03-Feb-2015 06:54 AM
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बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी इन दिनों कांग्रेसी नेताओं से मधुर रिश्ते बनाने की भरसक कोशिश कर रही हैं, वजह है भाजपा का बढ़ता प्रभाव। इन लोकसभा चुनावों में भाजपा बंगाल में पहली बार 
खाता खोलने में कामयाब रही। उधर तृणमूल के कई नेता भी भाजपा के संपर्क में हैं। तृणमूल सरकार में शरणार्थी राहत और पुनर्वास मंत्री मंजुल कृष्णा ठाकुर तो भाजपा में शामिल हो ही गए हैं लेकिन पूर्व रेल मंत्री एवं पार्टी के संस्थापक दिनेश त्रिवेदी, तृणमूल सरकार में मंत्री मनीष गुप्ता, राजपाल सिंह, रविरंजन चटर्जी, पूर्व मंत्री कृष्णेन्दु चौधरी मिदनापुर के सांसद शुभेन्दु अधिकारी व उनके पिता पूर्व केंद्रीय राज्यमंत्री शिशिर अधिकारी, विधायक अर्जुन सिंह, सव्यसांची दत्ता व साधना पांडे की भाजपा से निकटता अब चर्चा का विषय है। इनमें से कितने लोग भाजपा में आएंगे, कहा नहीं जा सकता। लेकिन आधे भी आ गए तो भाजपा की ताकत राज्य में तेजी से बढ़ेगी।
दिनेश त्रिवेदी तो नरेंद्र मोदी के भाई के साथ एक मंच पर कई बार आ चुके हैं, वे 1990 से नरेंद्र मोदी के प्रसंशक रहे और लगातार उनके संपर्क में भी रहे। उन्होंने नरेंद्र मोदी की दूरदृष्टि और देशभक्ति की एक नहीं कई मौकों पर सराहना की। दरअसल त्रिवेदी ममता बनर्जी से उसी समय से नाराज हैं, जब ममता बनर्जी की जिद पर 2012 में उन्हें रेल बजट प्रस्तुत करने के अगले दिन ही हटा दिया गया। यह बेइज्जती त्रिवेदी को नागवार गुजरी, इसके बाद से ही वे उचित अवसर तलाश रहे थे।
भाजपा अध्यक्ष अमित शाह हर हाल में बंगाल जीतना चाहते हैं। वे चुनाव जीतने के लिए किसी भी सीमा तक जाने को तैयार हैं और किसी भी गठबंधन से उन्हें परहेज नहीं है। इसी कारण शाह का फार्मूला बंगाल में चल सकता है। बंगाल में यदि भाजपा 4-5 चर्चित चेहरे जोडऩे में कामयाब रही, तो तृणमूल कांगे्रेस को अच्छी-खासी चुनौती मिल जाएगी। जिस तरह दिल्ली में किरण बेदी को चुनाव के वक्त मुख्यमंत्री प्रोजेक्ट करके अमित शाह ने विरोधियों को सोचने पर मजबूर कर दिया, कुछ वैसी ही सनसनी बंगाल मेें भी फैलाई जा सकती है। बंगाल मेंं भाजपा सौरभ गांगुली को शामिल करने के लिए प्रयासरत है। मोदी ने तो उन्हें केंद्रीय खेल मंत्री का पद तक ऑफर किया था, लेकिन गांगुली ने इसे ठुकरा दिया। पर बंगाल के मुख्यमंत्री का पद ऐसा है जिस पर गांगुली की नीयत डोल सकती है और फिलहाल वहां गांगुली को चुनौती देने वाला भाजपा में कोई नहीं है, क्योंकि जो भी दिग्गज नेता भाजपा से जुडेंग़े वे भाजपा की शर्त पर ही काम करेंगे।
लेकिन जीत फिर भी आसान नहीं है। हाल ही में लोकसभा चुनाव के समय भाजपा को पश्चिम बंगाल में 17.2 प्रतिशत वोट मिले। वाम दलों को संयुक्त रूप से 27 प्रतिशत के करीब मत मिला जबकि तृणमूल कांग्रेस ने अकेले 39.79 प्रतिशत मत प्राप्त किया, कांग्रेस भी 9.69 प्रतिशत मत प्राप्त करके 4 सीटें जीत पाई। विधानसभा चुनाव के समय 2011 में भाजपा को एक भी सीट नहीं मिली थी, जबकि कांगे्रस 42 सीटों पर जीती। इसका अर्थ यह है कि विधानसभा में भाजपा शून्य ही है। विधानसभा में भाजपा को कुल 4.6 प्रतिशत वोट मिला, जो मोदी लहर के चलते लोकसभा में बढ़कर 17 प्रतिशत से ऊपर पहुंच गया। भाजपा बंगाल में इसी लहर की सवारी करना चाहती है, पिछली बार उसने 289 सीटों पर प्रत्याशी खड़े किए थे। कांग्रेस का वोट अपरिवर्तित रहा था, उसने 66 सीटों पर प्रत्याशी खड़े किए और 42 सीटें जीतीं। 9.9 प्रतिशत वोट मिला। सीपीएम को भी 30.8 प्रतिशत वोट मिला लेकिन सीटें 40 ही मिलीं। सीपीआई 1.84 प्रतिशत वोट लेकर 2 सीटें जीत पाई। जबकि ममता बनर्जी की तृणमूल कांग्रेस को 38.93 प्रतिशत मत मिले थे, जो लोकसभा चुनाव में मामूली बढ़त के साथ 39.79 तक पहुंचे। जबकि भाजपा का वोट प्रतिशत बढ़कर विधानसभा चुनाव 4.6 प्रतिशत के मुकाबले लोकसभा चुनाव में 17.2 प्रतिशत पहुंच गया था, लगभग 13 प्रतिशत की वृद्धि। ध्यान देने योग्य बात यह है कि भाजपा के आने के बाद भी राज्य के तीनों प्रमुख दलों तृणमूल कांगे्रस, सीपीएम तथा कांग्रेस का मत प्रतिशत लगभग स्थिर रहा है। सीपीएम में थोड़ी गिरावट अवश्य देखी गई लेकिन सीपीएम का मत भाजपा की तरफ शिफ्ट हुआ, यह कहना जल्दबाजी होगी।
इसीलिए पश्चिम बंगाल में तृणमूल को कमजोर करना और उसके परंपरागत वोट बंैक को अपनी मु_ी में करना, भाजपा का पहला लक्ष्य है। भाजपा को अपना मत प्रतिशत दोगुना करना होगा तभी जीत मिलेगी। जहां तक लहर पर सवारी करने का प्रश्न है, उसका आंशिक फायदा ही हो सकता है। विधानसभा चुनाव में स्थानीय कार्यकर्ता और काडर ज्यादा महत्व रखते हैं। भाजपा इस मोर्चे पर कम्यूनिस्ट और तृणमूल से बहुत पीछे है। यही कारण है कि 17 प्रतिशत से ज्यादा वोट लेने के बावजूद भाजपा कुल 2 सीटें जीत पाई जबकि कांग्रेस महज 9.69 प्रतिशत वोट लेकर 4 सीटें निकाल ले गई।
कोलकाता से इंद्रकुमार बिन्नानी