निर्णय लिया और कोली के जघन्य अपराध को देखते हुए दया याचिका निर्णीत करने में हुई देरी का उसे फायदा नहीं दिया जा सकता। दया याचिका निर्णीत करने की कोई समय सीमा तय नहीं है। भारत सरकार के अपर सॉलीसिटर जनरल अशोक मेहता ने तर्क दिया कि केंद्र सरकार ने देर नहीं की है, जो भी समय लगा है वह प्रक्रियात्मक है। यह मामला रिम्पा हलधर की जघन्य हत्या से जुड़ा हुआ है जिसमें सत्र न्यायालय के फैसले को सुप्रीम कोर्ट ने भी बहाल रखा था। इसके अलावा कोली के खिलाफ पांच आपराधिक मामलों में सत्र न्यायालय से फांसी की सजा हुई है, जिसकी अपील हाईकोर्ट में विचाराधीन है। दर्जनों अन्य मामलों में विचार चल रहा है। कोर्ट ने साफ कर दिया कि 13 अगस्त 2005 का शासनादेश कोली के प्रकरण में लागू नहीं होगा। इस शासनादेश में समय पूर्व रिहाई का प्रावधान है।
बंजारा को भी राहत
उधर इसरत जहां मुठभेड़ कांड में गलत तरीके से फंसाने का आरोप लगाने वाले निलंबित आईपीएस डीजी बंजारा तथा पीपी पांडे को सीबीआई की विशेष अदालत ने जमानत दे दी है। बंजारा को हाल ही के दिनों में दूसरी बार जमानत मिली है। उनके गुजरात में प्रवेश पर पाबंदी लगायी गयी है वह सिर्फ अपने केस की सुनवाई के लिए गुजरात जा सकते हैं। दूसरी तरफ निलंबित अधिकारी पांडेय को जेल में 18 महीने गुजारने के बाद जमानत मिली है। विशेष न्यायाधीश केआर उपाध्याय ने अतिरिक्त पुलिस महानिदेशक पांडेय को एक लाख रुपये के निजी मुचलके के साथ दो जमानती बांड भरने पर जमानत दी। वह जुलाई 2013 में अदालत के सामने आत्मसमर्पण करने के बाद से जेल में बंद थे। सीबीआई की अदालत ने वर्ष 2004 में इस घटना के समय शहर के संयुक्त पुलिस आयुक्त रहे पांडेय को अपना पासपोर्ट जमा करने और बिना पूर्व अनुमति के देश छोड़कर नहीं जाने का भी निर्देश दिया है। अदालत ने यह भी शर्त लगाई कि पांडेय कोई ऐसा काम नहीं करेंगे जिससे मामले की जांच प्रभावित हो सकती हो और वह इस मामले से जुड़े किसी गवाह को भी प्रभावित करने का प्रयास नहीं करेंगे। अदालती आदेश में कहा गया कि पांडेय को हर गुरुवार को सीबीआई अदालत के सामने हाजिर होना है और वह सुनवाई के दौरान उपस्थित रहेंगे। पन्द्रह जून 2004 को शहर के बाहरी इलाके में एक मुठभेड में अहमदाबाद अपराध शाखा के अधिकारियों ने मुंबई की 19 वर्षीय छात्रा इशरत जहां, प्रनेश पिल्लै उर्फ जावेद शेख, अमजद अली राना और जीशान जौहर की कथित रुप से हत्या करने की घटना के समय पांडेय संयुक्त पुलिस आयुक्त थे। सीबीआई का कहना है कि यह फर्जी मुठभेड़ थी जिसकी साजिश गुजरात पुलिस और आइबी ने संयुक्त रूप से रची थी। इस मामले की सुनवाई के दौरान, पांडेय की ओर से पेश वरिष्ठ अधिवक्ता निरुपम नानावती ने कहा कि इस मामले में एक अन्य आईपीएस अधिकारी सतीश वर्मा के इशारे पर उनके मुवक्किल पर मामला दर्ज किया गया। सीबीआई की ओर से पेश लोक अभियोजक एलडी तिवारी ने जमानत याचिका का विरोध करते हुए कहा कि पांडेय चार लोगों की हत्या से जुड़ी साजिश में शामिल थे।
-धर्मवीर रत्नावत