शिव ही सर्वस्य
17-Feb-2015 01:05 PM 1235034

व आदि देव है। वे महादेव हैं, सभी देवों में सर्वोच्च। शिव को ऋग्वेद में रुद्र कहा गया है। पुराणों में उन्हें महादेव के रूप में स्वीकार किया गया है। श्वेता श्वतरोपनिषद् के अनुसार सृष्टि के आदिकाल में जब सर्वत्र अंधकार ही अंधकार था। न दिन न रात्रि, न सत् न असत् तब केवल निर्विकार शिव (रुद्र) ही थे।Ó शिव पुराण में इसी तथ्य को इन शब्दों में व्यक्त किया गया है -
एक एवं तदा रुद्रो न द्वितीयोऽस्नि कश्चनÓ सृष्टि के आरम्भ में एक ही रुद्र देव विद्यमान रहते हैं, दूसरा कोई नहीं होता। वे ही इस जगत की सृष्टि करते हैं, इसकी रक्षा करते हैं और अंत में इसका संहार करते हैं। रुÓ का अर्थ है-दु:ख तथा द्रÓ का अर्थ है-द्रवित करना या हटाना अर्थात् दु:ख को हरने (हटाने) वाला। शिव की सत्ता सर्वव्यापी है। प्रत्येक व्यक्ति में आत्म-रूप में शिव का निवास है- सामान्यत: ब्रह्मा को सृष्टि का रचयिता, विष्णु को पालक और शिव को संहारक माना जाता है। परन्तु मूलत: शक्ति तो एक ही है, जो तीन अलग-अलग रूपों में अलग-अलग कार्य करती है। वह मूल शक्ति शिव ही हैं। स्कंद पुराण में कहा गया है-ब्रह्मा, विष्णु, शंकर (त्रिमूर्ति) की उत्पत्ति माहेश्वर अंश से ही होती है। मूल रूप में शिव ही कत्र्ता, भर्ता तथा हर्ता हैं। सृष्टि का आदि कारण शिव है। शिव ही ब्रह्म हैं। बह्म की परिभाषा है - ये भूत जिससे पैदा होते हैं, जन्म पाकर जिसके कारण जीवित रहते हैं और नाश होते हुए जिसमें प्रविष्ट हो जाते हैं, वही ब्रह्म है।
यह परिभाषा शिव की परिभाषा है। ध्यान रहे जिसे हम शंकर कहते हैं- वह एक देवयोनि है जैसे ब्रह्मा एवं विष्णु हैं। उसी प्रकार शंकर शिव के ही अंश हैं। पार्वती, गणेश, कार्तिकेय आदि के परिवार वाले देवता का नाम शंकर है। शिव आदि तत्व है, वह ब्रह्म है, वह अखण्ड, अभेद्य, अच्छेद्य, निराकार, निर्गुण तत्व है। वह अपरिभाषेय है, वह नेति-नेति है। शिव की स्वतंत्र निजी शक्ति के दो शाश्वत रूप उसकी प्रापंचिक अभिव्यक्ति में प्रतीत होते हैं, जिन्हें विद्या तथा अविद्या कह सकते हैं। इस प्रापंचिक ब्रह्माण्ड व्यवस्था में परमात्मा के पारमार्थिक आनंदमय स्वरूप को प्रकट करने वाली शक्ति विद्या कहलाती है तथा परमात्मा की प्रापंचिक विभिन्ननाओं के आवरण से अवगुंठित शक्ति अविद्या कहलाती है। परमात्मा की अभिन्न शक्ति के ही दोनों रूप हैं। नाना आकारों में उसकी ही अभिव्यक्ति है। यह अभिव्यक्ति उसकी शक्ति का विलास है, लीला है। यह ब्रह्माण्ड परमात्मा की निजी शक्ति का व्यावहारिक पक्ष है। पारमार्थिक पक्ष में परमात्मा पूर्णतया एक है-एकं द्वितीयो नास्ति।Ó उसके चरम सत् और चित् में कोई भेद नहीं, उसके स्वभाव में कोई द्वैत एवं सापेक्षिता नहीं। यहां वह चरम अनुभव की अवस्था में है जिसमें स्वनिर्मित ज्ञाता-ज्ञेय का कोई भेद नहीं है। परमात्मा का यह स्वरूप प्रकाश स्वरूप है।
परमात्मा की शक्ति का विमर्श पक्ष उसे व्यावहारिक स्तर पर आत्म-चेतन बना देता है। अत: विमर्श-शक्ति शिव की आत्म चेतनता पर आत्मोद्घाटन की शक्ति मानी जाती है। यहां परमात्मा ज्ञाता ज्ञेय के रूप में अपने आपको विभाजित कर लेता है। परमात्मा की यह वस्तुगत आत्म-चेतना है जो विभिन्न स्तरों के भोक्ता या भोग्य पदार्थों के रूप में दृष्टिगोचर होती है। काल, दिक्, कारणत्व एवं सापेक्षिकता चारों परमात्मा के वस्तुगत रूप हैं। परमात्मा की विमर्श शक्ति को माया शक्ति भी कहा जाता है।
इसी तथ्य को गोरख ने सिद्ध सिद्धान्त-पद्धतिÓ में इस प्रकार वर्णित किया है- शिवस्याभ्यन्तरे शक्ति: शक्तेरभ्यन्तरेशिव:।Ó शक्ति शिव में निहित है शिव शक्ति में निहित हैं। चन्द्र और चन्द्रिका के समान दोनों अभिन्न हैं। शिव को शक्ति की आत्मा कहा जा सकता है और शक्ति को शिव का शरीर। शिव को शक्ति का पारमार्थिक रूप कहा जा सकता है और शक्ति को शिव का प्रापंचिक रूप। शिव से भिन्न और स्वतंत्र शक्ति का कोई अस्तित्व नहीं है और शक्ति की अवहेलना की जाए तो शिव का आत्म प्रकाशन संभव नहीं है। शक्ति के कारण ही शिव स्वयं सर्व शक्ति मान, सर्वज्ञानी, सर्वानंद, सगुण परमेंश्वर, जगत का सर्जक, पालक और भोक्ता बन जाता है। निज शक्ति से रहित शिव कोई भी कार्य नहीं कर सकते, किन्तु निज शक्ति सहित वे समस्त स्तरों के अस्तित्वों के सर्जक एवं प्रकाशक बन जाते हैं। शिव एक साथ स्रष्टा एवं सृष्टि आधार और आधेय आत्मा और शरीर हैं। शक्ति एक को अनेक करती है और पुन: अनेक को एक में मिला देती है। शिव का विस्तार सृष्टि है, शिव का संकुचन प्रलय है। अत: शिव के निर्गुण एवं सगुण दोनों ही स्वरूप स्वीकार्य हैं।
श्री बैजनाथजी महाराज

FIRST NAME LAST NAME MOBILE with Country Code EMAIL
SUBJECT/QUESTION/MESSAGE
© 2025 - All Rights Reserved - Akshnews | Hosted by SysNano Infotech | Version Yellow Loop 24.12.01 | Structured Data Test | ^