04-Feb-2015 03:30 PM
1234817

महाराष्ट्र में सरकार बने कुछ ही माह बीते हैं, लेकिन शिवसेना की तल्खियां भाजपा के लिए सरदर्द बन गई हैं। सबसे पहले तो शिवसेना ने दिल्ली विधानसभा में अपने प्रत्याशी खड़े करने की घोषणा करके भाजपा को चौंका दिया। 17 जनवरी तक तो 10 उम्मीदवारों की सूची भी घोषित कर दी थी। भाजपा इस आकस्मिक हमले से संभल पाती कि उद्दव ठाकरे ने फिर आक्रामक रुख अपनाया और कहा कि महाराष्ट्र की सरकार हमारी नहीं है, सरकार को हमने बस स्थिर किया है। जब कभी ये कुछ गलत करेंगे, हमारे सांसद और विधायक इसके खिलाफ आवाज उठाएंगे।
10 मंत्रीपद पाने के बावजूद शिवसेना का रवैया भाजपा के प्रति ठीक नहीं है, तो जरूर इसका कुछ सियासी कारण होगा। दरअसल शिवसेना को उम्मीद थी कि महाराष्ट्र में बड़े भाई की भूमिका निभाने के बाद वह अन्य राज्यों में पैर जमाने की कोशिश करेगी, जहां उग्र हिंदूपंथ और स्थानीय मराठियों के सहयोग से वह अपना वोट प्रतिशत बढ़ा सकती है, जिसके चलते कालांतर में महाराष्ट्र में सौदेबाजी के लिए ज्यादा स्पेस भी नहीं है। किंतु मोदी लहर में भाजपा की 122 सीटें आने के बाद 65 तक सिमटी शिवसेना के सारे मंसूबे धरे के धरे रह गए। सरकार भले ही बना ली है लेकिन सच तो यह है कि शिवसेना का वह रुतबा अब नहीं है, जो कभी बाल ठाकरे के समय गठबंधन सरकार में हुआ करता था। इसी कारण शिवसेना बौखलाई हुई है और एक ऐसे रास्ते की तलाश में है, जहां से उसका ग्राफ बढऩा शुरु हो जाए। फिलहाल भाजपा केंद्र में मजबूत स्थिति में है, शिवसेना के 18 सांसद भाजपा विरोधी हो जाएं तब भी भाजपा की स्थिरता पर कोई फर्क केंद्र में नहीं पड़ेगा। क्योंकि एक तरफ तो लोकसभा में भाजपा की संख्या बहुमत से अधिक है, वहीं दूसरी तरफ जयललिता और नवीन पटनायक का झुकाव भाजपा की तरफ बढ़ा है जिससे राज्यसभा में भी संतुलित हालात बने हुए हैं। ऐसे में शिवसेना भाजपा के समक्ष महाराष्ट्र और मराठी मानुस, मराठी अस्मिता जैसे सवालात उठाकर क्षेत्रीय राजनीति को पुन: हवा देना चाहती है।
इस मामले पर राज ठाकरे की चुप्पी आश्चर्यजनक और हैरान करने वाली है। राज ठाकरे उग्र मराठी राजनीति करते आए हैं लेकिन भाजपा सरकार आते ही नरेंद्र मोदी के मुरीद बन गए हैं। राज ठाकरे का साथ भाजपा को ज्यादा सुविधाजनक लगा था। नितिन गडकरी ने राज ठाकरे को नजदीक लाने की कोशिश भी की थी, लेकिन बात बनी नहीं और इतनी बिगड़ गई कि भाजपा-शिवसेना को अलग-अलग चुनाव लडऩा पड़ा। नतीजे आए तो भाजपा को बहुमत से 22 सीटें कम मिलीं और बमुश्किल शिवसेना ने गठबंधन किया। उसके बाद से लगातार कोई न कोई मुद्दा उठता रहता है। नवंबर माह में शिवसेना ने अपने मुखपत्र सामनाÓ में कहा था कि देवेन्द्र फणनवीस को राज्य में और राज्य के बाहर मराठी मानुस के हितों की रक्षा करनी चाहिए। महाराष्ट्र और कर्नाटक की सीमा पर स्थित बेलगाम का नाम बदलकर बेलगाबी करने के फैसले का भी सामनाÓ में विरोध किया गया था। यह वह इलाका है जिस पर महाराष्ट्र दावा करता रहा है। एक अन्य घटनाक्रम में पुणे में जब एक गरीब बच्चे को मैकडॉनल्ड्स रेस्त्रां से बाहर फेंक दिया गया, तो सामना में संपादकीय आई कि गरीबों के लिए कब आएंगे अच्छे दिन। यह संपादकीय नरेंद्र मोदी को निशाना बनाकर लिखा गया था और कहा था कि स्वार्थी लाभों के चलते नेता अमीर और गरीब के बीच की खाई पाटने से इनकार करते हैं, जिसके चलते गरीबों को लगातार अभिजात्य वर्ग के लोगों का शोषण झेलना पड़ता है। इस तरह की तल्खियां कई मौकों पर आई हैं।