02-Feb-2015 03:01 PM
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निर्मानमोहा जितस-दोषा अध्यात्मनित्या विनिवृत्तकामा:।
द्वन्द्वैर्विमुक्ता: सुखदु:खसंज्ञे-र्गच्छन्त्यमूढा: पदमव्ययं तत्।।
झूठी प्रतिष्ठा, मोह तथा कुसंगति से मुक्त हैं, जो शाश्वत तत्व को समझते हैं, जिन्होंने भौतिक काम को नष्ट कर दिया है, जो सुख तथा दुख के द्वन्द्व से मुक्त हैं और जो मोहरहित होकर परम पुरुष के शरणागत होना जानते हैं, वे उस शाश्वत राज्य को प्राप्त होते हैं।
यहां पर शरणागति का अत्यन्त सुन्दर वर्णन हुआ है। इसके लिए जिस प्रथम योग्यता की आवश्यकता है, वह है मिथ्या अहंकार से मोहित न होना। चूंकि बद्धजीव अपने को प्रकृति का स्वामी मानकर गर्वित रहता है, अतएव उसके लिए भगवान की शरण में जाना कठिन होता है। उसे वास्तविक ज्ञान के अनुशीलन द्वारा यह जानना चाहिए कि वह प्रकृति का स्वामी नहीं है, उसका स्वामी तो परमेश्वर है। जब मनुष्य अहंकार से उत्पन्न मोह से मुक्त हो जाता है, तभी शरणागति की प्रक्रिया प्रारम्भ हो सकती है। जो व्यक्ति इस संसार में सदैव सम्मान की आशा रखता है, उसके लिए भगवान के शरणागत होना कठिन है। अहंकार तो मोह के कारण होता है, क्योंकि यद्यपि मनुष्य यहां आता है, कुछ काल तक रहता है और फिर चला जाता है, तो भी मूर्खतावश यह समझ बैठता है कि वही इस संसार का स्वामी है। इस तरह वह सारी परिस्थिति को जटिल बना देता है और सदैव कष्ट उठाता रहता है। सारा संसार इसी भ्रान्तधारणा के अंंतर्गत आगे बढ़ता है। लोग सोचते हैं कि यह भूमि या पृथ्वी मानव समाज की है और उन्होंने भूमि का विभाजन इस मिथ्या धारणा से कर रखा है कि वे इसके स्वामी हैं। जब मनुष्य इस प्रकार की भ्रान्तधारणा से मुक्त हो जाता है, तो वह पारिवारिक, सामाजिक तथा राष्ट्रीय स्नेह से उत्पन्न कुसंगतियों से मुक्त हो जाता है। ये त्रुटिपूर्ण संगतियां ही उसे इस संसार से बांधने वाली हैं। इस अवस्था के बाद उसे आध्यात्मिक ज्ञान विकसित करना होता है। उसे ऐसे ज्ञान का अनुशीलन करना होता है कि वास्तव में उसका क्या है और क्या नहीं है। जब उसे वस्तुओं का सही-सही ज्ञान हो जाता है तो वह सुख-दुख, हर्ष-विषाद जैसे द्वन्द्वों से मुक्त हो जाता है। वह ज्ञान से परिपूर्ण हो जाता है और तब भगवान का शरणागत बनना सम्भव हो पाता है।
न तद्भासयते सूर्यों न शशाङ्को न पावक:।
यद्गत्वा न निर्वतन्ते तद्धाम परमं मम।।
जब तक जीव इस अंधकारमय जगत में रहता है, तब तक वह बद्ध अवस्था में होता है। लेकिन ज्योंही वह इस भौतिक जगत रूपी मिथ्या, विकृत वृक्ष को काट कर आध्यात्मिक आकाश में पहुंचता है, त्योंही वह मुक्त हो जाता है। तब वह यहां वापस नहीं आता। इस बद्ध जीवन में जीव अपने को भौतिक जगत का स्वामी मानता है। लेकिन अपनी मुक्त अवस्था में वह आध्यात्मिक राज्य में प्रवेश करता है और परमेश्वर का पार्षद बन जाता है। वहां पर वह सच्चिदानन्दमय जीवन बिताता है। इस सूचना से मनुष्य को मुग्ध हो जाना चाहिए। उसे उस शाश्वत जगत में ले जाए जाने की इच्छा करनी चाहिए और सच्चाई के इस मिथ्या प्रतिबिम्ब से अपने आपको विलग कर लेना चाहिए। जो इस संसार से अत्यधिक आसक्त हैं, उसके लिए इस आसक्ति का छेदन करना दुष्कर होता है। लेकिन यदि वह कृष्णभावनामृत को ग्रहण कर ले, तो उसके क्रमश: छूट जाने की सम्भावना है। उसे ऐसे भक्तों की संगति करनी चाहिए जो कृष्णभावनाभावित होते हैं। उसे ऐसा समाज खोजना चाहिए, जो कृष्णभावनामृत के प्रति समर्पित हो और उसे भक्ति करनी सीखनी चाहिए। इस प्रकार वह संसार के प्रति अपनी आसक्ति विच्छेद कर सकता है। यदि कोई चाहे कि केसरिया वस्त्र पहनने से भौतिक जगत के आकर्षण से विच्छेद हो जाएगा, तो ऐसा सम्भव नहीं है। उसे भगवद्भक्ति के प्रति आसक्त होना पड़ेेगा। अतएव मनुष्य को चाहिए कि गम्भीरतापूर्वक समझे कि बारहवें अध्याय में भक्ति का जैसा वर्णन है वही वास्तविक वृक्ष की इस मिथ्या अभिव्यक्ति से बाहर निकलने का एकमात्र साधन है। चौदहवें अध्याय में बताया गया है कि भौतिक प्रकृति द्वारा सारी विधियां दूषित हो जाती हैं, केवल भक्ति ही शुद्ध रूप से दिव्य है।